आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- 'संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्' (समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए)। असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र-पुत्री के उत्पन्न होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान-बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है।[1] ब्राह्मणों के विवाह के अलावे लगभग सभी जातियों में गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति
आदि ग्रंथों में यह कहा गया है कि यदि कोई
कन्या सगोत्र से हों तो सप्रवर न हो अर्थात सप्रवर हों तो
सगोत्र न हों, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए।
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें
ऋषि अगस्ति की संतान 'गौत्र" कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है,
उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध
धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते समय इसका उपयोग किया जाने लगा। ऋषियों की
संख्या लाख-करोड़ होने के कारण गौत्रों की संख्या भी लाख-करोड़ मानी जाती है, परंतु सामान्यत:
आठ ऋषियों के नाम पर मूल आठ गौत्र ऋषि माने जाते हैं, जिनके वंश के पुरुषों के नाम
पर अन्य गौत्र बनाए गए। 'महाभारत" के शांतिपर्व (297/17-18) में मूल चार गोत्र
का ही वर्णन है - जिसमें - अंगिरा, कश्यप,
वशिष्ठ और भृगु जबकि जैन ग्रंथों में 7 गौत्रों
का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ।[2]
गोत्र का संबंध ऋषिकुल या
गुरुकुल होता है। दुसरे शब्दों में किसी व्यक्ति का जन्म किस
ऋषिकुल में हुआ है।
किसी इंसान का वंश परम्परा का शुरुआत उस व्यक्ति के गोत्र से होता है। गोत्र का सिद्धांत यह है कि हम किसी न किसी ऋषि या गुरु
के ही संतान या पुत्र हैं।
इस संदर्भ में
गोत्र का निर्माण
ऋषि से प्रारम्भ होता है और
वह
ऋषि
का ही वंशज माना जाता है।
गोत्रों का जड़ ऋषि के नाम से जोड़ा जाता है। इन संदर्भ में अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे, और इनके वंश अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक को देखा जा सकता है।
गोत्रों मूल इकाई को "गण" कहा जाता है।
गण
बहिर्विवाह सिद्धांत का पालन करता है। इसमें
सप्त ऋषियों के बाद
उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामों से ही अनेक प्रकार के गोत्रों के
नामकरण सिलसिला प्रारम्भ हुआ। गोत्र का अर्थ
पृथ्वी से रक्षा
भी है।
गो
से पृथ्वी और 'त्र' से
रक्षा करने वाला भी है। इस प्रकार गोत्र का अर्थ पृथ्वी से रक्षा करने वाले ऋषि से भी
है। गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी है, ऋषि मुनि अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण के बाद
अन्य प्रजा जनों
का सही राह या पथ या
मार्ग का दर्शन करा पाते थे।
वे ही लोग
गोत्र कारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य ज्ञान अर्जित कर जहाँ भी जाते थे, वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे या उसी से जाने जाते थे। इसी के पश्चात वे लोग गोत्र परम्परा से खुद को जोड़ने लगे। गोत्रों का प्रवर से घनिष्ठ संबंध होता है। प्रवर का शाब्दिक अर्थ है " श्रेष्ठ" होता है। प्रवर
गोत्र के प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद में होने वाले महान व्यक्तियों की ओर संकेत करता है। प्रवर का निर्धारण
ऋषियों के नामकरण पर ही होता है। ये
नाम वैदिक, नित्य, नैमित्तिक कर्म एवं कुलाचार के जनक होते हैं। गोत्र सर्वधिक प्राचीन है जबकि उसके तुलना में प्रवर नया है। प्रवर तीन से
पाँच केपाँच के बीच होते हैं, जबकि तीन
प्रवर वाले सर्वोत्तम माने जाते हैं। पांच श्रेणी वाले प्रवर
यज्ञोपवीत के ब्रह्मपाश द्वारा पाँच लपेटे वाला यज्ञोपवीत से संस्कारित होते हैं तो दूसरी ओर तीन प्रवर वाले यज्ञोपवीत के तीन लपेटों से ही ब्रह्मपाश दवरा
यज्ञोपवीत से संस्कारित होते हैं।
प्रवर का अर्थ मूलतः
श्रेष्ठता या उच्च क्रम से है। प्रवर ही श्रेष्ठ है।
गोत्र और प्रवर एक -दुसरे से संबंधित हैं।
एक ही गोत्र में अनेक ऋषि भी हैं।
वे ऋषि भी अपनी विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता
और श्रेष्ठता के कारण वे काफी प्रतिष्ठित हुए।
जिस गोत्र में जो व्यक्ति विख्यात
हो जाता है, उस गोत्र की पहचान उसी व्यक्ति के नाम से चले लगता है।
उदाहरण के तौर पर श्रीराम सूर्यवंश में पैदा लिए और इस प्रकार कहा जा सकता है कि
इस वंश के प्रथम व्यक्ति सूर्य थे । इसके बाद
इसी वंश में रघु राजा प्रसिद्ध हुए तो तो आगे चलकर इनके नाम से ही रघुवंश या राघव वंश प्रसिद्ध हुआ। कुछ इसी प्रकार
इक्ष्वाकु राजा जब प्रसिद्धि को प्राप्त किये तो
तो उनके नाम से ही
इक्ष्वाकु वंश पड़ा।
भारद्वाज के गोत्र में पाँच प्रवर होते हैं। इसीलिए
गोत्र में पाँच ऋषि को बहुत
ख्याति
मिली होगी। इसलिए इनके नाम से भी गोत्र चल पडा, ये गोत्र ही प्रवर हैं । मूल गोत्र भरद्वाज है जबकि इसके प्रवर ऋषि हुए जैसे - आंगिरस्, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, शौङ्ग, शैशिर । ये प्रवर तीसरी पीडियों या पांच पीढयों के
सन्तान हो सकते हैं। पौत्र से प्रारम्भ होकर जो संतानें हैं वे एक ही प्रवर के संतानें हैं।
गोत्र और प्रवर को अंतर कर पाना आसान नहीं है। इतना ही कहा जा सकता है कि
कह सकते हैं कि थोडा सा अन्तर है । दोनों एक ही मूल पुरुष से जुडे हुए हैं । प्रवर में यह व्यवस्था है कि प्रथम प्रवर -
गोत्र के ऋषि से संबंधित होता है तो
दूसरा प्रवर - ऋषि के पुत्र से ,तीसरा प्रवर -
ऋषि पौत्र से संबंधित होता है।
इस प्रकार प्रवर से उस गोत्र का प्रवर्तक ऋषि का
तीसरी पीढी और पाँचवी पीढी तक का पता लग जाता है।
एक समान गोत्र और प्रवर में विवाह निषिद्ध है यानि यह बहिर्विवाह के सिद्धांत पर चलता है।
गोत्र-प्रवर का उदाहरण –
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अगस्त्य---इसमें तीन प्रवर हैं---आगसस्त्य, माहेन्द्र, मायोभुव,
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उपमन्यु---वाशिष्ठ, ऐन्द्रप्रमद, आभरद्वसव्य,
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कण्व---आंगिरस्, घौर, काण्व,
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कश्यप---कश्यप, असित, दैवल,
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कात्यायन---वैश्वामित्र, कात्य, कील,
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कुण्डिन---वाशिष्ठ, मैत्रावरुण, कौण्डिन्य,
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कुशिक---वैश्वामित्र, देवरात, औदल,
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कृष्णात्रेय---आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्व,
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कौशिक---वैश्वामित्र, आश्मरथ्य, वाघुल,
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गर्ग---आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, गार्ग्य, शैन्य,
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गौतम---आंगिरस्, औचथ्य, गौतम,
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घृतकौशिक---वैश्वामित्र, कापातरस, घृत,
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चान्द्रायण---आंगिरस, गौरुवीत, सांकृत्य,
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पराशर---वाशिष्ठ, शाक्त्य, पाराशर्य
·
भरद्वाजः---आंगिरस्, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, शौङ्ग, शैशिर ।
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भार्गव---भार्गव, च्यावन, आप्नवान्, और्व, जामदग्न्य,
·
मौनस---मौनस, भार्ग्व, वीतहव्य,
[1]
http://hindi.webdunia.com/astrology-articles
[2]
http://www.sagaaisevidaaitak.in/upyogi/gotra.htm
[3]
http://vaidiksanskrit.blogspot.in/2016/04/blog-post.html
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