भारतीय समाज में हिंसा के स्थान पर अहिंसा के संस्कृति का ही परम्परा ही नहीं बल्कि विचारधारा भी रहा है। चर्चा, विमर्श, प्रश्नोत्तर - उत्तर के बीच संवाद का स्थान विवाद और संघर्ष नहीं रहा है। सोच और मूल्य के स्तर पर संघर्ष विद्यमान रहा है जो हर काल में संघर्ष का रूप ले लेता है, स्थायी स्वरूप हों ऐसा सम्भव भी नहीं है। जब भी ज्ञान - विज्ञान के मूल्य में गिरावट होता तो भीड़ तंत्र का उभरना स्वाभाविक है। यह हर काल और समय में हुआ है जो भारत के सांस्कृतिक मूल्य को पतन के ओर ही लेकर चला जाता है। सोच के चिंतन से सत्ता का निर्माण नहीं होता है बल्कि यह सीमित अकादमिक क्षेत्र तक ही सीमित रहता है। हिंसा को बढ़ावा देने से एक तथ्य तो जरूर होता है कि समय - जगह के अनुसार सबके साथ हिंसा होगी। अंतिम रूप से यहीं कहा जा सकता है कि सत्ता आज भी सामान्य लोगों के पहुंच से बहुत दूर होता है लेकिन यह समझने में इतना समय लग जाता है कि तब तक जिंदगी का पल बहुत ही कम हो जाता है। समाज के स्वरूप में परिवर्तन तो प्रगति का ही प्रतीक रहा है जो उस काल के सभ्यता का प्रतीक रहता है। मानवीय मूल्य में राज्य के निर्माण में हिंसा के प्रति रोकथाम शामिल होता है क्यूंकि हिंसा से रक्षा का दायित्व तो राज्य का ही है। अगर किसी इंसान के साथ हिंसा, मृत्यु या अमानवीय व्यवहार का अर्थ है - राज्य के साथ ही हिंसा है। वह इंसान तो राज्य पर ही विश्वास कर उसके नियमों का पालन करता है जब हिंसा होगी तो स्वतः राज्य कमजोर होगा और राज्य के ऊपर निश्चित रूप से संकट आएगा। शास्त्रार्थ का परम्परा यह सिखाता है कि आप अपने तर्कों या कुतर्कों से अपने विचार रखें और सामने वाले को भी उसी मात्रा में अधिकार भी हों। मगर कुछ घटनाओं से यह देखने में आता है कि मानवीय मूल्यों का ही पतन हो रहा है और समकालीन समाज अपने विकसित सोच को त्याग कर आदिम समाज को अपनाने पर जोर दे रहा है।
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति के बीच मूलभूत अंतर
है। भारतीय संस्कृति जाति व्यवस्था एक कलंक है जिसे हर कोई आलोचना करता है। इतना ही
नहीं जाति के गहराई में जो गुण है इसे अवगुण
के रूप में स्वीकार किया गया और संवैधानिक उपाय भी हुए। पाश्चात्य संस्कृति में भी प्रजाति विभेद व्याप्त
है और वहां पर भी काफी सुधार हुए हैं। व्यक्तिवाद का चरम उभार तो पाश्चात्य संस्कृति
को मनोरोगी ही बना दिया और तलाक जैसे समस्याओं पर कोई ध्यान ही नहीं देता है। दूसरी
ओर भारतीय संस्कृति में आज भी सामुदायिकता के भावना का गुण से इंकार नहीं किया जा सकता
है। तलाक अभी भी पाश्चात्य समाज के तुलना में
काफी कम ही है। समग्र रूप से समाज के चिंतन में मानव को मानवीय अधिकार मिलें और सबको
समान गरिमा से जीने का भी अधिकार है। अगर सारे मानव सही ही हों जाते तो फिर पुलिस,
अदालत तो बनता ही नहीं। मानव के भीतर मानवीय मूल्य रहें यह अगर एक समाजिक जिम्मेदारी
है तो उससे पहले यह राज्य का भी जिम्मेदारी है। राज्य अपने जिम्मेदारी से अगर हटता
है तो उसकी वैधता ही संकट में पड़ जायेगा और रॉबिनहुड संस्कृति का प्रवेश होगा। अब यह
सोचना होगा कि समाज भीतर हिंसा है तो आखिर
यह हिंसा क्यों है ? मानव आज भी ज्यादा बोल लें लेकिन अदालत का नाम आते ही वह अपना
जेब के बारे में जरूर सोचता है। आज भी थाना जाना कोई सभ्यता का पहचान नहीं है। आर्थिक हैसियत और समाजिक
नेटवर्क ही तय करता है कि थाना और अदालत में जाने के बाद क्या - क्या होगा और क्या
- क्या नहीं होगा। कोई भी राजनीतिक दल या पार्टी के बहुत ऊपर होता है समाज। इसका प्रमाण
यह है कि जो नेतागिरी करता है गलती से टिकट भी मिल जाएँ तो अगर हार जाने पर समाज उसका
कोई प्रशंसा नहीं करता है। अगर वह जीत जाता है तो समाज उसे सर पर भी बिठाने में देर
नहीं करता है।
स्थान, परिस्थिति और समय के अनुसार मानव का व्यवहार निरंतर ही बदलता रहता है
परन्तु सभी दर्शनों का मूलभूत सिद्धान्त यहीं है कि मानव को मानव ही समझें। युद्ध के बिना शांति सम्भव नहीं है इसका प्रमाण पूरे विश्व को तब मिला जब दो विश्व युद्ध लड़े गए। संयुक्त राष्ट्र संघ में शांति के भावना पर बल देना और जापान द्वारा भी शांति का अर्थ समझना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ही तो है। 10 दिसंबर 1948 में
मानवाधिकार का निर्माण यह बतलाता है कि खूब लड़कर शांति का ही कोई इंसान या राष्ट्र रास्ता चुनेगा।
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