भारतीय समाज में हिंसा के स्थान पर अहिंसा के संस्कृति का ही परम्परा ही नहीं बल्कि विचारधारा भी रहा है। चर्चा , विमर्श , प्रश्नोत्तर - उत्तर के बीच संवाद का स्थान विवाद और संघर्ष नहीं रहा है। सोच और मूल्य के स्तर पर संघर्ष विद्यमान रहा है जो हर काल में संघर्ष का रूप ले लेता है , स्थायी स्वरूप हों ऐसा सम्भव भी नहीं है। जब भी ज्ञान - विज्ञान के मूल्य में गिरावट होता तो भीड़ तंत्र का उभरना स्वाभाविक है। यह हर काल और समय में हुआ है जो भारत के सांस्कृतिक मूल्य को पतन के ओर ही लेकर चला जाता है। सोच के चिंतन से सत्ता का निर्माण नहीं होता है बल्कि यह सीमित अकादमिक क्षेत्र तक ही सीमित रहता है। हिंसा को बढ़ावा देने से एक तथ्य तो जरूर होता है कि समय - जगह के अनुसार सबके साथ हिंसा होगी। अंतिम रूप से यहीं कहा जा सकता है कि सत्ता आज भी सामान्य लोगों के पहुंच से बहुत दूर होता है लेकिन यह समझने में इतना समय लग जाता है कि तब तक जिं...