गैस
सब्सिडी और आरक्षण को आज के नेताओं द्वारा एक कर दिया गया। तथ्य और तर्क से बिल्कुल
अलग बातें तब की जाती हैं जब कोई मुद्दा समझा ही नहीं गया हों या समझकर उसे नहीं समझने
का प्रयास किया गया हों। केंद्र की भाजपा सरकार
में साझीदार और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने आरक्षण मुद्दे पर संघ की टिप्पणी
की आलोचना की है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचार प्रमुख
ने आखिर चुनाव के दौरान ही ऐसी विवादित टिप्पणी क्यों की है। यह कुछ और नहीं बिहार
चुनाव के दौरान खड़ा किए गए विवाद के जैसा ही है। राजग को बिहार में ऐसे ही विवादित
बयान की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। उन्होंने कहा कि संघ प्रवक्ता और उसके अखिल भारतीय
प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य की इस तरह की टिप्पणी से लोगों में भ्रम पैदा होना स्वाभाविक
है।[1] दूसरी
ओरलोकजनशक्ति पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान
ने कहा है कि समृद्ध दलित स्वेच्छापूर्वक उसी प्रकार से आरक्षण छोड़ दें, जिस प्रकार
से संपन्न लोग गैस सब्सिडी का त्याग कर रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए इंटरव्यू
में चिराग पासवान ने कहा, ‘मेरे विचार में आर्थिक तौर पर जिन लोगों की पृष्ठभूमि समृद्ध
हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने पर समुदाय के अन्य लोगों को
बेहतर अवसर मिल सकेंगे।’ 2014 लोकसभा चुनाव में पहली
बार बिहार से सांसद चुने गए चिराग पासवान ने यह भी कहा कि आरक्षण नहीं लेने का फैसला
स्वेच्छा से होना चाहिए, न कि जोर-जबर्दस्ती से। चिराग ने कहा, मैं जातिवाद से रहित
समाज की उम्मीद करता हूं। यह मेरा लक्ष्य है। मैं बिहार से आता हूं, जहां राजनीति पर जातिगत
समीकरण हावी रहते हैं। इस लक्ष्य को हासिल
करने में यूपी और बिहार की अहम भूमिका रहेगी।[2] अब
प्रश्न यह है कि जमुई संसदीय क्षेत्र आरक्षित है या आरक्षित नहीं है। अगर जमुई संसदीय
क्षेत्र आरक्षित है तो आरक्षण का पूरा लाभ लेकर इस तरह का बयान देना उचित है या अनुचित,
ये तो आने वाला समय ही बता पायेगा। जातिगत राजनीति अगर बिहार में होता है तो क्या बिहार
के लोग इसके दोषी हैं ?
बिहार
में दलितों पर हिंसा बढ़ती जा रही है तो बिहार के दलितों का कोई दोष है। अगर बिहार में
शिक्षा का स्तर काफी नीचे है तो इसमें बिहार के लोगों का कोई दोष है। अगर राजनीति से
जाति निकलेगी तो इससे अच्छी बात कुछ और नहीं हो सकती है। हमारे समझ से योग्यता आधारित
राजनीति ही होना चाहिए। युवा
सांसद का सोच क्रन्तिकारी है लेकिन पहले स्वयं पर इसे आजमाना चाहिए फिर कोई सलाह देनी
चाहिए।
देश
में फिलहाल 20 ऐसे दल हैं, जो अपने नामों में अंबेडकर, शोषित, दलित या रिपब्लिकन जैसे
शब्दों का इस्तेमाल कर दलित या आदिवासी वर्ग के कल्याण का दावा करते हैं। चाहे मायावती के नेतृत्व वाली बसपा हो, रामविलास
पासवान की लोजपा या पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी, रामदास आठवले की आरपीआई सभी
पार्टियां दलित वर्ग को अपने पाले में खड़ा करने की कोशिश में लगी रहती हैं। आंकडों में बात करें तो हिंदुस्तान की कुल 543 लोकसभा
सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 79 और अनुसूचित जनजाति के लिए 42 सीटें आरक्षित हैं। शेष 422 सामान्य सीटें हैं। वर्तमान नियमों के हिसाब से आरक्षित सीट से सामान्य
वर्ग का कोई उम्मीदवार नहीं लड़ सकता। लेकिन
सामान्य सीट से किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के उम्मीदवार के चुनाव लड़ने पर कोई पाबंदी
नहीं है।[3] बिहार
के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने
खुलासा किया है कि हाल में उन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए भी छुआछूत का शिकार होना पड़ा। उन्होंने बताया कि उन्हें छुआछूत का एहसास उस समय
हुआ, जब एक मंदिर में पूजा के बाद लोगों ने मंदिर परिसर और मूर्ति को धो दिया। उस घर को भी धो दिया गया, जहां वो कुछ वक्त के लिए
ठहरे थे।[4]
जाने
माने समाजशास्त्री सतीश देशपांडे कहते हैं कि जाति व्यवस्था के दो छोर पर खड़े लोगों
के लिए जाति के अलग अलग अर्थ हैं। देशपांडे बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, जाति जो संस्थान
है वो कथित रूप से ऊंची जाति और निचली जाति के व्यक्ति के लिए अलग है। अगर आप किसी कथित रूप से निचली जाति के हैं तो आप
अपनी अस्मिता के बारे में चाहे जो सोचें समाज आपको रोज़ सबक सिखाता है और बताता है
कि आपकी औकात क्या है।[5]
यह सोचने को आज भी मजबूर करता है जब एक मुख्यमंत्री को जाति आधारित शोषण क सामना करना पड़ रहा है तो आम लोगों के दिनचर्या में तो यह इतना घुल मिल जाता है कि इसका पता भी नहीं चलता है।
बुद्ध,
महावीर, कबीर, संत तुकाराम, रैदास आदि के योगदानों के बाबजूद भी जाति प्रथा खत्म नहीं
हो पायी। सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फूले द्वारा वर्ष 1873 में की गयी थी। इसने महाराष्ट्र में एक जाति विरोधी आंदोलन को संगठित
किया। अम्बेडकर ने जातिप्रथा को समाप्त करने
के लिए चावदार तालाब आंदोलन शुरू किया था, जिसका लक्ष्य था दलितों को पानी के सार्वजनिक
स्त्रोतों पर अधिकार दिलाना था। आज मानव अधिकारों के इतिहास में यह आंदोलन काफी महत्व
रखता है। मंदिरों में प्रवेश दिलाने हेतु कालाराम मंदिर आंदोलन चलाया। अंबेडकर का स्पष्ट मत था कि जातिप्रथा, श्रमविभाजन
नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। अंबेडकर और फुले पिछड़ों और दलितों को उनके अधिकार के लिए आजीवन संघर्ष किया।
समाजिक परिवर्तन के संदर्भ में गाँधीजी मनुष्यों के मनोवैज्ञानिक व्यवहार पर ज्यादा बल देते थे। शायद इसी का परिणाम था गांधी हृदय परिवर्तन के द्वारा समाजिक बदलाव कि बात करते थे। इसे आंबेडकर ने कभी भी स्वीकार नहीं किया। शायद आज के नेता जाति को मिटा दें और समाजिक समानता को स्थापित कर दें तो इससे अच्छी बात
क्या होगी।
Achha hai..par ararkan to trivialise kar diya hai..sabhi mainstream political parties ise mufatkhori samjhate hai..pratiniditva ka mudda to sirf back seat par hai.
ReplyDeleteआरक्षण पर प्रतिक्रया बिना दलितो के हितो पर समझे नहीं देना चाहिए। क्या सामान्य वर्ग के लोग BPL(सामान्य वर्ग
ReplyDelete) वालो को first choise का समर्थन करते हैं