गुजरात
का चुनाव का मुख्यतः कभी भी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा है। कोई भी चुनाव के महत्वपूर्ण
का संबंध इस बात पर निर्भर करता है कि उस राज्य का चुनाव कहीं केंद्र की सत्ता को पलट
ना दें। गुजरात राज्य से ही हमारे देश के प्रधानमंत्री और केंद्र में सत्तारूढ़ दल के
राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इस संदर्भ में भी यह चुनाव बहुत ही आकर्षण का केंद्र बनता जा
रहा है। राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी के एक नेता का जीत से ही मुख्यतः दो राष्ट्रीय
पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के चुनावी संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। लोकतंत्र में मजबूत
विपक्ष होना चाहिए जिससे लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं हो सकें। विपक्ष ऐसा भी
नहीं हों जो हर मुद्दे पर ही सरकार का विरोध वेवजह करें। विरोध का आधार हमेशा जनहित
और लोक कल्याण होना चाहिए। काफी लम्बे समय से भाजपा गुजरात में चुनाव जीतती रही है
और कांग्रेस पार्टी भी विपक्ष में रही है। विकास यहाँ चुनाव मुख्य मुद्दा रहा है। सम्प्रदायिकता
और धर्मनिरपेक्षता के आधारों पर वैचारिक रूप से संघर्ष होता रहा है। यहां एक बात ध्यान
देने वाली बात है गुजरात ही नहीं बिहार में भी लालू प्रसाद यादव के उभरने के बाद कांग्रेस
वहां भी अभी तक सत्ता में वापस नहीं आ पायी है। इसीलिए गुजरात अपवाद हों ऐसा नहीं है।
दो राष्ट्रीय दलों के बीच क्षेत्रीय दल आखिर अपना जगह नहीं बना पायी है।
भरतीय
संसदीय प्रणाली में समान्यतया कुछ विदुओं के मुद्दे पर ही आजकल चुनाव सीमित होते जा
रहे हैं :
विकास
जाति
धर्म
क्षेत्रवाद
मुख्यमंत्री
कौन होगा
भ्रष्टाचार
आरक्षण
लोक
लुभावन वादे
कृषि,
मँहगाई, रोजगार के मुद्दे
हाल
में ही आरक्षण का मुद्दा काफी नए सिरे से उभर कर सामने आया। इस प्रकार के मुद्दे ऐसे
तो हमेशा ही उभरते रहे हैं, जैसे राजस्थान में गुर्जर समाज द्वारा आरक्षण का मांग,
हरियाणा में जाट समाज द्वारा आरक्षण का मांग, महाराष्ट्र में मराठाओं द्वारा आरक्षण
का मांग आदि। यह मुद्दा तब संवेदनशील हो जाता है जब चुनाव के समय इसकी चर्चा और मांग
हों। गुजरात में भी यह मुद्दा चुनाव के कारण प्रासंगिक है अन्यथा इस मुद्दे पर बहुत
आंदोलन के बाद भी ज्यादा कुछ होता नहीं है। मामला कोई भी हों अदालत में चला जाता है
और आंदोलन को हमेशा चलाये रखना भी आसान नहीं होता है। यह देश के लिए तो दुर्भाग्य ही
है जिसमें कृषक, मजदूरों, महिलाओं, भूमि का वितरण, कानून - व्यवस्था, शिक्षा, जन अधिकार
के मुद्दे सब खाना पूर्ति के लिए सिर्फ लिख दिए जाते हैं। आरक्षण हर समस्या का समाधान
नहीं है। आने वाले समय में प्रत्येक जाति भावना के आधार पर लोगों को जोड़कर आरक्षण का
मांग करने लगेगी तो क्या होगा ? उच्च जातियों द्वारा विरोध होगा तो उस आंदोलन का महत्व
और भी बढ़ जाता है। एक समय जरूर आएगा जब उच्च जातियों द्वारा भी आरक्षण का मांग एक व्यापक
आंदोलन के रूप में सामने आएगा। आजकल क्षेत्रीय दलों द्वारा यह खूब कहा जाता है कि गरीब
सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा। हकीकत यह है की अभी तक महिलाओं को मात्र
तैतीस प्रतिशत भी लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण नहीं दिय गया है। ठीक इसी प्रकार जब
सवर्णों को आरक्षण देने की बात सामने आएगी तो क्षेत्रीय दलों द्वारा ही व्यापक विरोध
होगा। हमारा प्रश्न यह है - अनुसूचित जातियों को आरक्षण मिल जाने बाद भी क्या हिंसा
रुकी ? निःसंदेह इसका उत्तर कुछ तथ्यों द्वारा ही देना चाहिए।
‘गौ-रक्षा’
और ‘गौ-रक्षक’ अचानक कहाँ से उभर गया, ये जानकारी तो सिर्फ उस
संस्थान के संस्थापक ही दे सकते हैं। ऐसे मैंने भी जानने का प्रयास किया लेकिन विफल
रहा। गौ रक्षक द्वारा हिंसा अपने आप में एक नए प्रकार का हिंसा है। इस संस्था को समर्थन
कौन और किस वजह से किया जा रहा है यह तो जांच का विषय है।
हाल ही में, जुलाई 2016 में गौरक्षकों द्वारा
ऊना
(गुजरात) में मृत गाय का चमड़ा उतार रहे चार दलित युवकों की पिटाई की गयीं। उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। इतना ही नहीं भद्दी -
भद्दी
गालियां दी, कपड़े उतारे गए
और पूरी घटना के वीडियो बनाए। स्वयं प्रधान मंत्री ने
गौरक्षा करने वालों का भरपूर निंदा किया। हलांकि गौ रक्षकों ने उनका भी आलोचना किया और विरोध भी किया। उनके शब्दों में - “मुझे इस गौ-रक्षा के धंधे पर बहुत गुस्सा आता है। कुछ लोग रात को असामाजिक गतिविधियों में लगे रहते हैं और दिन में गौ-रक्षक बन जाते हैं। गौ रक्षा के नाम पर दुकानें खोली गई है। सभी राज्यों को ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।” प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा
गोवध के मुकाबले गायों की ज्यादा मौतें तो प्लास्टिक और अन्य प्रदूषित सामग्री खाने से होती है। सच्ची गौ-सेवा या गौ-रक्षा तो यह होगी कि वे लोगों से आग्रह करें कि सड़क पर ऐसी सामग्री न फेंके। इसके बजाय शरारती तत्व गौ-रक्षा को अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिए मुखौटे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। गौ-रक्षकों ने बिल्कुल लिंक से हटकर अन्याय और दमन का एक नया अजीबो गरीब गिरोह बनाया जिससे गुजरात के राजनीति कुछ नेता उभर कर सामने आये। गुजरात में 'दलितों के नेता' के तौर पर
जिग्नेश मेवानी उभरे, जिनको उभारने में गौ रक्षक ही हैं। वहीं गुजरात की ज़मीन पर बरसों से दलित मसलों पर काम करने वाले पुराने अंबेडकरवादियों का एक बड़ा तबका उन्हें शक की नज़र से देखता है। लेकिन गुजरात दलित संगठन के अध्यक्ष डॉक्टर जयंती माकाड़िया और समाजशास्त्री विवेक कुमार जिग्नेश को दलितों का चेहरा या नेता नहीं मानते हैं।[1] भारत में गो रक्षा का आंदोलन बहुत पुराना है। 1887 में भी भारत धर्म महामंडल ने हरिद्वार में साथ आकर गोवंशीय पशुओं के हितों पर चर्चा की थी। जल्द ही नागपुर की गौरक्षिणी सभा जैसे कई समूह बने और गोरक्षा के लिए सक्रिय हो गए। भारतीय राजनीति भी गौरक्षा से जुड़ी भावनाओं से प्रभावित दिखाई देती है। दक्षिणपंथी हिंदू राजनीतिक दल भारतीय जन संघ (बीजेएस) 1951 से 1977 तक सक्रिय रही। इसकी सफलता का बड़ा श्रेय 1960 के दशक में गौ रक्षा गतिविधियों को जाता है। बीजेएस से ही आगे चलकर जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। गौ रक्षा से भावनाओं का जुड़ाव काफी गहरा है। ऐसे में गौरक्षकों का उभरना आश्चर्य में नहीं डालता। लेकिन गौरक्षकों की ओर से होने वाली हिंसा, मारपीट, अत्याचार और गाली-गलौज को दबाना जरूरी है। एक गहरी समझ और सामाजिक सुधार जरूरी है। प्रधान मंत्री ने हालिया भाषण में तारीफ करने योग्य बातें कहीं। अब इस पर पालन करना राज्यों की पुलिस और लोगों के हाथ में है।[2] यह
भी अजीब बात है कानून - व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। सरकार के रहते हुए इस प्रकार
के शरारती और असमाजिक त्वतों पर लगाम लगाया जाता तो राजनीतिक दिशा और दशा कुछ और होती।
कानूनों के क्रियान्वयन के बिना इस प्रकार के असमाजिक त्वत्त पुनः किसी अन्य स्वरूप
में सामने होगें। इसी तरह के घटनाओं से एक अलग नेतृत्व भी जन्म लेगा जिसका सरोकार भले
ही क्षणिक हों। इन प्रकार के घटनाओं से यह देखने को मिल रहा है प्रशासन की नाकामी किस
प्रकार चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सकता है।
जनतंत्र
को जातिवाद पूरी तरह से खोखला कर रहा है। मूल समस्या गौण हो जाती है और भावनात्मक रूप
से पूरा खेल को खेला जाता है। सीमित संसाधन और असीमित इच्छाओं के बीच का संघर्ष तो
चलता ही रहेगा। आरक्षण आधारित गुजरात में पाटीदार
आंदोलन हुए। 2 साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में शुरू हुए आंदोलन की आग ने बीजेपी
की सत्ता को झुलसा चुका है। जिसके चलते आनंदी
बेन पटेल को अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ गई थी।
पाटादारों का वोट प्रतिशत 20 फीसदी है जो अभी तक बीजेपी के ही समर्थक रहे हैं। लेकिन आरक्षण की मांग ने काफी संख्या में पाटीदारों
को बीजेपी से अलग कर दिया है। देखने वाली बात
यह होगी कि बीजेपी कितने प्रतिशत तक तक को अपने पाले में बचाए रख पाती है।[3] ओबीसी
नेता अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात कर कांग्रेस में शामिल होने का एलान कर दिया।[4] हार्दिक
पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकुर के बारे में इतना ही कहा जा सकता है अरबिंद केजरीवाल
से प्रेरणा अब लोगों में मिलने लगा है कोई भी मुद्दा उठाओ और राजनीति में पहचान बनाओ। दरअसल अण्णा आंदोलन
से ही राजनीति में एक नए युग कि शुरुआत हो गयी। कोई भी पॉपुलर मुद्दा उठाओ और जनसमूह
को अपने पक्ष में लाओ और सत्ता में आसानी से प्रवेश करो। यह नीति भी राजनीतिक सिद्धांत
के लिए नया सिद्धांत है जिसका अध्ययन भी होना चाहिए।
दलितों
को मनोवैज्ञानिक और सांकेतिक प्रतीकों से जोड़ना आसान है। इसीलिए राजनीति में एक मत
और एक व्यक्ति के सिद्धांत के बाद राजनीतिक अधिकार तो मिला लेकिन आर्थिक अधिकार नहीं
मिलने से इस समुदाय को आसानी से गोलबंद किया जाता है। वोट बैंक शब्द का इस्तेमाल इस
प्रकार किया जाता है मानों वो कोई वस्तु हों। पिछड़े वर्गों का आंदोलन गुजरात में इसलिए
सफल हुआ क्यूँकि पाटीदार समुदाय आरक्षण से ही बाहर था। अगर आरक्षण मिला होता तो क्रीमी
लेयर के सिद्धान्त कभी भी एक होने नहीं दे सकता था। दलितों में यह सिद्धांत अगर आता
है तो एकता आसानी से नहीं हो सकता है। उच्च वर्गों में अधिकतर यह देखा गया है नेतृत्व
के अनुसार उनकी राजनीति होती है। आर्थिक संवृद्धि वाले समुदायों में भावना के स्तर
पर गोलबंदी आसान नहीं है।
बिल्कुल
अलग विचार रखने वाले और भाजपा के सांसद होने के बाबजूद भी उदित राज काफी हद तक निष्पक्ष
है। बीजेपी सांसद उदित राज ने जातिवाद को राजनीतिक समस्या बताया है। उन्होंने कहा कि कोई भी पार्टी जाति ख़त्म नहीं
करना चाहती। उदित राज ने कहा, ''क्या दलित इंसान नहीं हैं। दूसरे देश के लोग आज क्या सोचते होंगे ऐसी घटनाओं
पर। क्या इतनी बड़ी आबादी को अलग-थलग कर देना,
उनको अपमानित करना, उनको वंचित करके रखना सही है? यह राष्ट्रविरोधी काम है। छुआछूत करना, गरबा देखने पर मारपीट करना, अतीत में
और भी ख़राब स्थिति रही है। ''जब तक पार्टी और सरकार से परे हटकर राजनीतिक दल इस मुद्दे
पर काम नहीं करेंगे, तब तक यह समस्या नहीं सुलझ सकती. इस समस्या को दलगत राजनीति के
चक्कर में नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है।[5]
आज
एक घटना याद आयी। हमारे समाज में गरीबी के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना बहुत ही मुश्किल है।
रोजगार के मुद्दे पर कोई भीड़ जमा नहीं हो सकती है। सन 1857 में जो सिपाही विद्रोह हुआ
वो भी गाय और सुअर के मुद्दे पर ही हुआ था। इतिहास ही तय करता है आने वाला इतिहास कैसा
होगा। अकबर जब राजतंत्र के जमाने में भी दीन - ए - इलाही धर्म का स्थापना किया था तो
उसे भी मान्यता नहीं मिली मिली थी। बीरबल जैसे तर्कशील और विवेकशील व्यक्ति ने उस समय
भी दीन - ए - इलाही धर्म को अपनाया।
गुजरात
जो सिंधु सभ्यता से ही व्यापर का केंद्र रहा है और उद्यमशीलता भी उस राज्य की पहचान
रही है। ऐसे हालत में जाति और धर्म के मुद्दे कितने प्रभावी होते हैं ये तो आने वाला
समय ही तय करेगा।
इसका
विश्लेषण आगे भी किया जायेगा।
कुछ
तथ्यों को नीचे दिखया गया है जिसके आधार पर और तर्कसंगत विचार रखने का प्रयास किया
जायेगा।
Very nice views
ReplyDeletethank you
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