गुजरात
के चुनाव में अब गिनती के दिन रह गए हैं। चुनाव आयोग पर भी इस बार तिथि नहीं घोषणा किये जाने के कारण आरोप - प्रत्यारोप
का दौर शुरू हो चूका था। लेकिन चुनाव आयोग ने बुधवार को गुजरात में विधानसभा की 182 सीटों पर चुनावों के लिए तारीखों की घोषणा कर दी। गुजरात विधानसभा चुनाव दो चरणों में कराए जाएंगे। पहले चरण का चुनाव 9 दिसंबर (89 विधानसभा सीटों के लिए), जबकि दूसरे चरण का चुनाव 14 दिसंबर (93 विधानसभा सीटों के लिए) को होगा। गुजरात और हिमाचल प्रदेश, दोनों जगह वोटों की गिनती 18 दिसंबर को होगी। गुजरात चुनावों में इस बार 50,128 पोलिंग बूथ बनाए गए हैं। गोवा के बाद हिमाचल और गुजरात ऐसे राज्य होंगे जहां चुनावों में शत प्रतिशत वीवीपैट मशीनों का इस्तेमाल किया जाएगा।[1]
VVPAT मशीन : विशेष जानकारी
वोटर वेरीफ़ाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल यानी (VVPAT) एक तरह की मशीन होती है, जिसे ईवीएम के साथ जोड़ा जाता है. इसका फायदा यह होता है कि जब कोई भी शख्स ईवीएम का इस्तेमाल करते अपना वोट देता है, तो इस मशीन में वह उस प्रत्याशी का नाम भी देख सकता है, जिसे उसने वोट दिया है। भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ने यह मशीन 2013 में डिजाइन की।
सबसे पहले इसका इस्तेमाल नागालैंड के चुनाव में 2013 में हुआ। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने वीवीपैट मशीन बनाने और इसके लिए पैसे मुहैया कराने के आदेश केंद्र सरकार को दिए। चुनाव
आयोग ने जून 2014 में तय किया किया अगले चुनाव यानी साल 2019 के चुनाव में सभी मतदान केंद्रों पर वीवीपैट का इस्तेमाल किया जाएगा। बीते दिनों पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने 52,000 वीवीपैट का इस्तेमाल किया। व्यवस्था के तहत वोटर डालने के तुरंत बाद काग़ज़ की एक पर्ची बनती है।
इस पर जिस उम्मीदवार को वोट दिया गया है, उनका नाम और चुनाव चिह्न छपा होता है। यह व्यवस्था इसलिए है कि किसी तरह का विवाद होने पर ईवीएम में पड़े वोट के साथ पर्ची का मिलान किया जा सके।
ईवीएम में लगे शीशे के एक स्क्रीन पर यह पर्ची सात सेकंड तक दिखती है। अगर कोई व्यक्ति चुनाव के दौरान वीवीपैट की पर्ची में अलग व्यक्ति का नाम आने की बात करता है, तो चुनाव अधिकारी उस वोटर से पहले एक हलफनामा भरवाएंगे। वोटर को बताया जाएगा कि सूचना गलत होने उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है फिर चुनाव अधिकारी सभी पोलिंग एजेंटों के सामने एक रेंडम-टेस्ट वोट डालेंगे। जिसे बाद में मतगणना के वक्त घटा दिया जाएगा। इस वोट से वोटर के दावे की सच्चाई पता चल सकेगी। वीवीपैट में जो प्रिंटर इस्तेमाल होता है, वह काफी उम्दा क्वालिटी का है और उससे छपी पर्चियों पर स्याही कई साल तक नहीं मिटती। प्रिंटर में एक खास सेंसर भी है जो खराब क्वालिटी की पर्ची आने पर प्रिंटिंग नहीं करता। वीवीपैट ईवीएम से होने वाली वोटिंग में एक मोड़ है जो प्रामाणिकता और पारदर्शिता लाता है।
इसलिए आने वाले चुनावों में इसके इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है।[2]
गुजरात के राजनीति में बहुदलीय व्यवस्था न होकर दो दलीय व्यवस्था ही नब्बे के दशक से दिखाई दे रहा है। डॉ जीवराज नारायण मेहता और मोरारजी देसाई खेमों में गुजरात गठन से ही संघर्ष शुरू हो गया था। इसी काल में सामंती शक्तियों, नौरशाही,
राजनीति और उद्योग समूहों में अप्रत्यक्ष रूप से गठजोड़ हुआ।
स्वतंत्र पार्टी, भारत का एक राजनैतिक दल था जिसकी स्थापना चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अगस्त, 1959 में की थी। इस दल ने जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी नीति का विरोध किया और तथाकथित "लाइसेंस-परमिट राज" को समाप्त कर मुक्त अर्थव्यवस्था की वकालत की। भारत की उस समय की स्थिति ऐसी थी कि दुर्भाग्य से इसे जमींदारों और उद्योगपतियों की हितैषी पार्टी माना गया। स्वतंत्र पार्टी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में अच्छी सफलता प्राप्त की थी लेकिन पीलू मोदी की अध्यक्षता वाली इस पार्टी के भारतीय लोकदल में विलय के साथ इसका अस्तित्व खत्म हो गया।[3]
गुजरात के राजनीति का समाजिक आधार : इस फॉर्मूले या समीकरण का इस्तेमाल 1960 के बाद से ही चलता रहा। इसी समीकरण में जाति विशेष समूह को अदल - बदल कर समाजिक आधार बनाया गया।
स्वर्ण मतदाता + वैश्य समुदाय + ब्राह्मण = 05 %
पटेल / पाटीदार = 20 %
राजपूत = 4 %
पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियां = 35 %
दलित = 07 %
आदिवासी = 14 %
मुस्लिम =
08 %
KHAM = क्षत्रिय + दलित + आदिवासी + मुस्लिम
BHAM = ब्राह्मण + क्षत्रिय + आदिवासी + मुस्लिम
FAM = फॉरवर्ड वर्ग + आदिवासी + मुस्लिम
Paksha = पाटीदार + क्षत्रिय
GUJARAT
LEGISLATIVE ASSEMBLY ELECTION IN 1967 PARTY WISE
Name of Party
|
Seats
|
Indian National Congress (INC)
|
93
|
Swatantra Party (SWA)
|
66
|
Praja Socialist Party (PSP)
|
3
|
Bharatiya Jan Sangh (BJS)
|
1
|
Independents (IND)
|
5
|
Total
|
168
|
1967 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को 38 % वोट मिला और मात्र 66 सीटों पर चुनाव जीता था। कांग्रेस पार्टी को चुनाव में लगभग 05 % का नुकसान हुआ और बीस (20) सीटों के नुकसान के बाद भी 93 सीटों पर सफलता मिलीं। जनसंघ ने सोलह सीटों
पर चुनाव लड़ा लेकिन मात्र एक ही सीट पर सफलता मिलीं। यह सफलता सौराष्ट क्षेत्र में
मिली जहां पर जनसंघ ने नौ उम्मीदवार खड़े किये थे।
1960 – 1980 के बीच कछुए के चाल से
निरंतर जनसंघ ने अपना जनाधार में विस्तार किया। 1967 से ही नगरपालिका
और नगर निगम में जनसंघ अपना उम्मीदवार खड़ा कर अपनी उपस्थिति को दर्ज कराया। इसी वर्ष स्वतंत्र पार्टी
ने कांग्रेस पार्टी को चुनौती दिया और अपने जनाधार को विस्तार करने में सफलता भी पायीं।
1967 में कांग्रेस के विभाजन का असर 1971 में
स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा था। आपातकाल से कांग्रेस के लोकप्रियता पर गहरा
धक्का पहुँचा। 1984 के चुनाव में एक नाटकीय
मोड़ आया जिसका असर अभी तक है। इसी चुनाव में लगभग उन्नीस प्रतिशत वोटों के आकड़ें को
भजपा पार कर गयी और उत्तरी गुजरात में एक लोकसभा सीट पर सफलता मिलीं। मेहसाणा जो समान्य
वर्ग का सीट था उसमें ए के पटेल ने रायणका
सागरभाई कल्याणभाई को हराया था। ए के
पटेल भाजपा से और रायणका सागरभाई कल्याणभाई कांग्रेस के उम्मीदवार थे। इस समय मात्र
दो लोकसभा सीटों पर ही भाजपा थी। भाजपा को दूसरी सीट पर सफलता आंध्र प्रदेश में मिली।
हनमकोंडा लोकसभा सीट जो सामान्य वर्ग से ही था उस पर चांदुपातला जंगा रेड्डी ने कांग्रेस के उम्मीदवार पी वी नरसिम्हा
राव को हराया था। ( 1984 और 1989 में राव महाराष्ट्र की रामटेक सीट से जीते थे। यहीं
बाद में चलकर 1991 में भारत के प्रधानमंत्री बनें। ) बाबूभाई पटेल 1977 में जनता पार्टी
से मुख्यमंत्री बनें। उसके बाद भी कांग्रेस पार्टी सत्ता में वापस आयी। पुनः केशुभाई
पटेल के नेतृत्व में 1995 से सत्ता
में आयीं। मुख्यमंत्री ऐसे बदलते रहें मगर भजपा सत्ता में बनीं रहीं। गुजरात उसके बाद
भाजपा का किला ही बन गया। 1985 से ही गुजरात
राज्य में जाति और धर्म के आधार पर जनमत को काफी प्रभावित किया।
गुजरात
विधानसभा चुनाव में इस बार भाजपा और कांग्रेस में टक्कर है। जमीनी स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ताओं का पकड़ मजबूत है और कैडर के अभाव
कांग्रेस पार्टी भले ही शुरुआती दौर में बढ़त बना सकती है लेकिन चुनाव आते - आते स्थिति
में परिवर्तन हो जायेगा। चुनाव में मतदाता को बूथ या मतदान केंद्र तक ले जाने के लिए
स्वार्थरहित कार्यकर्ताओं की आवश्यकता हो है। कांग्रेस पार्टी के लिए दुःखद बात यह
है कि अभी तक कैडर और स्वार्थरहित कार्यकर्ताओं का अभाव है। इसीलिए निर्णायक क्षण में
वह मुकाबला नहीं कर पाती है। ऐसे कांग्रेस पार्टी का यह आंतरिक मामला है।
अब
राजनीति में कूटनीति के पहलू से तो इंकार नहीं किया जा सकता है। जनमत के रुझान को पकड़
पाना भी आसान नहीं है। मतदाता सामने वाले व्यक्ति को देखकर अपना विचार देता है। जिससे
कोई भी सर्वे कभी भी अपने लक्ष्यों में खो सकता है। स्थानीय समस्याओं और स्थानीय नेताओं
के बीच में ही स्थानीय स्वशासन के चुनाव से लेकर विधानसभा के चुनाव होते हैं। जितना
ही नजदीकी चुनाव होगा उतना ही मतदाता के मत या विचार को जानना मुश्किल होगा। प्रतिशोध
और बदले की भावना अब तो चुनाव के बाद भी दिखाई देता है। इस हालात में अगर कोई मतदाता
खुलकर अपना विचार देता है तो उसे बाद के परिणामों को भी भुगतना पड़ता है। इसीलिए मतदान
को गुप्त मतदान रखा गया है।
राजनीति
में अब दो बिल्कुल अलग तरह का प्रवृति दिखाई दे रहा है :
1. भ्रामक
प्रचार
2. अफ़वाह
3. नफरत
भरी भाषण
4. पूरा
नहीं किये जाने वाले वादे
उपर्युक्त विन्दु जाति, धर्म, क्षेत्र, धन, पेड न्यूज, अपराध के अलावे है। इसीलिए चुनावी राजनीति का चरित्र समय और स्थान के साथ बदल जाता है। टिकट के वितरण से अगर किसी दल में अगर असंतोष ज्यादा हुआ तो वह दल अपने ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं के मेहनत से चुनाव हार जाता है। गुटबंदी हमेशा से ही कांग्रेस पार्टी के लिए चुनौती रहा है। अभी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा भी इस चुनाव में स्थानीय स्तर पर मुद्दा है जो मत देते वख्त ही पता चलेगा।
गुजरात
चुनाव के बारे में अधिकतर लेखों को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि इस बार जाति ही जीता
पायेगी। हमारे समझ से यह तर्क निराधार है। जाति के भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता
है। जाति व्यवस्था जलेबी जैसा है जिसे आसानी से समझा नहीं जा सकता है। जाति कई उपजातियों
में बँटी हुयी है उपजातियाँ कई प्रकार गोत्र और कुल में बँटे हुए हैं।
पाटीदार
आंदोलन के पीछे कौन है, अभी तक ठीक से पता नहीं चल सका। स्वाभाविक रूप से आजकल कोई
भी आंदोलन के पीछे राजनीतिक उद्देश्य नीहित होता है। अण्णा आंदोलन भी एक समाजिक समस्याओं
के प्रति समर्पित आंदोलन ही था, लेकिन उसमें मध्य वर्ग के लोगों का सत्ता प्राप्त करने
का जरिया ही बना। एक आई आर एस ऑफिसर ने दलितों को समाने रखकर भजपा में जगह बनाई तो
दूसरे आई आर एस ऑफिसर ने अण्णा को सामने रखकर सत्ता के सीढ़ी का रास्ता बनाया। इसीलिए
प्रत्येक जाति और वर्ग में सत्ता प्राप्त करने और उसमें जगह बनाने के लिए विभिन्न प्रकार
के साधनों द्वारा साध्य को प्राप्त किया जा रहा है।
पाटीदार
समाज मुख्यतया चार भागों में बँटा है। पहले ही इस चर्चा हो चुकी है जाति अनेक उपजातियों
में बटा होता है। इसीलिए पाटीदार जाति भी कई उपजातियों में बटी है।
1. लेऊवा
(लेवा) पटेल
2. कडवा
पटेल
3. अनजाना
पटेल (चौधरी पटेल)
4. मटिया
पटेल।
यह
जानकारी देना इसलिए अनिवार्य है - पहले से ही चौधरी और मटिया पटेल को आरक्षण प्राप्त
है। लेकिन लेऊवा और कडवा पटेलों को आरक्षण प्राप्त नहीं है।
08
अगस्त 1972 को बख्शी आयोग और 20 अप्रैल 1981 को राणे आयोग का निर्माण समाज के पिछड़े लोगों के
लिये आरक्षण की नीति लागू करने के लिए बनाया गया था। दोनों आयोगों का उद्देश्य समाजिक
तथा शैक्षणिक आधार पर आरक्षण देना था। बख्शी आयोग के समय बाबू भाई पटेल और राणे आयोग
के समय माधवसिंह सोलंकी गुजरात सरकार में मुख्यमंत्री थे।
ने
27 फरबरी 1976 को अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रस्तुत की। 01 अप्रैल 1978 को बाबू भाई पटेल की जनता सरकार ने बख्शी आयोग की
सभी अनुशंसाओं को शब्दशः स्वीकार कर लागू करने की घोषणा कर दी। का इसी संदर्भ में आयोग
बनाया गया था।
पाटीदार का शाब्दिक अर्थ है भूस्वामी।
जैसा की नाम से ही स्पस्ट है पाटीदार समुदाय भूमि पर नियंत्रण रखने के कारण मुख्य रूप से कृषक समाज है।
इस समुदाय में मुख्य तौर पर चार उपजातियां हैं। एक मिथ्या के अनुसार, राम के जुड़वा पुत्र लव और कुश से दो अलग अलग वंसज बन गए, एक तरफ लेउआ पटेल लव के वंसज माने जाते है वहीँ दूसरी ओर कडवा पटेल कुश के वंसज कहे जाते हैं।
राज्य में लेउआ पटेल की आबादी लगभग 08 प्रतिशत है। गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री श्रीमती आनंदी बेन पटेल इसी जाति से आती हैं।
हार्दिक पटेल कडवा पटेल से तलूक रखते हैं।
अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो लेउआ पटेल कडवा पटेल के अपेक्षा आबादी में अधिक तथा आर्थिक रूप से
अधिक मजबूत हैं। पाटीदार समुदाय में मूल रूप से इन दोनों उपसमुदाय का ही वर्चस्व है।
इसी पाटीदार समुदाय में सत्पंथी समुदाय जो की कच्छ क्षेत्र में रीती रिवाज़ों के आधार पर मुसलमाओं की तरह हैं। समाजशास्त्रीय दृश्टिकोण से अध्यन करने के लिए यह जाती बहुत ही मत्वपूर्ण है। चौदरी या अंजना पटेल जो की उत्तरी गुजरात एवं सौराष्ट्र क्षेत्र में केंद्रित है।
नब्बे के दशक के बाद, उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के बाद कृषि का स्थान उद्द्योग ने ले लिया।
नगरीकरण तथा उद्दोगीकरण के कारन कृषि क्षेत्र का विकास रुका वही दूसरी ओर सेवा क्षेत्र में वृद्धि हुई।
गुजरात राज्य वैसे भी हड़प्पा काल से व्यपार तथा वाणिज्य का क्षेत्र रहा है। विशेष रूप से वाइब्रेंट गुजरात ने गुजरात की आर्थिक निति को काफी प्रभावित किया है। कृषकों का जमीन उद्दोग क्षेत्र को दिया गया। यहाँ पर सरकार की यह कमी दिखाई देती है कि किसानो को उचित रूप से पुनर्वास की सुविधा नहीं प्रदान की गई।
कडवा उपजाति विशेष तौर से उत्तरी गुजरात और अमरेली जिला में केंद्रित है जो कृषि पर आधारित जीवन निर्वाह करती है। हाल के दिनों में फसल बर्बाद होने से इस समुदाय को काफी बड़ा झटका लगा है। रोजगार के अवसर भी सिमित ही थे। इसी असंतोष को हार्दिक पटेल ने अपने समुदाय के भीतर आंदोलन में परिवर्तित किया। जब कोई समुदाय अन्य समुदाय की तुलना में अपनी स्तिथि को कमजोर पाता है तो वह समुदाय सामाजिक और राजनैतिक रूप से लामबंध हो जाता है। चुकी अंजना उपजाति को ओ बी सी आरक्षण के तहत सुविधा प्राप्त है इसलिए कडवा उपजाति को सापेक्षिक अभाव ( RELATVE DEPRIVATION )
का शिकार हो गया।
यह
विश्लेषण यह दिखाता है विकास और जाति के संगम स्थल पर ही चुनावी समीकरण तय होता है।
मगर सोचने वाली बात यह है जिस आरक्षण पर आज चुनावी धुर्वीकरण हो रहा है, क्या सही में
आरक्षण देने मात्र से सारे समस्याओं का हल निकल जायेगा। समाजिक और शैक्षणिक आधार पर
ही आरक्षण देने मूल का सिद्धांत रहा है। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने से जातिगत दुर्भावना
और शोषण बंद हो जायेगा। छुआछूत जैसी समाजिक समस्या आरक्षण देने मात्र से खत्म हो गया है। अख़बारों में
प्रत्येक दिन दलित समुदायों का अत्याचार तो बढ़ता ही जा रहा है। मिड डे मील के कार्यक्रम
में भी दलित आज भी छुआछूत के शिकार हैं। आरक्षण प्रत्येक मर्ज की दवा नहीं है। चुनाव
आते ही इन मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देने से मूल मुद्दा बहुत पीछे चला जाता है। आरक्षण ने जाति के जहर को इतना बढ़ा दिया है जिससे इस मर्ज का दवा नहीं है।
All world is dewana of modi what do for india
ReplyDelete