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बिहार की राजनीति

बुद्ध को जहाँ ज्ञान प्राप्त हुआ, महावीर का जन्मभूमि, चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ, आर्यभट्ट जैसा खगोलविद आदि अनेक महापुरुषों का जन्म भूमि और कर्म भूमि बिहार राज्य ही रहा है। प्राचीन भारत का केन्द्रविन्दु राजगृह और  पाटलिपुत्र ही रहा है। शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र भी नालंदा रहा है जो विश्व पटल पर आज भी अपने गुणों के कारण जाना जाता है। इतना ही नहीं  विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र लिच्छवि है, जो बिहार में ही है। इसीलिए इस राज्य की राजनीति निश्चित रूप से सरल नहीं जटिल ही होगा।

इतिहास इसीलिए पढ़ा जाता है क्यूँकि अतीत से मिले ज्ञान को आने वाले समय उसका सदुपयोग कर सकें। इतना  ही नहीं पिछले गलतियों से सबक भी लेना चाहिये। इस संदर्भ में बिहार की राजनीति पर आज बिहार के इतिहास का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।

किसानों के आंदोलन के 100 साल पूरे होने वाले है। शायद यह धरती ही गाँधी जी को भारत ही नहीं विश्व के एक सफल नेता के रूप में स्थापित किया। प्रत्येक घटना का अपना मूल्य होता है। रामचंद्र शुक्ल ने सन 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में गाँधी जी को चम्पारण के किसानों के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार के बारे में बताया। चम्पारन सत्याग्रह पूर्णतः एक किसान आंदोलन था। इतिहासकारों का मानना है यह सूक्ष्म प्रयोग था, जो गाँधी जी को यह विश्वास दिलाया अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाया जा सकता है। इसी प्रयोग ने गांधी जी को तत्कालीन भारतीय राजनीति में एक सफल नेता का पहचान दिलाया।

चम्पारन के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था। इस अनुबंध के अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे। 19वीं शताब्दी के अन्त में रासायनिक रगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाज़ार में गिरावट आने लगी, जिससे नील बाग़ान के मालिक अपने कारखाने बंद करने लगे। किसान भी नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। गोरे बाग़ान मालिकों ने किसानों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर अनुबंध से मुक्त करने के लिए लगान को मनमाने ढंग से बढ़ा दिया, जिसके परिणामस्वरूप विद्रोह शुरू हुआ।[1]

भारत में गाँधी जी द्वारा किया गया यह पहला सत्याग्रह था। बुद्ध के बताये हुए रास्ते पर चलना आसान नहीं था। सत्य और अहिंसा बिहार की आत्मा रही है। महावीर भी इसी रास्ते के सहारे अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त किया था। प्राचीन काल में सीखा गया गुण पुनः गाँधी जी ने बिहार के विरासत और परम्परा को जीवित कर दिया था। इसीलिए गाँधी जी अपने लक्ष्य में कामयाब भी हुए। उनका पहला उद्देश्य भी यहीं था की पहले जन मानस को सत्याग्रह के मूल सिद्धांतों के अवगत कराया जाये। गाँधी जी ने कहा था स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से स्वतंत्र होना। भय और डर दो ऐसे मनोरोग हैं जिससे निजात पाना आज भी आसान नहीं है। इन दो बिमारियों के रहते हुए मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास भी सम्भव नहीं है। इन बातों से गाँधी अवगत थे। परतंत्र राष्ट्र सिर्फ भय के कारण ही स्वतंत्र नहीं हो पाता है। भय और डर से निजात पाकर ही व्यक्ति, समाज या राष्ट्र स्वतंत्र हो सकता है। अत्याचार और शोषण के केंद्र विन्दु में भय और डर ही मुख्य भूमिका निभाता है। यहीं डर चम्पारण के किसानों में भी व्याप्त था। इसी भय और डर को किसानों के दिल से निकाला और अंग्रेज बागान मालिकों से स्वतंत्र होने का आभास भी कराया।

अब समकालीन राजनीति में प्रवेश करते हैं। आजकल बिहार के राजनीति को सीधे तौर पर जातिवाद से जोड़ा जाता है। जाति समाप्त हो चुकी होती लेकिन आरक्षण व्यवस्था ने  तो  जातिवाद को ऑक्सीजन प्रदान किया  जाति है तो ही तो जातिवाद है, और इसे बढ़ाने के लिए आरक्षण भी है। 

 विकास और विनाश के बीच दुविधा आदि काल से अनंत काल तक चलता रहेगा। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा और पृथ्वी ग्रह भी मानव के लिए अनुकूलित नहीं रह गया है। इसी प्रकार जाति आधारित शोषण और भेदभाव ही जातिवाद जैसे समाजिक समस्या को जन्म देता है। प्रश्न यह है की आखिर जिम्मेदार कौन है ?  इसे राजनीतिक दलों ने अपने लिए जातिवाद को एक भवनात्मक औजार बनाया और इसे बेचकर सत्ता हासिल हासिल किया। जातिवाद एक नशा है जो सत्ता के साथ पीने पर चरम आनंद देता है। आदत सी बन गयी है इस नशा का राजनीति में, इतना ही नहीं जाति के नेता का पहला शिकार अपना ही जाति है। 

इस लेख में पहले ही कहा गया है प्राचीन इतिहास ही आधुनिक इतिहास का आधारशिला रखती है। प्राचीन, मध्यकाल और आधुनिक काल में जाति निर्माण प्रक्रिया का आधार ही जन्म है। जन्म से जाति तय होती है। इसी से समाजिक नियम जैसे - विवाह, खान - पान, समाजिक संगठन, समाजिक दूरी, स्थिति - परिस्थिति, मान - मर्यादा, सोच - विचार, समाजीकरण, सांस्कृतिक मूल्य, प्रथा, परम्परा, आदतें, व्यवहार आदि बनाये जाते हैं। यह भी सत्य है आजादी के बाद समाजिक परिवर्तन धीमी चाल से समाजिक ताने - बाने को बदल रहा है। एक व्यक्ति और एक वोट ने राजनीतिक परिवर्तन लाया। आर्थिक परिवर्तन के उपायों पर भी सरकार की भूमिका हमेशा सकारात्मक रहती है।

इतने सकारात्मक कार्यों के बाबजूद भी जाति अपनी पहचान खो देगीं। इसका उत्तर भी बिहार के राजनीतिक संरचना में ही मिलता है। अशांति और हिंसा से मानवीय सभ्यता हमेशा से ही खतरे में पड़ी है। विश्व जब दो महायुद्धों में अपनी पूरी ऊर्जा लगाया तो 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुयी।   संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैंयुद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास  उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना। सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई।[2]

हमारे  लेख इस बात पर केंद्रित है की हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। जातिवाद अपने मूल स्वरूप से हटती जा रही है और राजनीति में अपना स्थान भी बनाने में सफल हो रही है। सच्चाई यह है की जाति का  प्रयोग अब अधिकारों की जगह राजनीतिक नेताओं द्वारा वोट बैंक के रूप में किया जाने लगा। जनतंत्र में राजनीति का अर्थ हमारे विचार से सिर्फ इतना है की संसदीय व्यवस्था में जिस दल को भी सत्ता मिले वो एकमात्र कार्य करें - जन सेवा या लोगों का कल्याण और राष्ट्र का एकीकरण। लेकिन अब विभिन्न जाति के नेताओं द्वारा परसेंटेज पॉलिटिक्स के आधार पर अपनी राजनीतिक ग्राफ बनाने में सफल हो रहे हैं। जिस जाति की गणना उस जाति के नेता दिल्ली में जब करते हैं तो उस समाज के गरीब, मजदूर, अशिक्षित लोगों को पता भी नहीं होता है की उसके नाम पर मंत्रालय या टिकट उसको मिल गया है।

ये दुर्भाग्य की बात है जो धरती बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति का गवाह बना, महावीर का जन्म भूमि, अशोक के धम्म नीति को देखा हों, उसके बारे में मुठ्ठी भर नेताओं के द्वारा कहे शब्द को मुठ्ठी भर मीडिया द्वारा समान या वस्तु की बिहार को हमेशा जातिवाद के नजरों से देखा जाता है। न्याय और अन्याय के बीच अब जीत किसकी होती है ये तो जीतने वाले लोगों को भी अब पता नहीं होता है।

राजनीति को सिर्फ राजनीतिक नेताओं और दलों तक सीमित रखना तो राजनीति शब्द के साथ ही अन्याय है। राजनीति को किसी खास क्षेत्र के राजनीतिक संस्कृति, वहाँ पर रहने वाले जन समुदाय के सोच, विचार, अनुभव, व्यवहार, समाजिक परिवर्तन के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। संकीर्ण रूप से राजनीति तो सिर्फ सत्ता प्राप्ति तक ही सीमित  है। हमारे समझ से राजनीति को व्यापक अर्थ में देखने की आवश्यकता है। राजनीतिक अंतःक्रिया जो समाज में रहने वाले विभिन्न समुदायों के बीच प्रतिदिन होता है और किसी भी घटना पर प्रत्येक व्यक्ति के विचार में विभिन्नता होती है। ये सारे पक्ष भी राजनीतिक मूल्य के ही प्रतिबिम्ब होते हैं।

मृत्युंजय कुमार





[1] http://bharatdiscovery.org
[2] https://hi.wikipedia.org

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