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जाति, जातिवाद और लोकसभा चुनाव : 2019


जाति, जातिवाद और चुनाव भारतीय लोकतंत्र के चुनौती है। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है प्रत्येक व्यक्ति के लिए आर्थिक विकास जरूरी है। यह जानते हुए की आर्थिक विकास के लिए भी शिक्षा, अवसंरचना, शहरीकरण, औद्यौगिकीकरण, कानून - व्यवस्था आदि जरूरी है। लगभग सभी लोग यह स्वीकार भी करते हैं कि समाजिक न्याय का मंजिल भी अंतिम रूप से विकास ही है। इतना जानते हुए जब चुनाव जीतने के लिए जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन क्यों जरूरी हो जाता है? आधुनिकता के दौर में परम्परागत मूल्य जैसे जाति व्यवस्था कैसे प्रासंगिक हैइसके लिए पहले जाति की अवधारणा जानना आवश्यक है।
ऐसा माना जाता है कि ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुषसूक्त में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है। उसी के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा के क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुयी है। यहॉं ध्यान देने योग्य बात यह है की आज जो अनुसूचित जाति है, वो गाँव से अलग रहती थी। यहीं वर्ण व्यवस्था कालांतर में शनैः - शनैः जाति व्यवस्था में परिवर्तित होती गयी। उत्तर गुप्त काल में यह विभाजन और भी कठोर होता चला गया। वर्ण और जाति में भी अलग करना जरूरी है। वर्ण का आधार कर्म है और जाति का आधार जन्म है। संस्क़ृत में साहित्यिक रूप से वर्ण का अर्थ रंग होता है। जाति एक अंतर्विवाही इकाई को संदर्भित करता है जिसके अंतर्गत विवाह करना व्यक्ति के लिए आवश्यक था। जाति के सदस्य एक सभ्य समूह के सदस्य थे जो परंपरागत रूप से एक विशेष पेशे से जुडे हुए थे। इसके अलावा जाति की अपनी खान पान की आदत, रिवाज, परिधान के ढंग, तथा कला प्रारूपों के साथ सांस्कृतिक परंपराएँ भी होती थीं, इस प्रकार जाति सिर्फ अंतर या भेद की धुरी पर चलती दिखती है, जो कि हिंदु समाज में प्रचुर वैविध्य का साक्ष्य है। हालाँकि जाति के व्यवसाय और विशिष्ट सांस्कृतिक परंपराओं का आपसी संबंध एक व्यापक ढाँचे के अंदर काम करता था जिसमें स्थानीय पदक्रम रिवाजों के स्तर, उत्पाद के संसाधन और शक्तियों पर नियंत्रण या नियंत्रण की कमी पर आधारित थे। यह जाति व्यवस्था के आंतरिक मतभेदों का आधार भी था, जिसने इसे उच्च तथा निम्न वर्गों में बाँटा। अब एक प्रांत के अंदर जाति ही स्थानीय पदक्रमों को समझने के लिए ढाँचा उपलब्ध कराती थी। व्यापक रूप से तीन प्रमुख विभाजन हैंउच्च जाति जो ऊँची हैसियत के थे, मध्य जाति, जो भूमि पर नियंत्रण कर सकते थे और प्रभावी भी हो सकते थे लेकिन ऊँची हैसियत के नहीं थे,तथा समाज के लिए प्रदूषक नहीं माने जाते थे, फिर निम्न जति थी जो इस अनुक्रम में सबसे निचले स्तर पर थी और जिनके स्पर्श को प्रदूषक माना जाता था। वर्णक्रम के ढाँचे में जातियों के स्थानन में काफी ज्यादा प्रांतीय विभिन्नता पाई जाती है ।[1]

कुछ लोगों और चिंतकों का मानना है -  जाति एक ऐसी पहचान है जिसे कोई भी छोड़ सकता है, मगर जाति उस व्यक्ति को को आजीवन छोड़ नहीं सकता। धर्म परिवर्तन के बाद भी उस व्यक्ति के साथ वहीं समाजिक व्यवहार रह जाता है जो पहले से मौजूद था। इसीलिए भारतीय समाजिक व्यवस्था में यह इस तरह मौजूद है जिसे प्रत्यक्ष रूप से खत्म कर दिया जाता है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से और दिमागी रूप से अपना अस्तित्व बनाये रखता है। समाजिक व्यवस्था का एक अंग का नाम है - राजनीतिक व्यवस्था। यह कैसे सम्भव है कि जाति को लोगों और राजनीतिक दलों द्वारा इसका इस्तेमाल नहीं किया जाएँ।

मेरा मानना है - जातिवाद में निहित विचार अब और भी मजबूत होता है क्यूंकि प्रत्येक व्यक्ति को यह पद, लाभ, लालच और राजनीति में मदद करता है। विरोधों के स्वर में सहमति दिखाई देती है लेकिन आंतरिक रूप से लगाव और भी मजबूत होता जा रहा है। जातिगत संगठन एक दबाब समूह बनता जा रहा है जिससे राजनीतिक दलों में टिकट लेने या पद पाने में इसका भरपूर इस्तेमाल भी होता है। भला कौन मानव इस लाभदायक प्रथा से निजात दिलाएगा। 

मनुष्य का दिमाग समाजीकरण के द्वारा ही निर्मित होता है। संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी की ओर हस्तांतरित होता है। समाजिक और धार्मिक रूप से मनुष्य अपने आप को ढालता है और अपनी चिंतन या विचार विकसित करता है। इसीलिए मेरे विचार से कोई भी व्यक्ति इसका दोषी नहीं है। जब वह जन्म लेता है तो वह सिर्फ जैविक प्राणी होता है लेकिन समाज में रहकर वह समाजिक प्राणी बनता है। समाजिक प्राणी बनने में समाजीकरण और संस्कृति मुख्य वाहक होती है। अंततः वह समाजिक प्राणी बनने के क्रम में ही जाति व्यवस्था से परिचित हो जाता है। जिसमें जैविक प्राणी का तो कोई दोष ही नहीं होता है, जैसा कि अरस्तू ने कहा है मनुष्य एक समाजिक प्राणी है। अगर मनुष्य एक समाजिक प्राणी है तो वह समाज के नियमों का भी पालन करेगा। समाज का नियम तो पहले से ही मौजूद होता है। इसी नियम का एक हिस्सा या सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जाति है।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ - प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि समाजीकरण के प्रक्रिया में ही जातिगत पूर्वाग्रह को अगर बच्चों के दिमाग से निकल दिया जाता है तो सम्भव है शायद जाति व्यवस्था का जहर कम हों सकें। 

इस समाजिक नियम से एक ओर जाति व्यवस्था का ज्ञान उच्च वर्ण के लोगों का भी होता है तो दूसरी ओर शोषित जातियों को भी इसी जाति व्यवस्था से उसे भी उसी मात्रा में ज्ञान होता है। दो समानांतर धाराएं का जन्म होता है, जिससे समाजिक एकता या समाजिक एकीकरण करना असम्भव सा हो जाता है। जाति एक विचारधारा है जो लोगों को संकीर्ण मानसिकता की ओर धकेलता है। जिससे वंचित वर्ग और जाति आधारित सम्पन्न वर्ग दोनों में मानसिक विकार भी पैदा होता है। अगर जाति व्यवस्था इसी तरह बढ़ती रही तो आने वाला समय में कभी भी एकता का समाजिक स्तरीकरण में जाति एक प्रमुख कारक है। चुनावी राजनीति जाति व्यवस्था को ऑक्सीजन देने का कार्य करेगी। आने वाले समय में जाति व्यवस्था बढ़ेगी। जो भी जाति मुख्यधारा में नहीं पायी है उसके लिए यह महत्वपूर्ण औजार बनता जायेगा। सीमित संसाधनों में बढ़ती जनसख्याँ को पूर्ति करना इतना भी आसान नहीं है। इसीलिए भावना प्रेरित व्यवस्था के आधार पर लोगों को एकत्र करना आसान होगा। प्रत्येक राजनेता जिस जाति से आते हैं वो स्थापित होने के बाद सिर्फ अपने परिवार तक सीमित रहना चाहते हैं। सूत्र स्थापित नहीं हो सकता है। स्थापित नेता आर्थिक संसाधन को अपने पक्ष में कर लेता है और अर्थविहीन व्यक्ति राजनीति से दूर होता चला जाता है। वह मजबूरी में या किसी अन्य लोभ के कारण वो स्थापित नेता के साथ जुड़ाव रखना चाहता है। ये कहानी एक जाति या वर्ग का नहीं है बल्कि सर्वव्यापी सत्य है। दिखावे के लिए इसका विरोध किया जा सकता है लेकिन रात को बंद कमरे में कोई भी तर्क के आधार पर चिंतन करेगा तो शायद यहीं रिजल्ट रहें।
मृत्यंजय कुमार 





[1] http://vle.du.ac.in

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