ब्राह्मण एक जाति है और ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। समय और परिस्थितियों के अनुसार प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है। चूँकि ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर रहा है इसी कारण तमाम बुराईयों को उसी में देखा जाता है। इतिहास को पुनः लिखने कि आवश्यकता है और तथ्यों को पुनः समझने कि भी आवश्यकता है। प्राचीन काल में महापद्मनंद, घनानंद, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे महान शासक शूद्र जाति से संबंधित थे, तो इस पर तर्क और विवेक से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है प्रचलित मान्यताओं पर पुनः एक बार विचार किया जाएँ। वैदिक युग में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है। इन प्रकार कि संस्थाओं को अगर अध्ययन किया जाएँ तो यह
जनतांत्रिक संस्थाएँ की ही प्रतिनिधि थी। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसी वेद में यह कहा गया है प्रजापति
की दो पुत्रियाँ हैं, जिसे 'सभा' और 'समिति' कहा जाता था। इसी विचार को सुभाष कश्यप ने अपनी पुस्तक हमारा संविधान में सभा को आमसभा और समिति को वयोवृद्धों की सभा कहा है।[1] वैशाली
गणराज्य के स्थल लिच्छवी को विश्व का पहला
जनतंत्र कहा जाता है। यह भी एक संयोग है इसी जगह जैन धर्म में अंतिम और चौबीसवें तीर्थकर
महावीर का भी जन्म हुआ था। पूरे विश्व को सर्वप्रथम गणतंत्र का ज्ञान कराने वाला बिहार
राज्य का वैशाली जिला ही है। इन बातों को लिखने का कारण यह है कि महावीर और बौद्ध दोनों
क्षत्रिय धर्म में जन्म लेने के बाबजूद भी दोनों ने अलग - अलग धर्मों की स्थापना की।एक
ही परिवार में जन्म लेने वाले तीन शासकों ने अलग - अलग धर्मों का पालन किया। चन्द्रगुप्त
मौर्य ने जैन धर्म, बिंदुसार ने आजीवक और अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया। इस युग में
भी प्रगतिशील समाज का स्पष्ट उदाहरण है।
ब्राह्मण
और ब्राह्मणवाद के बीच के अन्तर को दर्शाने के लिए उपर्युक्त विश्लेषण किया गया है।
किसी भी जाति का व्यक्ति ब्राह्मणवाद का पोषक हो सकता है। सिर्फ ब्राह्मण जाति में
जन्म लेने मात्र से ही वह ब्राह्मणवाद का पोषक होगा, यह धारणा बिल्कुल गलत और तर्कविहीन
है। चाणक्य या कौटिल्य या विष्णुगुप्त ने आखिर चन्द्रगुप्त मौर्य को ही राजा बनाया
और उसे योग्य शासक बनाया। यह प्रश्न इस समय प्रासंगिक है क्यूँकि ब्राह्मणों और शूद्रों
के बीच जो तनाव आज दिख रहा है इसके पीछे भी इतिहास है। अगर इतिहास है तो इसका उत्तर
भी तथ्यों के इतिहास के द्वारा ही देना चाहिए। यह कहना आसान है भारत प्रगितिशील नहीं
था मगर इसे तथ्यों से भी प्रमाणित करना होगा। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों के शासन के
बाद भी जाति व्यवस्था कायम रहीं। इस युग में आखिर जाति व्यवस्था तो पूरी तरह खत्म होनी
चाहिए। यह प्रश्न भी समय के संदर्भ में ही खोजा जा सकता है। अग्रेजों के शासन काल में
राजा राम मोहन राय जो जाति से ब्रह्मण थे उन्होंने सती प्रथा का विरोध किया। इसी कारण
माँ और पुत्र में कभी भी अच्छे संबंध नहीं रहे। उनको लंदन भेजने वाले भी मुस्लिम शासक
अकबर द्वितीय ही थे। अब इतिहास के सत्य को समने लाना समय की मांग और जरूरत दोनों है।
1938 में बाबासाहेब अम्बेडकर ने मुंबई शहर में रेलवे
मजदूरों के आंदोलन में अपने भाषण में कहा था
पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद दोनों ही मजदूरों के हितों के विरुद्ध हैं। ब्राह्मणवाद शब्द
व्यवस्था के खिलाफ है ना कि किसी जाति के। इसे अगर सरल शब्दों में समझने का प्रयास
करें तो यहीं उनकी सोच को व्यापक जनाधार के साथ भी जोड़ती है। वंचित और हाशिये समाज
से संबंधित नेताओं के व्यवहार शैली को अगर देखा जाएँ तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता
है उनमें भी ब्राह्मणवाद का असर और मूल्य दिखाई देता है।
गाँधीजी और आंबेडकर में अन्तर यह था की गाँधीजी छूआछूत के खिलाफ थे और अम्बेडकर जाति व्यवस्था के खिलाफ थे। मानते है कि एकाएक जाति व्यवस्था खत्म हो जाती है (उदाहरण के तौर पर माना
कि abc एक त्रिभुज है)
तो जाति के आधार पर राजनीति करने वाले लोगों का क्या होगा ? क्या सभी लोगों द्वारा जाति व्यवस्था छोड़ी जा सकती है। जातिगत गणित और आकड़ा का खेल खत्म होगा ? अब लोगों द्वारा जाति छोड़ी
जा सकती है ?
समाजिक व्यवस्था का विभाजन कुछ इस प्रकार है।
ब्रह्मा - मुख - ब्राह्मण
ब्रह्मा - भुजा
- क्षत्रिय
ब्रह्मा - जंघा
- वैश्य
ब्रह्मा - पैर - शूद्र
वर्ण
व्यवस्था का उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुषसूक्त में मिलता है। एक बात और ध्यान
देने योग्य है यहां वर्ण शब्द का अर्थ रंग (COLOUR)
था। आर्य को गोरा रंग और दास काले रंग के द्वारा
विभाजित था। ऋग्वेद में ब्राह्मण और क्षत्रिय का उल्लेख भी नहीं है। दास और आर्यों
में भाषा, बोली, संस्कृति, नैतिक मूल्य सभी अलग - अलग थे। वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म
नहीं होकर कर्म पर आधारित था। इसीलिए वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था से मिलाना अनुचित
ही लगता है।
ऋग्वेद
के मंत्रों का उच्चारण यज्ञों के अवसर पर 'होतृ ऋषियों' द्वारा किया जाता था। ऋग्वेद
की अनेक संहिताओं में 'संप्रति संहिता' ही उपलब्ध है। संहिता का अर्थ संकलन होता है।
ऋग्वेद की पांच शाखायें हैं-
शाकल,
वाष्कल,
आश्वलायन,
शांखायन,
मांडूकायन।
ऋग्वेद
के कुल मंत्रों की संख्या लगभग 10600 है। बाद में जोड़ गये दशम मंडल, जिसे ‘पुरुषसूक्त‘
के नाम से जाना जाता है, में सर्वप्रथम शूद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त
नासदीय सूक्त (सृष्टि विषयक जानकारी, निर्गुण ब्रह्म की जानकारी), विवाह सूक्त (ऋषि
दीर्घमाह द्वारा रचित), नदि सूक्त (वर्णित सबसे अन्तिम नदी गोमल), देवी सूक्त आदि का
वर्णन इसी मण्डल में है। इसी सूक्त में दर्शन की अद्वैत धारा के प्रस्फुटन का भी आभास
होता है। सोम का उल्लेख नवें मण्डल में है। 'मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, माता
अन्नी पीसनें वाली है। यह कथन इसी मण्डल में है। लोकप्रिय 'गायत्री मंत्र' (सावित्री)
का उल्लेख भी ऋग्वेद के 7वें मण्डल में किया गया है। इस मण्डल के रचयिता वसिष्ठ थे।
यह मण्डल वरुण देवता को समर्पित है।
अनुसूचित जनजाति को बिल्कुल अलग परिदृश्य से देखने कि जरूरत है। अनुसूचित जनजाति की परिभाषा : भारतीय संविधान में कहीं भी आदिवासी या जनजाति शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। संविधान के
अंतर्गत इन समुदायों को “अनुसूचित जनजाति” की संज्ञा दी गयी है। भारतीय संविधान के अनुछेद 366(25) में ‘अनुसूचित जनजातियों’ की परिभाषा ऐसी जनजातियों अथवा जनजातीय समुदाय अथवा ऐसे जनजातियों समुदायों के भाग अथवा उनके भीतर के समूहों के रूप में की गई है, जिन्हें अनुच्छेद 342 के अंतर्गत ‘अनुसूचित जनजातियाँ’ होना माना गया है। संविधान के अनुछेद 342 में यह परिभाषित किया गया है कि किसी राज्य अथवा संघ राज्य क्षेत्र के सम्बन्ध में अनुसूचित जनजाति कौन होगी।[2] अनुसूचित जनजाति हमेशा से ही समाज के मुख्य धारा से अलग और पहाड़ी या दुर्गम स्थानों पर निवास करते हैं। आज भी उनके शोषण का आधार का आधार जाति व्यवस्था नहीं है बल्कि वे जहाँ रहते हैं वहाँ खनिजों के कारण उन्हें सर्वाधिक
रूप से अत्याचार होता है। जनजाति तो एक सूची है जिसमे विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के समूह का नाम है। इतना ही नहीं प्रत्येक क्षेत्र में अलग संस्कृति और परम्परा विद्यमान है। झारखंड के समस्याओं को नागालैंड के जनजाति से जोड़ा नहीं जा सकता है। मातृसत्ता का उदाहरण
मेघालय में गारो और खासी जनजाति में विद्यमान है। जनजाति और हिन्दू समाजिक परम्परा को भलें ही राजनीतिक उद्देश्य के लिए एक कर दिया जाएँ मगर वास्तविकता तो अलग ही है।
ठीक उसी प्रकार अनुसूचित जाति जो समाज के बाह्य भाग यानि गाँव से ही अलग रहते थे। समाजिक पायदान पर पांचवें स्थान पर हैं। इस समाज कि भी स्थिति का आकलन बिल्कुल अलग तरीके से करने की आवश्यकता है। यह समाज सर्वाधिक रूप से शोषण और अत्याचार का सामना किया और आज भी कर रहा है। मानवीय अधिकारों और सामाजिक अधिकारों से वंचित यह समाज आज भी पहचान के संकट से ही जूझ रहा है।
अब प्रश्न यह है क्या प्रचीन में घटीं घटनाओं को आज के घटनाओं को जोड़कर देखने से आखिर किन निष्कर्षों पर पहुँचा जाएँ। निःसंदेह जाति व्यवस्था ने राष्ट्रवाद और समाजिक एकीकरण को बहुत कमजोर किया। सत्ता में अगर कोई बाहरी शासक यहां इसीलिए शासन कर पाएं क्यूंकि समाज में एकता थी ही नहीं
और हमारा समाज नफरत से भरा हुआ था। समाजिक अलगाव और अनेकता ने ही यहां किसी को शासक बना दिया। समाजिक एकता के अभाव में राष्ट्रीय एकता और आर्थिक विकास भी सम्भव नहीं है। अतीत से सीख कर नए सोच और उम्मीद के साथ ही नया समाज बन सकता है।
ब्राह्मणवाद का अर्थ अब ब्राह्मण जाति से नहीं है। ब्रह्मणवाद अब सभी जातियों में प्रवेश कर चुका है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग आदि समूहों में भी अब जो लोग आगे बढ़ गए है वो अपने समुदाय के लोगों को आगे नहीं आने देना चाहते हैं। उनका व्यवहार, बोली, आचरण, संस्कृति में समानता और भाईचारा नहीं दिखाई देता है। नेता और समाजिक नेतृत्व का होड़ लग चूका है और जातिगत गणित का लाभ लेने लिए बैचैन भी रहते हैं।
जो जिस जाति का नेता है उसके हिसाब अपना कद भी बनाता यही उसी के अनुरूप मंत्रालय या विभाग को मांग और पूर्ति के हिसाब से चलने का प्रयास भी करता है।
आज अब उस समाज में रहते हैं जो अब जाति का फायदा लेने के लिए आतुर रहता है। आस्था और विश्वास के दृष्टिकोण से जाति एक ऐसी संथा है जिसे हर कोई नकार देता है और उसी के अनुरूप अपना विचार भी बनाता है। जाति का अगर निर्माण कोई भी किया हों लेकिन अब यह संस्था अपने स्वरूप और प्रकृति को विस्तार ही करेगा। आंतरिक रूप से मजबूत होगी बाह्य आवरण कोई भी कुछ भी तैयार कर सकता है।
मंडल आयोग को लागू करने वाले वी पी सिंह और केंद्रीय संस्थानों में पिछड़ों को आरक्षण देने वाले अर्जुन सिंह थे, जो राजपूत जाति से थे। भोपाल डॉक्यूमेंट को लागू करने वाले श्री दिग्विजय सिंह थे, वे भी राजपूत जाति से ही थे। इस तरह यह कहा जा सकता है
प्रगतिशील सोच को कोई भी आगे ला सकता है। देवघर के मंदिरों में प्रवेश करने का श्रेय बिहार केशरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह को जाता है। जाति व्यवस्था से बचने की जगह खुलकर चर्चा होनी चाहिए।
Very nice
ReplyDeletethanks once again
DeleteBehad santulit lekh hy...sayad iss naritive pr ab tak kisi ne likha nhi...muje ummid hy ki iss lekh pr pure desh me charcha honi chayee...lekhak bdhai ke patr hein
ReplyDeleteशुक्रिया !!
Deleteबस आपके ऐसे ही कमेंट मिलते रहे तो और सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर विचार प्रस्तुत करने में प्रोत्साहन मिलेगा।
Bahut khoob..Shandar..
ReplyDeletethank you for your comment
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