Skip to main content

गुजरात चुनाव में पिछड़ी जातियों का बढ़ता वर्चस्व

भारतीय समाज में जाति का राजनीतिकरण में चुनाव प्रणाली का बड़ा ही महत्व है। इस परिप्रेक्ष्य में अगर गुजरात राज्य के विधनसभा चुनाव का विश्लेषण करें तो  पूरा चुनाव आज पिछड़ी जातियों के इर्द - गिर्द ही केंद्रित है। यह भी आश्चर्य कि बात है भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह स्वयं वैश्य समुदाय से हैं। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी पिछड़ी जाति से हैं। काँग्रेस का आरोप है कि मोदी ने सत्ता में आने के बाद अपनी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल करा दिया था। हालाँकि अपनी सफाई में गुजरात सरकार ने बताया कि घांची समाज को 1994 से गुजरात में ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है।  नरेंद्र मोदी इसी घांची जाति के हैं। घांची जिन्हें अन्य राज्यों में साहू या तेली के नाम से जाना जाता है, पुश्तैनी तौर पर खाद्य तेल का व्यापार करने वाले लोग हैं।  गुजरात में हिंदू और मुस्लिम दो धर्मों को मानने वाले घांची हैं।  इनमें से उत्तर पूर्वी गुजरात में मोढेरा से ताल्लुक रखने वालों को मोढ घांची कहा जाता है।  जाने माने सामाजिक वैज्ञानिक अच्युत याग्निक कहते हैं कि यह कहना गलत होगा कि मोदी एक फर्जी ओबीसी हैं। उन्होंने कहा, "कांग्रेस का आरोप इसलिए गलत है क्योंकि घांची हमेशा से ही ओबीसी सूची में आते हैं।  मोदी जिस जाति से हैं वह घांची की ही एक उपजाति है. इसलिए वह ओबीसी सूची में कहलाएँगे। " गुजरात के राजनीतिक विचारक घनश्याम शाह भी याग्निक की बात से सहमत हैं।  घनश्याम शाह ने कहा, "गुजरात में घांची समाज राज्य के सभी हिस्सों में फैला हुआ है।  इसका एक हिस्सा मोढेरा सूर्य मंदिर के आस-पास के इलाकों में है जिसे मोढ घांची कहते है। "[1]
इस कारण भी गुजरात चुनाव और पिछले लोकसभा चुनाव में पिछड़ी जातियों को लेकर काफी चर्चा और विमर्श हुआ। हमारा मानना है राजनीति के क्षेत्र में जाति के मुद्दे पर चर्चा नहीं होनी चाहिए लेकिन यह असम्भव है। जाति वह आधार है जिससे निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन दोनों ही समान रूप से प्रभावित होते हैं। जब शादी जैसे निजी फैसले भी समाजिक रूप से तय होता है तो जातिविहीन समाज का कल्पना करना भी बेकार है। मार्क्सवादी आंदोलन कभी भी सफल नहीं होने वाला है क्यूँकि भारतीय समाज के सच्चाई को नजरअंदाज कर देता है। राज्य विहीन समाज साम्यवाद का अंतिम लक्ष्य है जो पूरा नहीं होने वाला है। उसी प्रकार जो भी यह कहता हों जातिविहीन समाज बनाना है वह स्वयं और समाज दोनों को ही स्वप्न लोक भेजना चाहता है।   

2002  के चुनाव में गुजरात की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और गैर धर्मनिरपेक्षता दलों के बीच मतों का ध्रवीकरण हुआ था उसके बाद टिकट वितरण में जाति व्यवस्था को पूरा ध्यान रखा गया था। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से भी ज्यादा शक्तिशाली है जाति, क्यूंकि  पूरा समाज जात-पाँत के आधार पर भी बँटा हुआ है । कितना भी इंकार करें जिस प्रकार हार्दिक पटेल को जन समर्थन हासिल हुआ वह सिर्फ जातिगत समीकरण से ही सम्भव था। आरक्षण का मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है अगर जाति के साथ जोड़ देने पर अतिसंवेदनशील हो जाता है। 2017  के चुनाव में जाति प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रहा है लकिन 2002  के चुनाव में यह नेपथ्य में था। दोनों राष्ट्रीय दलों में जाति के आधार पर ही टिकट वितरण होता है। धर्म और जाति के बीच तुलना करने पर जाति आगे निकल जाती है। धर्म के अंदर भी जाति अपने पहचान को बचाये रखती है। धर्म परिवर्तन के बाद भी पेशा वहीं रह जाता था और पहचान भी नया बन बनाना इस समाज में आसान नहीं है। जाति के आधार पर बिहार में राजनीति होती है तो अन्य राज्यों में क्या बिना जाति के राजनीति होता है। यह तो पूर्वाग्रह और समझदारी के अभाव में ही यह कहा जा सकता है। 2002  के चुनाव में भाग ले रहे दोनों दलों भाजपा और काँग्रेस ने टिकटों के बँटवारे में जातिगत समीकरणों का पूरा ध्यान रखा था । कुल 181 सीटों के लिए लड़े गए इस चुनाव में दोनों दलों ने सबसे अधिक टिकटें अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को दी थीं । काँग्रेस ने 57 उम्मीदवार इस वर्ग से उतारे भाजपा ने भी इस वर्ग को 55 सीटें दी थीं. प्रमुख काँग्रेस नेता शंकरसिंह वाघेला इसी वर्ग से हैं । पटेल जाति का प्रदेश की राजनीति में बोलबाला रहा है, दोनों ही दलों ने काफी अधिक उम्मीदवार इसी जाति से उतारे । जहाँ काँग्रेस ने 41 पटेल मैदान में उतारे वहीं भाजपा ने 45 टिकट पटेलों को दिए । प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल इस समुदाय से हैं और पिछले चुनाव में उन्हें भारी बहुमत प्राप्त हुआ था मूल रूप से खेती-बाड़ी से जुड़ा यह समुदाय आर्थिक दृष्टि से सबसे संपन्न माना जाता है । प्रदेश के कई भागों में, खास तौर पर दक्षिणी भाग में अनुसूचित जनजातियों के अधिक संख्या के कारण काँग्रेस ने इस वर्ग को 29 टिकटें दी थीं । दूसरी ओर भाजपा ने भी 27 उम्मीदवार इस वर्ग से उतारे  गौरतलब है कि वरिष्ठ काँग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी इस वर्ग से हैं । इसी तरह जहाँ काँग्रेस ने 18 राजपूत उम्मीदवारों को टिकट दिया, वहीं पर भाजपा ने 16 टिकटें इस समुदाय को दीं ।इस जाति के लोग अधिकतर नौकरीपेशा हैं और यह जाति सामाजिक दृष्टि से काफी प्रभावशाली है भाजपा ने बनिया समाज के उम्मीदवारों को छह सीटों पर उतारा और काँग्रेस ने इस समुदाय के उम्मीदवारों के चार सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका दिया ।अनुसूचित जाति वर्ग से काँग्रेस ने 12 और भाजपा ने 14 उम्मीदवार मैदान में उतारे । इसी प्रकार भाजपा ने 13 और काँग्रेस ने नौ ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया था । गौरतलब है कि जहाँ काँग्रेस के पाँच उम्मीदवार अल्पसंख्यक थे, वहीं भाजपा ने इस वर्ग से किसी को भी टिकट नहीं दिया [2]
किसको कितने टिकट
काँग्रेस
पिछड़ी जातियाँ-57
पटेल-41
अनुसूचित जनजातियाँ-29
राजपूत-18
पिछड़ी जातियाँ-57
पटेल-41
अनुसूचित जातियाँ-29
मुसलमान-5

भाजपा
पिछड़ी जातियाँ-55
पटेल-45
अनुसूचित जनजातियाँ-27
राजपूत-16
पिछड़ी जातियाँ-57
पटेल-41
अनुसूचित जातियाँ-29
मुसलमान-0
अब प्रश्न यह है कि गुजरात में पिछड़ी जातियों के संदर्भ में अब नया प्रवृति में बदलाव क्या हुआ है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत के संदर्भ में पहली बार 'पिछड़ा वर्ग' का उपयोग 1870 के दशक में शूद्रों और असृश्यों के लिए हुआ था। स्वतंत्रता के बाद से जवाहरलाल नेहरू ने 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) ने असभ्यश्यों और जनजातियों से भिन्न वर्ग के लिए प्रयोग किया। यहां 'जाति' के स्थान पर 'वर्ग' शब्द का प्रयोग नेहरू से जाति से स्वयं को दूर करना प्रयासों को दर्शाया गया है। 1 9 53 में पहले 'पिछड़ा वर्ग आयोग' की स्थापना काका काललकर की अध्यक्षता में हुआ। 1 9 31 जाति -आधारित जनगणना के आधार पर 2399 जैसा कि 'अन्य पिछड़ा वर्ग' में आने वाली जातियों की सूची तैयार की गई, जो कि देश की आबादी का 32% है। नेहरू सरकार में गृह मंत्री श्री जी 0 बी 0 पन्त ने इस आयोग के रिपोर्ट को अस्वीकार करते हुए कहा कि ऐसी सकारात्मक विवाद की नीति देश के सबसे सक्षम और योग्य जनता को दंडित कर प्रशासन की कार्यकुशलता को बाधित किया जाएगा।

अंबेडकर और मार्क्स से प्रेरित राम मनोहर लोहिया ने 1 9 5 9 में अपनी सोशललिस्ट पार्टी के माध्यम से अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए लोक सेवा में 60% आरक्षण की बात रखी है। केंद्र से कांग्रेस के पतन के बाद जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता दल की सरकार हुई तो जनवरी 1 9 7 9 में 'अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग' की स्थापना श्री बी 0 पी 0 मंडल की अध्यक्षता में हो सका। मंडल आयोग ने 3743 जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में चिह्नित किया जो देश की जनसंख्या का 52% है। मंडल आयोग ने लोक सेवा में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण देने का प्रस्तावित किया। परन्तु 1980 में कांग्रेस की वापसी के बाद इस मुद्दे को कुछ भी लता सा हो गया।
वी 0 पी 0 सिंह सरकार ने 1990 में मंडल आयोग की अनुशंसा लागू करने का निर्णय लिया अनारक्षित वर्ग के छात्र-छात्राओं ने इस निर्णय के विरोध में अस्थायी प्रदर्शन किया। सितम्बर 1 99 0 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजजीव गोस्वामी ने आत्मनिग्रह की कोशिश की तो पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने नया मोड़ लिया। उच्च जाति के प्रतिरोध के उत्तर में पहली बार अन्य पिछड़ा वर्ग भी संगठित है
सामाजिक स्तर पर ऐसे ध्रुवीकरण के संदर्भ में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे संख्या में अधिक थे जनता दल और अन्य दल चुनावों के लिए अधिक से अधिक ओबीसी उम्मीदवारों को अपने दल से मैदान में उतरना शुरू किया। जफ़रलो ने पिछली जातियों के इस उदय को भारत की मौन क्रांति (मूक क्रांति) कहा है। जाति के इस राजनीतिक स्वरूप और पिछड़ा जाति के इस बढ़ते हुए प्रतिनिधित्व के लिए वे भारतीय राजनीति की बढ़ती प्रजननशीलता के कारण मानते हैं। मंडल आयोग की अनुशंसाओं को अंशिक रूप से लागू किया गया है, लेकिन नए समूह द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में मान्यता प्राप्त करने की मांग अलग सा परिदृश्य प्रस्तुत किया गया है।[3] 

गुजरात राज्य में पिछड़ी जातियों के उभार के बाबजूद अभी तक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में कोई नया राजनीतिक दल नहीं बन पाया। गुजरात के तुलना में  तमिलनाडु राजनीतिक चेतना से भरा और बड़े सामाजिक पहलकदमी करने वाला राज्य है। वर्ष 1916 में देश के पहले कुछ क्षेत्रीय दलों में से एक का गठन वहाँ हुआ था।  जब उत्तर भारत में जातीय राजनीतिक की सुगबुगाहट शुरु नहीं हुई थी तब तमिलनाडु में दलित और पिछड़ी जातियों को लेकर राजनीतिक आंदोलन अपना रंग जमा चुका था।
वहाँ 1916 में टीएम नायर और राव बहादुर त्यागराज चेट्टी ने पहला ग़ैर-ब्राह्मण घोषणापत्र जारी किया था । 1921 में जस्टिस पार्टी ने स्थानीय चुनाव जीता था।  वर्ष 1944 में ईवी रामास्वामी यानी पेरियार ने जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर 'द्रविड़ कड़गम' कर दिया।  ये एक ग़ैर राजनीतिक पार्टी थी जिसने पहली बार द्रविड़नाडु (द्रविड़ों का देश) बनाने की मांग रखी थी। आज़ादी के बाद मद्रास रेसीडेंसी नाम के राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के सी राजगोपालाचारी।  बाद में यही मद्रास राज्य बन गया।[4] हार्दिक पटेल के उभार से भाजपा को नुकसान हो सकता है।  गौरतलब है कि गुजरात में पटेल समुदाय पिछले कई सालों से भाजपा का समर्थक माना जाता है। 1985 में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने एक नया प्रयोग किया था, जिसे ‘खाम के रूप में जाना जाता है। खाम यानी क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम। तब ओबीसी आरक्षण को लेकर पटेलों और अन्य पिछड़े वर्ग के बीच काफी हिंसा हुई थी। पटेल तभी से कांग्रेस से नाराज माने जाते हैं। शायद यही कारण है कि आज गुजरात में भाजपा पर पूरी तरह से पटेलों का प्रभुत्व माना जाता है। बहुत से राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस आंदोलन के जरियें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को चुनौती दी जा रही है। इसी कारण भाजपा इस आंदोलन से सकते में है और आंदोलन को दूसरी ओर मोडऩे की कोशिश में जुटी है। हाल ही में केन्द्रीय मंत्री और राज्य भाजपा के नेता मोहन कुंडारिया ने आरोप लगाया कि यह आंदोलन कांग्रेस द्वारा प्रेरित है। जिस तरह से यह आंदोलन तेजी से पूरे राज्य में फैल रहा है, उससे भाजपा चिंतित है। गुजरात में अक्टूबर में महानगर पालिका और नगर पालिका के चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर भाजपा के जनाधार में नाराजगी आएगी तो चुनाव में उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यही कारण है कि यह पूरा मामला राजनैतिक तौर पर संवेदनशील बनता जा रहा है।[5]


पिछड़ा वर्ग चूँकि जातियों का समूह है और अपने - अपने जाति के अपने - अपने हित भी अलग - अलग है। पिछड़ा वर्ग के अंदर अन्य जातियाँ भले ही मीडिया और मुख्यधारा में दिखाई नहीं दें लेकिन उनका मत भी निर्णायक होगा।  पटेल या पाटीदार समाज भी अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। भाजपा और कांग्रेस में किसकी जीत होगी यह तो मतदान के बाद ही पता चलेगा।




[1] http://www.bbc.com/hindi/india/2014/05/140509_modi_caste_issue_ankur_jain_sn
[2] http://www.bbc.com/hindi/news/021205_gujaratspl_castes_rp.shtml
[3] https://dantourbreking.wordpress.com
[4] http://www.bbc.com/hindi/southasia/2011/04/110411_tn_backgrounder_vv
[5] http://www.udayindia.in/hindi/?p=4383

Comments

  1. हिन्दू धर्म का असली बात तो यह है कि सब का सम्मान करें और मुसलमानों मुगल ने हमारे भारत में जब शासन किया.और धर्म परिवर्तन के लिए बहुत बहुत दबाव डाला परंतु जिन हिन्दू ने इस्लाम धर्म परिवर्तन मना कर दिया तो उन्हें छोटा छोटा काम करवाया गया धोबी का काम करवाया गया लेटरिंग इसी तरह जो लोग संघर्ष किया उनका एक अलग ही जात प्रचारित किया गया मुगलो ने हमें बहुत बहुत जुल्म ढाए फिर भी जो लोग उसपे डटे रहे उनको दलित नाम से वो लोग संबोधित के और उनको गन्दा से गंदा काम कराया गया और उनको अछुत जाति किया गया .हमने उनके जुल्म सौ दो सौ तीन सौ साल साहा इसीलिए हमें हमारा पूर्वज का संघर्ष अभी हम थोड़ा से सहूलियत क्या ले लिये सब के आंख में करने लगा .जो पूर्ण रूप से समर्थ और सक्षम हैं वो इस सुविधा लेने से मना करें और जिसकी जरूरत है जिसकी अवश्यक है उसे वह सहायता करें .जीवन की परिकल्पना बहुत ही कठिनाई है हम चाहते हैं कि सबका सहयोग रहे और भारत एक समृद्ध राष्ट्र बने .अगर हम हिन्दुओं का यह हिंदुस्तान है निश्चित तौर पर उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है और होनी भी चाहिए इस बात का पोस्ट में नाम आवश्यकता है और सवा सौ देश वासियों की हमारा आग्रह रहेगा कि सबका सहयोग रहे एक सहायक को सहायता के लिए .जो जिम्मेदारी हमें बाबा भीमराव अंबेडकर जी की सम्मान करे ओर उनके द्वारा मिली ज्ञान का हम सब ह्रदय से अतिरिक्त के साथ हम सब निर्देश पालन करें हमने हमेशा एक दूसरों की चिंता करना आवश्यक है इसलिए बाबा बीएमजी हमारे भविष्य की चिंता करते हुए उन्होंनेपहले से ही कह दिया था सबका साथ सबका विकास जो कि मोदी जी भी कह रहे हैं तो उनकी बातें सत् प्रतिसत सत्य है और हमारे लोगों के लिए यह एक बहुत बड़ा सहायक है इससे गलत न समझो मित्रों यह सबका सहयोग से ही आगे बढ़ना चाहिए तब ही जाके हम सौ साल का उन्नति कम से कम समय में करपाएगें.हमारा सोचना कभी कभी व्यवस्था का अपर व्यवस्था दुरुपयोग करने वालों के ऊपर करीब दंड के प्रावधान जो है उससे पूरी इमानदारी के साथ कार्यकारी किया जाेए तो पूरे बीस सौ में हमारे समक्ष कोई नाता न हो पाएगा .बुद्धिजीवी लोग समस्त विद्वान को पता है कि नालंदा विश्वविद्यालय सर्वश्रेष्ठ पाठशाला था.जिन्हें हमारे पूर्वजों का ज्ञान का भंडार माना जाता था और उससे हर ज्ञानी विद्वान महर्षि समस्त लोगों का वो ज्ञान का ग्रंथ घर था परन्तु उसे जब बाहर से आये हुए अत्याचारी क्रूर राजा उनके द्वारा उसे नष्ट कर दिया गया परंतु वो ज्ञान का कुछ हिस्सा भले ही जला दें नष्ट कर दे परन्तु शिक्षा को कभी कर नहीं पाया हमारे बीस सौ में जो मान्यता था उसे आज भी दुनिया मानने के लिए विवश है केवल ब्रह्मना इस बात की है कि हमारे लोग ही हम से दलित के नाम पेशोषण करने लगे इसमें आपसी में कहा अगर मतांतर रहे तो एक समृद्ध शक्ति हम बनाने का इतिहास दोबारा नहीं बन पाएंगे . हमने बहुत से नेताओं के स्वार्थ का शिकार हुए हैं शोषित हुए हैं वंचित हुए हैं अब समय आया एकजुट हो और हमारे अधिकारों को हम ले जरूरत पड़े तो हम लडने के भी समक्ष रहे यह आह्वान है हर एक दलित व्यक्ति को कि हम अपने अधिकारों को पहचाने और लडे .स्वाभाविक है समस्त लोगों का एकता जटिल हो सकता है परंतु संभव नहीं इस असंभव की परिभाषा को बदल के संभव करने का नाम विश्वजित है. हमें एक मौका दे।
    जय भिम..जय हिन्द

    ReplyDelete
    Replies
    1. हम सभी जानते हैं - अनुच्छेद 25 के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मानने व आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देता है। इसीलिए हमारा देश हिन्दू और मुस्लिम समाज में अंतर नहीं करता है। इतना ही नहीं अनुच्छेद 26 के अनुसार धार्मिक प्रयोजन के लिए संस्था बनाने, उसका पोषण करने और धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध के लिये सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार है । यह अधिकार भारत को प्रगतिशील बनाता है।
      अनुच्छेद 27 कहता है किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के पोषण हेतु कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा । जिससे भारत पूर्ण रूप से लोकतान्त्रिक दिशा में आगे बढ़ता ही जाता है। जनतंत्र और प्रतिबंध एक साथ नहीं चलता है। आप देखेंगे कि अनुच्छेद 28 भी यह अधिकार दिया है राज्य निधि से वित्त पोषित या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी और न ही किसी व्यक्ति को धार्मिक शिक्षा या धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। जिससे दकियानूसी और रूढिवादिकता को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है। सभी धर्मों में ऐसी बातें हैं जिससे वैज्ञानिक शिक्षा और प्रवृति के विरुद्ध है। धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्प संख्यक वर्गो को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करने और प्रशासन का अधिकार होगा और राज्य इस आधार पर शिक्षा संस्थाओ को आर्थिक सहायता देने के लिए कोई विभेद नही करेगा जो अनुच्छेद 30 में लिखा है।


      अतीत को भुलाया नहीं जाता है और अतीत के अनुसार चला भी नहीं जाता है। इस्लाम धर्म हों या ईसाई धर्म या हिन्दू धर्म सब धर्मों में जन्म लिए शासकों के प्रवृति और आचरण को देखेगें तो उसे सिर्फ शासन दे मतलब होता था। हो सकता है कोई शासक धर्म के मामले में ज्यादा दखल दिया हों। अकबर द्वारा दीन - ए - दिलाही धर्म के स्थापना में सभी धर्मों का ख्याल रखा गया। इसका मतलब यह भी नहीं है महाराणा प्रताप के राज्य को छीनने का प्रयास नहीं किया। मान सिंह ने ही अकबर के आदेश पर महाराणा प्रताप से युद्ध किया। हित आधारित संबंध राजतंत्र का ही विशेषता है। अशोक धम्म नीति का किया था मगर ऐसा कहा जाता है उसमे 99 भाइयों का वध भी किया था। कलिंग राज्य पर उसने भी अधिकार प्राप्त किया था। कलिंग राज्य पर अधिकार होने से आज के आसियान राष्ट्रों के साथ आसानी से व्यापार किया जा सकता था। भारत में लुकिंग ईस्ट पालिसी या एक्ट पालिसी आज भी कायम है।

      सत्ता के संरचना में धर्म और जाति के आधार पर गोलबंद किया जा सकता है लेकिन उसके हितों को साधा नहीं जाता है।

      धन्यवाद

      Delete
  2. हिन्दू धर्म का असली बात तो यह है कि सब का सम्मान करें और मुसलमानों मुगल ने हमारे भारत में जब शासन किया.और धर्म परिवर्तन के लिए बहुत बहुत दबाव डाला परंतु जिन हिन्दू ने इस्लाम धर्म परिवर्तन मना कर दिया तो उन्हें छोटा छोटा काम करवाया गया धोबी का काम करवाया गया लेटरिंग इसी तरह जो लोग संघर्ष किया उनका एक अलग ही जात प्रचारित किया गया मुगलो ने हमें बहुत बहुत जुल्म ढाए फिर भी जो लोग उसपे डटे रहे उनको दलित नाम से वो लोग संबोधित के और उनको गन्दा से गंदा काम कराया गया और उनको अछुत जाति किया गया .हमने उनके जुल्म सौ दो सौ तीन सौ साल साहा इसीलिए हमें हमारा पूर्वज का संघर्ष अभी हम थोड़ा से सहूलियत क्या ले लिये सब के आंख में करने लगा .जो पूर्ण रूप से समर्थ और सक्षम हैं वो इस सुविधा लेने से मना करें और जिसकी जरूरत है जिसकी अवश्यक है उसे वह सहायता करें .जीवन की परिकल्पना बहुत ही कठिनाई है हम चाहते हैं कि सबका सहयोग रहे और भारत एक समृद्ध राष्ट्र बने .अगर हम हिन्दुओं का यह हिंदुस्तान है निश्चित तौर पर उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है और होनी भी चाहिए इस बात का पोस्ट में नाम आवश्यकता है और सवा सौ देश वासियों की हमारा आग्रह रहेगा कि सबका सहयोग रहे एक सहायक को सहायता के लिए .जो जिम्मेदारी हमें बाबा भीमराव अंबेडकर जी की सम्मान करे ओर उनके द्वारा मिली ज्ञान का हम सब ह्रदय से अतिरिक्त के साथ हम सब निर्देश पालन करें हमने हमेशा एक दूसरों की चिंता करना आवश्यक है इसलिए बाबा बीएमजी हमारे भविष्य की चिंता करते हुए उन्होंनेपहले से ही कह दिया था सबका साथ सबका विकास जो कि मोदी जी भी कह रहे हैं तो उनकी बातें सत् प्रतिसत सत्य है और हमारे लोगों के लिए यह एक बहुत बड़ा सहायक है इससे गलत न समझो मित्रों यह सबका सहयोग से ही आगे बढ़ना चाहिए तब ही जाके हम सौ साल का उन्नति कम से कम समय में करपाएगें.हमारा सोचना कभी कभी व्यवस्था का अपर व्यवस्था दुरुपयोग करने वालों के ऊपर करीब दंड के प्रावधान जो है उससे पूरी इमानदारी के साथ कार्यकारी किया जाेए तो पूरे बीस सौ में हमारे समक्ष कोई नाता न हो पाएगा .बुद्धिजीवी लोग समस्त विद्वान को पता है कि नालंदा विश्वविद्यालय सर्वश्रेष्ठ पाठशाला था.जिन्हें हमारे पूर्वजों का ज्ञान का भंडार माना जाता था और उससे हर ज्ञानी विद्वान महर्षि समस्त लोगों का वो ज्ञान का ग्रंथ घर था परन्तु उसे जब बाहर से आये हुए अत्याचारी क्रूर राजा उनके द्वारा उसे नष्ट कर दिया गया परंतु वो ज्ञान का कुछ हिस्सा भले ही जला दें नष्ट कर दे परन्तु शिक्षा को कभी कर नहीं पाया हमारे बीस सौ में जो मान्यता था उसे आज भी दुनिया मानने के लिए विवश है केवल ब्रह्मना इस बात की है कि हमारे लोग ही हम से दलित के नाम पेशोषण करने लगे इसमें आपसी में कहा अगर मतांतर रहे तो एक समृद्ध शक्ति हम बनाने का इतिहास दोबारा नहीं बन पाएंगे . हमने बहुत से नेताओं के स्वार्थ का शिकार हुए हैं शोषित हुए हैं वंचित हुए हैं अब समय आया एकजुट हो और हमारे अधिकारों को हम ले जरूरत पड़े तो हम लडने के भी समक्ष रहे यह आह्वान है हर एक दलित व्यक्ति को कि हम अपने अधिकारों को पहचाने और लडे .स्वाभाविक है समस्त लोगों का एकता जटिल हो सकता है परंतु संभव नहीं इस असंभव की परिभाषा को बदल के संभव करने का नाम विश्वजित है. हमें एक मौका दे।
    जय भिम..जय हिन्द

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

भारत की बहिर्विवाह संस्कृति: गोत्र और प्रवर

आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है - ' संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत् ' ( समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए ) । असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र - पुत्री के उत्पन्न होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान - बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है। [1]   ब्राह्मणों के विवाह के अलावे लगभग सभी जातियों में   गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति आदि ग्रंथों में यह कहा   गया है कि यदि कोई कन्या सगोत्र से हों तो   सप्रवर न हो अर्थात   सप्रवर हों तो   सगोत्र   न हों,   तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान 'गौत्र" कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते ...

ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद

ब्राह्मण एक जाति है और ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। समय और परिस्थितियों के अनुसार प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है। चूँकि ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर रहा है इसी कारण तमाम बुराईयों को उसी में देखा जाता है। इतिहास को पुनः लिखने कि आवश्यकता है और तथ्यों को पुनः समझने कि भी आवश्यकता है। प्राचीन काल में महापद्मनंद , घनानंद , चन्द्रगुप्त मौर्य , अशोक जैसे महान शासक शूद्र जाति से संबंधित थे , तो इस पर तर्क और विवेक से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है प्रचलित मान्यताओं पर पुनः एक बार विचार किया जाएँ। वैदिक युग में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है। इन प्रकार कि संस्थाओं को अगर अध्ययन किया जाएँ तो यह   जनतांत्रिक संस्थाएँ की ही प्रतिनिधि थी। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसी वेद में यह कहा गया है प्रजापति   की दो पुत्रियाँ हैं , जिसे ' सभा ' और ' समिति ' कहा जाता था। इसी विचार को सुभाष कश्यप ने अपनी पुस्...

कृषि व्यवस्था, पाटीदार आंदोलन और आरक्षण : गुजरात चुनाव

नब्बे के दशक में जो घटना घटी उससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ। रूस के विघटन से एकध्रुवीय विश्व का निर्माण , जर्मनी का एकीकरण , वी पी सिंह द्वारा ओ बी सी समुदाय को आरक्षण देना , आडवाणी द्वारा मंदिर निर्माण के रथ यात्रा , राव - मनमोहन द्वारा उदारीकरण , निजीकरण , वैश्वीकरण के नीति को अपनाना आदि घटनाओं से विश्व और भारत जैसे विकाशसील राष्ट्र के लिए एक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आर्थिक परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ। सरकारी नौकरियों में नकारात्मक वृद्धि हुयी और निजी नौकरियों में धीरे - धीरे वृद्धि होती चली गयी। कृषकों का वर्ग भी इस नीति से प्रभावित हुआ। सेवाओं के क्षेत्र में जी डी पी बढ़ती गयी और कृषि क्षेत्र अपने गति को बनाये रखने में अक्षम रहा। कृषि पर आधारित जातियों के अंदर भी शनैः - शनैः ज्वालामुखी कि तरह नीचे से   आग धधकती रहीं। डी एन धानाग्रे  ने कृषि वर्गों अपना अलग ही विचार दिया है। उन्होंने पांच भागों में विभक्त किया है। ·  ...