भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स, 2017 की रैंकिंग में 100 वें नम्बर पर आ गया है। पिछले वर्ष 2016 में 97 वें नम्बर पर था। इस तरह के सर्वेक्षण
की शुरुआत इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने की और वेल्ट हंगरलाइफ़ नामक
एक जर्मन स्वयंसेवी संस्थान ने इसे सबसे पहले वर्ष 2006 में जारी किया था। वर्ष
2007 से इस अभियान में आयरलैंड का भी एक स्वयमसेवी संगठन शामिल हो गया। इस बार से रिपोर्ट
को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित 2030 के एजेंडे से भी जोड़ा गया है जिसमे 'जीरो हंगर'
का लक्ष्य रखा गया है। 'ग्लोबल इंडेक्स स्कोर'
ज़्यादा होने का मतलब है उस देश में भूख की समस्या अधिक है। उसी तरह किसी देश का स्कोर अगर कम होता है तो उसका
मतलब है कि वहाँ स्थिति बेहतर है। इसे नापने के चार मुख्य पैमाने हैं - कुपोषण, शिशुओं
में भयंकर कुपोषण, बच्चों के विकास में रुकावट और बाल मृत्यु दर।[1] भारत
जैसे विकासशील राष्ट्र में आज भी लोगों को भर पेट खाना नहीं मिल पता है। भूख से मौत
होना भी एक समाजिक हकीकत है। कोई भी दल या पार्टी इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा नहीं कर
पता है। सत्ता पक्ष वपक्ष पर आरोप लगता और जब स्थिति उलट जाती तब भी सिर्फ आरोप और
प्रत्यरोप ही चलता रहता है। झारखंड में कथित
तौर पर भूख से एक और मौत का मामला सामने आया है। सिमडेगा की 11 वर्षीय बच्ची संतोष
कुमारी की भूख से हुई मौत का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है कि शनिवार को धनबाद के
झरिया में रिक्शाचालक की भूख से हुई मौत के नए मामले ने प्रशासन के लिए नई चुनौती खड़ी
कर दी है। हालांकि प्रशासन ने भूख से मौत होने से इनकार किया है।[2]
सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक
कहा है कि भूख से होने वाली मौत के मामले में उस जिले के डीएम को सीधा जिम्मेदार माना
जायेगा। तमाम समाजसेवी संगठन इसका हिस्सा हैं,
जिससे कि गडबडी न हो और भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सके।[3] उत्तर
प्रदेश के महोबा जिले के घंडुआ गांव में एक दलित की भूख से मौत का मामला सामने आया
है। हालांकि जिला प्रशासन भूख से मौत की बात को सिरे से खारिज कर रहा है। जबकि पोस्टमॉर्टम
रिपोर्ट में कई दिनों से खाना न खाने के कारण ही मौत होने की पुष्टि हुई है।[4] आतंकवाद,
नक्सलवाद, हिंसा और समाजिक समस्याओं के जड़ में भूख और बेरोजगारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
रूप से शामिल है। सभ्य और आधुनिक समाज में कोई भी व्यक्ति अगर भूखमरी से मरता हों,
निःसंदेह उस राष्ट्र के नेताओं और प्रशासकों को अपने नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।
तथ्य और आकड़ों को कितना भी तोड़ - मरोड़कर कर प्रस्तुत किया जाएँ लेकिन हकीकत से इंकार
नहीं किया जा सकता है। आज के राजनीति मनुष्य का मुलभूत अधिकार रोटी, कपड़ा और मकान के
स्थान पर जाति, धर्म और पेज थ्री पर चर्चा होने लगी है।
किसानों और मजदूरों के प्रश्नों को इस तरह से हटा दिया गया है जिस पर चर्चा करना भी अब बेकार लगता है। किसानों के असंतोष को अभी तक ठीक से सुलझाया नहीं गया है। खान मजदूरों के मौत का कोई भी रिपोर्ट अब लिखा नहीं जा रहा है। बच्चों में कुपोषण में बढ़ता ही जा रहा है। 5 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा, ‘यह एक क्रान्ति है, दोस्तो! हमें केवल एक सभा को भंग नही करना है, यह तो हमारी यात्रा का एक पड़ाव भर होगा । हमें आगे तक जाना है । आजादी के सत्ताइस बरस बाद भी देश भूख, भ्रष्टाचार, महँगाई, अन्याय तथा दमन के सहारे चल रहा है । हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए उससे कम कुछ नहीं…’[5] देश में एकीकृत बाल विकास योजना बहुत लंबे समय से संचालित है और किसी भी देश में कुपोषण दूर करने की यह सबसे बड़ी योजना है, पर सच्चाई यह है कि इस योजना का लाभ भी देश की कमजोर व गरीब आबादी तक नहीं पहुंच रहा है। सामाजिक व आर्थिक विषमता की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है। आज भारत में बाल मृत्युदर और प्रसव के दौरान गर्भवती माताओं की मृत्यु दर का ग्राफ यदि बढ़ रहा है तो वह इसीलिए, क्योंकि देश के वंचित तबकों को चिकित्सा की आवास सुविधाएं मयस्सर नहीं हो पा रही है। भारत में यह कैसी विडंबना है कि एक ओर वैश्विक स्तर पर कुपोषण व भुखमरी के स्तर पर भारत को नीचा दिखाने के प्रयास किए जा रहे हैं तो दूसरी ओर छह हजार टन से भी अधिक अनाज सड़कों व गोदामों में सड़ गया। भूख का समाजशास्त्र बताता है कि भूख कभी भी इस देश में न तो राज्य की विधानसभाओं और न ही देश की संसद में बहस का हिस्सा बनी। चुनावी एजेंडे ने भी कभी राष्ट्रीय भुखमरी की चिंता तक नहीं की।[6] 1971
में इंदिरा गांधी ने गरीबी उन्मूलन के लिए गरीबी हटाओ का नारा दिया था। सत्तर के दशक
में हरित क्रांति कि शुरुआत हुईं और भारत खाद्यन्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया
था। लेकिन भारत और पाकिस्तान के युद्ध ने भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी हद तक कमजोर
कर दिया था। आजादी के इतने वर्षों बाद भी भूखमरी और कुपोषण व्याप्त है। इस मुद्दे पर
राजनीति नहीं कर सही राह तलाशने की जरूरत है। समाज में आर्थिक असमानता पर पुनर्विचार
करने की आवश्यकता है। इस मुद्दे को अगर इसी तरह छोड़ा गया तो कभी भी राष्टवाद और समाजिक
एकीकरण सम्भव नहीं है।
Comments
Post a Comment