द्वंद्वात्मक विचारधारा एक प्रगतिशील
विचारधारा है और सभ्य समाज का पहचान भी है। आंतरिक और बाह्य दोनों स्तर में
द्वंद्वात्मक
सोच या विचार टकराते हैं। आजकल राजनीति में इस तरह के विचार देखने को मिल रहे हैं जो समाज के लिए अच्छा हों या बुरा यह समाज तय करेगा। आधुनिक विचारधाराओं में मार्क्सवाद एक महत्वपूर्ण
विचारधारा और सिद्धांत भी
है। इसके आलोचक भी
इस विचारधारा को प्रभावशाली मानते हैं। इस सिद्धांत के पीछे तर्क यह है की समाज में परिवर्तन
के पीछे भौतिक कारक अपनी विशेष भूमिका निभाते है तथा परिवर्तन का तरीका द्वंद्वात्मक स्वरूप का होता है।
मार्क्सवाद, इतिहास की भौतिक व्याख्या करता है और इस सिद्धांत के अनुसार वर्ग संघर्ष
के द्वारा ही इतिहास बदलता है।
मार्क्स बताता है कि वर्गीय समाज में परस्पर विरोधी वर्ग एक-दूसरे के विरुद्ध राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक,वैचारिक संघर्ष करते हुए भौतिक विकास को पार करते हुए समाजवादी और उसके उपरांत साम्यवादी समाज में प्रवेश
करते हैं
जहाँ परस्पर विरोधी संघर्ष नहीं होता है।
ऐसा समाज वर्ग रहित होता है।
राज्य
के
अस्तित्व
को यह सिद्धांत नहीं मानता
है।
इस सिद्धांत का सबसे कमजोर पक्ष
यहीं है।[1]
जब कोई समाज के अंदर सम्पन्न या संभ्रान्त वर्ग के बारे में सोचता है या बोलता है
तो वह व्यक्ति आर्थिक वर्गों का ही बात करता है। निःसंदेह सभी युगों में आर्थिक रूप से सुविधायुक्त वर्गों का शासन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप अधिकार रहा है। राजतंत्र से लोकतंत्र में बदलाव के बाद ही आम लोगों को मानव अधिकार मिला। 12 अप्रैल 2016 और
11 सितम्बर 2017 मात्र लगभग एक वर्ष और पाँच महीने में द्वंद्वात्मक विचारधारा
चिराग पासवान के व्यक्तव्यों में देखने को मिला। यहाँ पर चिराग पासवान का परिचय देना जरूरी है। चिराग पासवान (जन्म 31 अक्टूबर 1 9 82) लोक जनशक्ति पार्टी से संबंधित एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। वह संसद सदस्य और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान का पुत्र हैं। वह बिहार के जामूई निर्वाचन क्षेत्र से 2014 के भारतीय आम चुनाव में 16 वीं लोकसभा के सदस्य के रूप में चुने गए थे, जबकि उनके पिता, जो लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष हैं, उन्हें हाजीपुर निर्वाचन क्षेत्र से जीता गया। चिराग में कंप्यूटर साइंस में बी टेक है उन्होंने 2011 में बॉलीवुड की फिल्म मिलिए ना मीले हम में अभिनय किया। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल रही, जिससे उनका बॉलीवुड करियर खत्म हो गया।
इसके बाद, उन्होंने राजनीति की ओर रुख किया और 2014 के चुनाव में एलजेपी उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के निकटतम प्रतिद्वंद्वी सुधांशु शेखर भास्कर को 85,000 मतों से हराकर सीट जीती।[2]
लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के सदस्य चिराग पासवान ने कहा, "प्रगतिशील दलितों और अन्य वर्गों से आर्थिक रूप से अच्छी तरह से बंद होने से स्वेच्छा से बड़ी संख्या में समृद्ध लोगों का लाभ उठाना बंद हो जाएगा, जो पहल योजना के तहत सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों को आत्मसमर्पण कर रहे हैं।"
"मेरी राय में, सभ्य वित्तीय पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को आरक्षण छोड़ना चाहिए। इससे अन्य लोगों को अपने समुदाय के लोगों की मदद से बढ़ने और बेहतर करने का मौका मिलेगा। वास्तव में, जिन लोगों को आरक्षण की सख्त जरूरत है उन्हें अधिकतम लाभ मिलेगा," पहला बिहार के समय के सांसद ने एक विशेष साक्षात्कार में कहा। हालांकि पासवान ने कहा कि निर्णय कानून की शक्ति के बजाय आत्म-साक्षात्कार से प्रेरित हो जाना चाहिए, उनकी टिप्पणियां एक जीवंत बहस को चिंगारी की संभावना है।
एलजेपी संसद सदस्य ने कहा कि वह वास्तव में एक "जातिहीन समाज" के उद्भव के लिए आशा व्यक्त करते थे। उन्होंने कहा, "यह मेरा अंतिम लक्ष्य होगा। मैं बिहार से आया हूं जहां जाति की स्थिति राजनीति पर हावी है। यूपी और बिहार को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।" जवाब देते हुए कि क्या उनकी पार्टी की सहयोगी उत्तर प्रदेश और पंजाब में पिछड़ी जाति और दलितों को यूपी में राष्ट्रपति पद के लिए और पंजाब में एक दलित नियुक्त करने की कोशिश कर रही है, जूनियर पासवान ने कहा, "लोग ऐसे नियुक्तियों के समय पर सवाल कर सकते हैं। इस बात के बावजूद या कुछ मतदाताओं पर नजर रखने के लिए, हमें स्वीकार करना चाहिए कि इस तरह के नेताओं को आगे बढ़ाने की स्वीकृति है। बीजेपी समाज के इस वर्ग से अधिक प्रतिभा लाने की कोशिश कर रही है, जो एक अच्छा संकेत है। हमारी राजनीति। "
हालांकि, शक्तिशाली दलित नेताओं और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मायावती पर खुदाई करते हुए युवा सांसद ने कहा कि उनके शासन के दौरान उनकी पूर्ण शक्ति है। पासवान ने कहा, "अगर वह चाहती थी, तो वह उस खंड के लिए बहुत कुछ कर सकती थी। लेकिन उसने मूर्तियों के निर्माण पर अधिक ध्यान केंद्रित किया," पासवान ने कहा।[3]
अगर किसी
अनुसूचित जाति
का व्यक्ति वित्तीय
रूप से सक्षम
हों तो वह
व्यक्ति अपनी
स्वेच्छा से
आरक्षण छोड़ दें।
वित्तीय रूप
यानि आरक्षण का
आधार वर्ग हों
जाति नहीं। 2006
में युथ फॉर
इक्वलिटी (Youth for Equality) बना तो उस
संगठन से जुड़े
लोगों का भी
यहीं मांग था
कि आरक्षण का
आधार आर्थिक हों।
के पी सिंह लिखते
हैं आरक्षण एक
ऐसा मुद्दा है
जिसे वंचित समाज
पाना भी चाहता
है और न
मिल पाने की
सूरत में इसका
डट कर विरोध
भी करता है।
आरक्षण के आधार
को संवैधानिक प्रावधानों
की कसौटी पर
परखना और समझना
जरूरी है।
भारत का
संविधान नागरिकों
को समानता का
अधिकार देने के
साथ-साथ भेदभाव
के विरुद्ध अधिकार
की गारंटी भी
प्रदान करता है।
संविधान निर्माताओं
ने भारत की
सामाजिक असमानता
और भौगोलिक और
सांस्कृतिक परिस्थितियों
को ध्यान में
रखते हुए कुछ
अपवादों के
साथ इन दोनों
मौलिक अधिकारों को
व्यावहारिक स्वरूप
प्रदान किया है।
अनुच्छेद 14 में
प्रदत्त समानता
के अधिकार की
व्याख्या स्पष्ट
कर देती है
कि एक समान
लोगों के साथ
एक समान व्यवहार
होना चाहिए और
असमान लोगों के
साथ एक-समान
व्यवहार नहीं
करना चाहिए। इसका
सीधा-सा मतलब
है कि सामाजिक
और सांस्कृतिक असमानता
के शिकार लोगों
के उत्थान के
लिए राज्य को
कुछ सकारात्मक उपाय
करने की छूट
है। संविधान में
अलग-अलग जगहों
पर इन उपायों
का उल्लेख किया
गया है। इन
सकारात्मक उपायों
को कहीं आरक्षण,
कहीं विशेष उपाय
तो कहीं प्रतिनिधित्व
देने की दुहाई
देकर विशेष प्रावधान
संविधान में
दिए गए हैं।
साधारण नागरिक इन
सभी प्रावधानों को
आरक्षण ही समझता
है। संविधान का
भाग सोलह, जिसमें
अनुच्छेद 330 से
लेकर अनुच्छेद 342 तक
के प्रावधान शामिल
हैं, उन विशेष
प्रावधानों का
उल्लेख करता है,
जो राज्य कुछ
विशेष वर्गों के
हितों की रक्षा
के लिए करेंगे।
इन विशेष प्रावधानों
की खूबी यह
है कि राज्य
को इन्हें करना
ही पड़ेगा। राज्य
इनमें आनाकानी नहीं
कर सकता। इन
प्रावधानों का
लाभ उठाने वाले
वर्गों में अनुसूचित
जाति, अनुसूचित जनजाति
और एंग्लो इंडियन
समुदाय के लोग
शामिल हैं। इन
विशेष प्रावधानों के
पीछे मुख्यत: यह
सोच था कि
इन वर्गों को
राष्ट्र की
मुख्यधारा के
साथ जोड़ा जाए।
अनुसूचित जातियों
और जनजातियों के
लिए नौकरियों में
आरक्षण की कोई
समय-सीमा निर्धारित
नहीं है। आरक्षण
से संबंधित दूसरे
प्रकार के प्रावधान
संविधान के
भाग तीन में
किए गए हैं।
संविधान के
इस भाग में
नागरिकों के
मौलिक अधिकारों के
साथ अनुसूचित जातियों,
जनजातियों और
सामाजिक और
शैक्षणिक रूप
से पिछड़े लोगों
के लिए शिक्षण
संस्थाओं में
प्रवेश और नौकरियों
में प्रतिनिधित्व देने
के उद्देश्य से
विशेष प्रावधान करने
की बात कही
गई है। इन
विशेष प्रावधानों की
प्रकृति को
समझना जरूरी है।
इन विशेष प्रावधानों
को आरक्षण कहना
ठीक नहीं है।
आरक्षण और विशेष
प्रावधानों में
अंतर है। आरक्षण
में अधिकार की
बू आती है,
जबकि विशेष प्रावधान
सरकार के सकारात्मक
सोच का प्रतिफल
होते हैं। अधिकार
कानून के माध्यम
से हासिल किए
जा सकते हैं
जबकि विशेष प्रावधान
सरकार के विवेकाधीन
होते हैं जिन्हें
पाने के लिए
सरकार को बाध्य
नहीं किया जा
सकता।[4]
अगर विचार स्पष्ट नहीं
होगा तो सिद्धांत भी स्पष्ट नहीं होगा। जब सिद्धांत में उलझन होगा तो नेतृत्व और विश्वास
का संकट भी गहरा होगा। किसी समुदाय विशेष में रातोंरात जगह बन जाएगी सुबह के उजाले
में तो हकीकत का सामना करना ही होगा। जब इंसान सत्ता में होता है तो उसे लगता है वो
सारे शक्तियों का उपयोग कर स्थिति पर नियंत्रण कर लिया जायेगा लेकिन सत्ता से हटते
ही सारी शक्तियां व्यक्ति को नियंत्रित करने लगती है। इस हालत में सिद्धांत स्पष्ट
नहीं होने से विश्वास का संकट गहराता चला जाता है और परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम
है। कई बार लोग अपने बयानों से ही बगावत करते हैं मगर उसे लगता है सब कुछ सामान्य है।
कई बार मेहनत से जो सफलता
मिलती है उसमें सच्चाई और सादगी भी होती है। दलित राजनीति ही नहीं भारतीय राजनीति पर
गहराई से पकड़ रखने वाले केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के बयानों को अगर गौर से
देखें तो आज भी जमीनी सच्चाई को बहुत ही अच्छे तरीके से संसद भवन से लेकर सभी मंचों
पर रखते हैं।
श्री
राम विलास पासवान ने आरक्षण में पदोन्नति के
मुद्दे पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट में मामला जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने
के लिए तो जा सकता है, लेकिन पिछली बार भी आप देखेंगे, शिंदे साहब, कि सुप्रीम कोर्ट
में मामला गया, 16 नवम्बर को मंडल कमीशन के तहत जो जजमेंट आया, तब कांग्रेस की सरकार
थी, आपने संविधान संशोधन किया और प्रमोशन में फिर से रिजर्वेशन लागू करने का काम किया
और संविधान की धारा 16(4) में (a) जोड़ने का काम किया। लेकिन दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट
के सामने जब तीन जजों की बैंच के सामने मामला चला तो 16(4)(a) का जो संशोधन किया गया,
उस संशोधन की कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट की नोलिज में नहीं लाया गया। यही कारण हुआ
कि संविधान संशोधन के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन मंय रिजर्वेशन का मामला खत्म
करने का काम किया। अन्यथा यदि आप देखेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट का मंडल कमीशन के समय में
जजमेंट था, 16 नवम्बर का, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह रिजर्वेशन पांच साल
तक चलेगा और पांच साल के बीच में सरकार संविधान में संशोधन कर सकती है। मतलब 16 नवम्बर,
1992 से 16 नवम्बर, 1997 के बीच में कहीं इंटरफियरेंस का सवाल नहीं आता था, लेकिन उसी
बीच में एक दूसरा मामला कोर्ट में गया, जिसमें नौ सदस्यों की बैंच ने जजमेंट दिया,
लेकिन तीन सदस्यों की बैंच में जब मामला आया तो उसमें इस मामले को नहीं लाया गया कि
आलरेडी संविधान में संशोधन हो चुका है। नतीजा है कि उसके कारण दूसरा जजमेंट आया और
उस जजमेंट के कारण यह सारा का सारा मामला पीछे चला गया। इसलिए मैं कहता हूं कि सरकार
ने दो काम किये हैं, एक काम किया है कि यह प्रमोशन में रिजर्वेशन जो खत्म कर दिया गया
था, वह लाई है। बहन मायावती जी ने कहा कि यह देर से आया है। इसमें प्रोसीजर का मामला
है, चूंकि २२ तारीख को प्रधान मंत्री जी ने यहां घोषणा की थी, 23 दिसम्बर को प्रधानमंत्री
की घोषणा के एक दिन बाद राज्य सभा में संविधान में संशोधन पेश कर दिया गया। मैंने पहले भी कहा कि यह कोई आसान काम नहीं है। जब सरकार इस पर विचार करेगी तो इतना आसान नहीं है कि सब लोग इस पर मुहर लगाने का काम करेंगे। जैसे महिलाओं के आरक्षण का सवाल है। हम सदन के नेता थे, देवेगौड़ा जी बैठे हुए थे, कहा गया कि एक मिनट में पास होना चाहिए, अचानक वोटिंग मशीन खराब हो गई, हाउस एडजोर्न हो गया और मामला पलट गया, आज तक वह पास नहीं हुआ। इसलिए एक्ट, फैक्ट और टैक्ट, तीनों तरीके से चलना पड़ता है। मुझे खुशी है कि आजादी के ५३ वर्ष बाद और गणतंत्र के ५० वर्ष बाद जब भी इस मामले में एस.सी., एस.टी. और वीकर सेक्शन का सवाल जब यहां आता है तो सारा हाउस एक हो
जाता है। हाउस में संशोधन दिए जाते हैं, सुझाव दिए जाते हैं, देने भी चाहिए। सरकार को उन पर विचार करना चाहिए।
आज जो मुद्दा आया है उसके महत्व को कम नहीं आंकना चाहिए। इस सरकार की दो उपलब्धियां हैं। एक तो जो सीलिंग ५० परसेंट की थी, उसको खत्म कर दिया, स्पेशल ड्राइव को पुन: चालू करने का निर्णय किया और दूसरा जो यह प्रमोशन में आरक्षण का मामला खत्म हो गया था, इसे पुन: चालू करने के लिए यह संशोधन विधेयक आया है। मैं समझता हूं पूरा सदन इसे पास करेगा।[5]
केंद्रीय मंत्री श्री पासवान के विचारों में आरक्षण मुद्दे को लेकर काफी स्पष्ट रहें। मनमोहन वैद्य के बयान पर उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा कि आरक्षण बाबा साहेब आम्बेडकर और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बीच हुए 'पूना पैक्ट' समझौते के तहत लागू किया गया था। यह कोई खैरात नहीं है। रामविलास पासवान ने ट्वीट के जरिए लिखा,'पीएम नरेंद्र मोदी ने साफतौर पर स्पष्ट किया है कि जब तक वह जिंदा हैं, तब तक देश में आरक्षण लागू रहेगा। आरक्षण दान नहीं है। आज देश की 85 फीसदी जनता को आरक्षण का लाभ मिलता है और ऐसे में इसे खत्म कर देना नामुमकिन है।' ऐसा माना जा रहा है कि बीजेपी विरोधी दल वैद्य के बयान को विधानभा चुनावों में मुद्दा भी बना सकते हैं।[6]
निजी
क्षेत्र में आरक्षण के मुद्दे पर केंद्रीय खाद्य मंत्री राम विलास पासवान ने बहुत जोरदार
तरीके से उठाया। अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार में मंत्री रहते हुए भी इस मुद्दे को
उठाया। आज भी इस मुद्दे को उठा रहे हैं। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण की वकालत की है। लोक जनशक्ति पार्टी नेता ने कहा कि उनकी पार्टी का मानना है कि निजी कंपनियों को, जो सरकार से सुविधाएं हासिल कर रही हैं, उन्हें नौकरियों में दलितों के लिए आरक्षण मुहैया कराना चाहिए। उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए राज्य और केंद्रीय बजटीय आवंटन में उनकी आबादी के हिसाब से वृद्धि किए जाने की जोरदार वकालत की। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में पिछड़े वर्गों का अधिक प्रतिनिधित्व होना चाहिए।[7]
लोजपा
सांसद चिराग पासवान ने रविवार को धनबाद में
11 सितम्बर 2017 को कहा आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जबतक रामविलास पासवान जीवित हैं आरक्षण को कोई नहीं
छीन सकता।[8]
एक
ओर आरक्षण मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है तो दूसरी ओर आरक्षण को गैस सब्सिडी से तुलना करते
हुए कहा स्वेच्छा से आरक्षण छोड़ दीजिये। जाति के आधार पर शोषण के कारण ही आरक्षण के
प्रावधान को लागू किया गया। दूसरी तरफ जातिविहीन समाज भी बनाना है। जमुई लोकसभा सीट
पर लोजपा को कोई अन्य उम्मीदवार खोजना चाहिए जिससे समावेशी समाज बन सकें। विचारों में
विरोधाभास को जमीन पर हकीकत में लाने के लिए चिराग पासवान को आगे बढ़ना चाहिए। उनका
सोच क्रन्तिकारी और उदाहरण देने लायक तब होगा जब अपने सिद्धांतों पर टीकेगें अन्यथा
कथनी और करणी के बीच का अंतर पूरा दलित समाज देखेगा।
पूर्व
केंद्रीय मंत्री संजय पासवान के विचारों में भी क्रन्तिकारी बीज छुपे हुए हैं। उनका
भी स्पष्ट मानना है - चौथे पीढ़ी के बाद आरक्षण नहीं देना चाहिए। संजय पासवान के विचार
तो ठीक हैं लेकिन चौथी पीढ़ी तक दलितों का अध्ययन पहले करना चाहिए तब अपने विचार प्रकट
करना चाहिए।
आर्किस मोहन के साथ बातचीत में पूर्व केंद्रीय
मंत्री और भाजपा नेता संजय पासवान का
कहना है कि नई सरकार को दलित जातियों के मुट्ठी भर आरक्षण पर एकाधिकार को खत्म करने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए। चौथी पीढ़ी के लिए कोई आरक्षण लाभ नहीं होना चाहिए। उनके
रणनीति में दलित समाज के चार प्रतीक शामिल है -भीम रावअम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम, के.आर.
नारायणन और कांशीरामजी । इनमें से कोई भी भाजपा
का नहीं है। जब मैंने भाजपा मुख्यालय में अपने कमरे में उनकी तस्वीर रखी तो कुछ विवाद
और विरोध हुआ । लेकिन हमने पार्टी नेतृत्व से तर्क दिया कि दलित समाज ने किसी भी अन्य
राजनीतिज्ञ से इन चारों का सम्मान किया है। अब प्रश्न यह है कि इन चारों प्रतीकों के
तस्वीर तो उन्होंने कार्यालय में लडकर लगवाया तो इनके विचारों को भी क्या भाजपा के
सिद्धांतों में शामिल करवा पायेगें। अगर ऐसा हुआ तो इससे अच्छी बात क्या होगी। हर दल
से अच्छे विचारकों को हर दल में जगह भी मिलना शुरू हो जायेगा। अपने मूल सिद्धांतों
से हर दल हट कर अच्छे विचारों को लेकर आगे चलेगी। संजय पासवान के अनुसार - एक बार बधाई
दी साथ (अटल बिहारी) वाजपेयी एक दलित नेता जय श्री राम । वाजपेयी ने जवाब दिया:
" भाई(भाई) मैंने सोचा था कि आप जय भीम के साथ लोगों को बधाई देंगे (भीम राव अम्बेडकर
की महिमा) आप जय श्री राम क्यों कह रहे हैं ? आप जय भीम के साथ लोगों को शुभकामनाएं
देते हैं, तभी दलित समाज आपसे जुड़ेंगे और भाजपा के माध्यम से आपसे मिलेंगे।[9]
कुल मिलाकर संजय पासवान, चिराग पासवान जैसे नेताओं द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर पुनर्विचार और संसोधन चाहते हैं। इन्हीं लोगों के राह पर चलते हुए सीपी ठाकुर के मुताबिक आरक्षण की प्रासंगिकता अब खत्म हो गई है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन उनके इस बयान का विरोध भी शुरू हो गया है। राज्य में बीजेपी के साथ हाल ही में गठबंधन करने वाले लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान ने कहा कि जो भी शख्स इस तरह का बयान देता है, उसे आरक्षण की समझ ही नहीं है।[10]
राज्य
और संविधान के अंतर्गत जो भी सुविधा मिली है चाहे वो आरक्षण का हों या अन्य मुद्दे
का, लोकतंत्र में सवाल उठाना चाहिए। इन्हीं सवालों के साथ लोकसभा और विधानसभा में भी
चुनावी मुद्दा भी बनाना चाहिए। जनतंत्र में जनता के मत को ही मानना चाहिए और जनमत इसे
ख़ारिज करें तो फिर विवाद भी थमेगा। इन संदर्भ में आने वाले लोकसभा में उम्मीद करते
हैं इसे मुद्दा जरूर बनाया जायेगा।
[1] Arora N. D., (2013) Political
Science (Rajnitik vigyan ) TMH, Page No. -9.2
[2] https://www.notedlife.com/hi/Chirag-Paswan-biography-in-hindi
[3] https://timesofindia.indiatimes.com/india/Well-off-Dalits-should-give-up-quota-Chirag-Paswan/articleshow/51786598.cms
[4] http://www.jansatta.com/politics/jansatta-editorial-jat-reservation-supreme-court-verdict/23192/
[6] https://navbharattimes.indiatimes.com/state/bihar/patna/ramwilas-paswan-criticizes-manmohan-vaidya-statement/articleshow/56703592.cms
[7] https://khabar.ndtv.com/news/india/ram-vilas-paswan-pitches-for-reservation-in-private-sector-1272460
[8] https://hindi.news18.com/news/jharkhand/dhanbad-chirag-paswan-said-lalu-prasad-is-upset-because-he-lost-power-1104767.html
[9] http://www.business-standard.com/article/opinion/no-reservation-benefits-for-the-fourth-generation-sanjay-paswan-114050301031_1.html
[10] https://khabar.ndtv.com/news/election/no-need-of-reservation-in-country-now-bjp-leader-cp-thakur-386626
Arakshan ko samapt karo desh me khushahali ayegi
ReplyDeleteआरक्षण एक माध्यम है सब दलितों पिछड़ों की एक सहायता है ।जो समर्थ है वह संरक्षण छोड़ दें इसमें हमारा कोई बाधकता नहीं है परन्तु हमें यह आरक्षण की जो मूल उद्देश्य है इसे गलत ना समझें। हमारा स्वार्थ दलितो के हित में ही विचार है और अन्यथा इसका अन्य अर्थ न निकाले असहाय की सहायता और जो जरूरतों की उनको सुविधा मुहैया कराना यह आरक्षण का अर्थ है। आरक्षण का अब वो तो सर्वदा अन्य लोग ही लाभ लिया है परन्तु बाबा भीमराव अमित कर जी की जो विचारधारा है जिन्होंने संविधान बनाया है ये उनका सिद्धांत रहा है कि संविधान में हर एक नागरिक का अधिकार के अनुरूप अशिक्षित को शिक्षित बनाएं और उन्हें भी हमारा राष्ट्र मे विशेष अधिकार मिले मिले ताकि जो मानसिक स्तर से कमजोर अनुभव कर रहा है उसका मनोबल बड़े और दृढता है ताकि एक महान राष्ट्र का भूमिका में हो भी अपना कुछ अहम भूमिका निर्वाह कर सके अथवा एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र निर्माण असंभव है। ये विचार धारा अनेक लोग अपने नजरिये से इसे गलत साबित करने में तुले हैं लेकिन जिन्होंने संविधान लिखा है उनकी दिल दूरदृष्टि एक विशाल राष्ट्र जो एक महाशक्ति बन सकता है उसके आधार पे ही उन्होंने संविधान अपनी समर्थता और भविष्य की एक उज्जल परिकल्पना की अभिलाषा और उनके अधिकार की सामर्थता कि मिसाल बनपाना बो जानतेथे परंतु उनकी भावनाओं को गलत तरीके से कुछ प्रभावशाली व्यक्ति उनकी स्वार्थ के लिए हमेशा गलत उपयोग करते आए हैं .आज बीस सो में भारत राष्ट्र का जो मान बढ़ रहा है इसमें कोई अछूता नेहि हे.इन ये जो हमारा भारत राष्ट्र आज बीस सौ में एक महाशक्ति के रूप में पहचान पाना इसकी परिकल्पना बाबा भीम बहुत आगे से ही देख चुके थे जानगये थे उनकी विशाल सोच आज दुनिया देख रहा है और मान भी रहा है.. तो मित्रों हमारा जो शब्द है किसी के हृदय में कष्ट देना नहीं है .आओ सब मिल के एक संकल्प ले भारत माँ सब संतान का सब अपना धर्म पालन करें और उसकी उच्च शिखर को निर्णायक रूप दे.जय भीम जय हिन्द
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteआरक्षण के द्वारा अवसर को समान बनाने से समावेशी समाज का निर्माण होता है। कोई भी व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर या शक्तिशाली नहीं होता है। गरीबी के कारण या कुपोषण के कारण मानसिक रूप से कमजोर होता है। आरक्षण के सिद्धांत में योग्यता भी शामिल होता है। अगर कोई भी व्यक्ति बी ए में नामांकन लेता है तो उसे इंटरमीडिएट परीक्षा में पास होना चाहिए। कुछ सुविधा ऐसा है जैसे नेट के परीक्षा में पांच प्रतिशत का छूट है ऐसा नहीं है कि पूरी तरह से कोई भी व्यक्ति शामिल हो जायेगा। उसी प्रकार यू पी एस सी जैसे परीक्षा में प्रयास पर प्रतिबंध नहीं है लेकिन उम्र के दायरे में ही आप बैठ सकते हैं।
राष्ट्र तब महान बनता है जब प्रत्येक व्यक्ति को राजनीतिक, आर्थिक और समाजिक रूप से असमान नहीं हों।