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शांति प्राप्त करने वाले राज्य में अशांति


बिहार एक ऐसा राज्य है जहां बुद्ध और महावीर को ज्ञान प्राप्त हुआ। सत्य और अहिंसा का प्रचार और प्रसार विश्व में किया। अशोक जैसे शासक सत्ता के लक्ष्य को त्याग कर स्वयं और अपने बच्चों द्वारा सत्य और अहिंसा का प्रचार और प्रसार करवाया। ऐसा कहा जाता है आर्यभट्ट का कर्मभूमि भी बिहार रहा। दक्षिण अफ्रीका के बाद गाँधीजी ने भारत में इसी राज्य में सत्य और अहिंसा का पहला प्रयोग चम्पारण में किया और भारतीय राजनीति के दिशा को बदला।
नालंदा विश्वविद्यालय एक ऐसा प्राचीन  विश्विद्यालय  था जिसने प्रतियोगिता परीक्षा जैसे सिद्धांतों को जन्म दिया। आवासीय विश्वविद्यालय उस समय होना कोई मामूली बात नहीं थी। पाल युग में विक्रमशिला और ओदान्तपुरी विश्वविद्यालय का निर्माण राजतंत्र के प्रगतिशील और जन कल्याण के भावना को दिखाता है।
सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने गाँधी को इसी देश में हिंसा का शिकार होना पड़ा। बिहार राज्य वह राज्य है जिसमें अरस्तू के समकालीन चाणक्य जिसे विष्णुगुप्त या कौटिल्य भी कहा जाता है जिन्होनें राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन पर आधारित ग्रंथ अर्थशास्त्र का रचना किया।
इसलिए कहा जाता है परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। जब इस संसार में मनुष्य और पेड़ -पौधे सभी मरणशील हैं तो विचार मरणशील नहीं रहते हुए भी समय के साथ वह भी खत्म हो जाता है। दीपों के त्योहार दीपावली के जश्न में हिंसा क्या सभ्य समाज के लिए सही है ? ख़ुशी के मौके पर घर को जलाना भारतीय संस्कृति के लिए भी क्या उचित है ? सत्ता के भय और डर से मौन रहना मनुष्यों को शोभा देता है। दलित हों या गैर दलित किसी के साथ भी हिंसा आखिर क्या दर्शाता है ? ऐसे प्रश्नों को आखिर समाज हल करेगा या प्रशासन ? प्रशासन सिर्फ भय को भय दिखाकर कुछ समय के लिए शांत कर सकता है। असली समस्या तो समाजिक व्यव्स्था में निहित अमानवीय सोच है जो समाज के कमजोर और गरीबों को आज भी इंसान नहीं मानता है।

अगर कानून और प्रशासन से समाजिक व्यवस्था बदली होती तो इस देश से छुआछूत, भ्रष्टाचार, महिलाओं के प्रति हिंसा, आदिवासियों के साथ होने वाले अन्याय, आम आदमी को ऑफिस के चक्रव्यूह में फसता ही नहीं। जब तक समाजिक संरचना के सभी अंगों में परिवर्तन नहीं होगा तब तक समाजिक व्यवस्था नहीं बदलेगी। समाजिक व्यवस्था में परिवर्तन एक दिन या दो दिनों में नहीं होता है। इसके लिए गंभीर चिंतन और सोच में परिवर्तन लाना होगा। दकियानूसी और रूढ़िगत आदतों को बदल कर प्रगतिशील और मानव अधिकारों के विचारों से ओत - प्रोत करना होगा।
दीपावली के जश्न को जब सत्तर घरों को जला दिया गया और उन्हें बेघर किया गया। मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है जैसे विचारों से ही मानव अधिकारों को दस दिसम्बर उन्नीस सौ अड़तालीस को मान्यता मिली, लेकिन खगड़िया में घटने वाली घटना ने तो मानवीय अधिकारों का ही उल्लंघन किया। इसके पीछे के घटनाओं पर भी नजर डालना होगा।
हरिवंश लिखते हैं अब 'नालंदा' का शक्तिस्रोत और सूत्रधार पाटलिपुत्र है।  यह तथ्य केवल उन अधुनातन लोगों को अटपटा नहीं लगेगा, जिन्हें अपने इतिहास-संस्कृति से परहेज है।  नालंदा, जहां से सभ्यता-धर्म और संस्कृति के अंकुर फूटे, जिस नगर की सादगी-अनुशासन और वैचारिक समृद्धि के आगे बड़े-बड़े राजवंशों ने मत्थे टेके, जहां के भिक्षुओं -साधनहीन आचार्यों का दर्शन पाने के लिए सम्राट धूल फांकते थे, जिस नालंदा में ह्वेन सांग ने अध्ययन के बाद 'मोक्षाचार्य' की उपाधि पायी, उसी नालंदा को अब वहां का समृद्ध तबका 'कुर्मिस्तान' कहता है।  चूंकि कुर्मी जाति का यहां बाहुल्य है, इस कारण इसे कुर्मियों का गढ़ कहा जाता है।  वह 'नव नालंदा' पाटलिपुत्र (पटना) की दूषित राजनीति से ऊर्जा ग्रहण कर रहा है। बेलछी हत्याकांड ही श्रीमती इंदिरा गांधी के राजनीति को पनर्जीवित किया और जनता पार्टी का अवसान भी प्रारम्भ हुआ। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने इस मुद्दे से ध्यान भटकाने का पूरा कोशिश किया था।  बेलछी नरसंहार के बाद ही बिहार में जाति युद्ध और हत्याओं का एक अटूट सिलसिला आरंभ हुआ, जो आज भी चल रहा है।[1]  बेलछी नरसंहार में जो मानवीय अधिकारों का दमन हुआ उसे साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यथा का वर्णन किया है।मन्नू भंडारी द्वारा लिखित   महाभोज उपन्यास बिहार में जनता पार्टी शासन के दौरान  हुए बेलछी नरसंहार से प्रेरित है। उल्लेखनीय है कि हरिजनों को जिन्दा जलाये जाने की यह घटना नागार्जुन के ‘हरिजन गाथा की भी प्रेरक है। चुनावी माहौल में हरिजनों को जलाया जाना और उसका विरोध करने बाले बिसू की हत्या राजनीतिक दलों को चुनावी दाँव पेंचो का अवसर प्रदान करती है। महाभोज में बिसू की मौत और उसके बाद की घटनाओं के माध्यम से लेखिका ने भ्रष्ट भारतीय राजनीति का नग्न यथार्थ प्रस्तुत किया है। आज की राजनीति की मौकापरस्ती, मूल्यहीनता और जनविरोधी चरित्र का कच्चा चिट्ठा है महाभोज। इस राजनीति में लोचन बाबू के आदर्शवाद की कोई कीमत नहीं है। उन्हें उसी प्रकार किनारे कर दिया जाता है जिस प्रकार मैला आंचल के बावनदास को। आज की राजनीति में कीमत है राव और चौधरी जैसे उन नेताओं की जो सत्ता के बाजार में खुद अपनी बोली लगाते है। ये ऐसे नेताओं की पौध हैं, जिनके लिए विचारधारा या मूल्य कोई मायने नहीं रखते। येन केन प्रकारेण कुर्सी की प्राप्ति ही इन नेताओं का चरम लक्ष्य है और यही आज का यथार्थ भी है।  ऐसा नहीं है कि इस भ्रष्ट और अन्यायी राजनीतिक वयवस्था का कोई प्रतिरोध नहीं होगा। व्यवस्था चाहे कितनी भी शक्ति शाली और निरंकुश क्यों न हो एक सीमा के बाद उसके दमन और उत्पीड़न का विरोध होता ही है। शीकांत वर्मा ने ‘मगध में लिखा है- ‘मगध निवासियों कितना भी कतराओ तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से क्योंकि जब तुम नहीं करोगे तो सड़क से गुजरता हुआ मुर्दा। यह प्रश्न उठा कर हस्तक्षेप कर सकता है कि मनुष्य क्यों मरता है?’’[2]
नालंदा के बाद औरंगाबाद में भी जातीय नरसंहार 16 जून 2000 को हुआ था। औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून 2000 को 35 दलितों की हत्या कर दी गई थी।  इस मामले में जुलाई 2013 में उच्च न्यायलय ने साक्ष्य क अभाव में 10 अभियुक्तों में से नौ को बरी कर दिया था, जबकि निचली अदालत ने  सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। जब न्याय देरी से मिले तो असंतोष और भी बढ़ जाता है। अदालत में गरीबों को लड़ना इतना आसान नहीं है। भुखमरी और गरीबी स्वतः मनुष्य को लाचार बना देती है। अदालती और कानूनी दाव - पेंच में कोई भी व्यक्ति आखिर दम तोड़ ही देता है। प्राथमिकी मियांपुर गांव के राजाराम यादव ने दर्ज कराई थी। प्राथमिकी के अनुसार घटना के दिन मियांपुर गांव के निवासी संध्या 7 बजे घरों के बाहर बैठे गपशप कर रहे थे। कि सहरसा पिकेट के कुछ पुलिसकर्मी जांच हेतु गांव आये। उनके जाने के कुछ देर बाद 400 से 500 लोग गांव में प्रवेश कर फायरिंग करने लगे। वे चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि सेनारी कांड में 50 मारे गये, हम 100 मारेंगे। हम सेनारी का बदला लेंगे। उन्होंने 32 लोगों को मार गिराया था। 20 घायल हुये। पुलिस ने 4 सितम्बर 2000 11 अप्रैल 2002 को दो आरोप पत्र दायर किए थे।[3] औरंगाबाद  के बाद पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर भोजपुर जिले के बथानी टोला में रणवीर सेना ने 11 जुलाई, 1996 को 20 दलितों की हत्या कर दी थी।[4] बिहार के जहानाबाद जिला की एक अदालत ने साल 1999 के शंकर बिगहा गांव में प्रतिबंधित उच्च जाति संगठन 'रणवीर सेना' द्वारा किए गए कथित नरसंहार केस के सभी 24 आरोपियों को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। इस नरसंहार में 22 दलितों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी तथा 14 अन्य ग्रामीण घायल हो गए थे।[5] यह बिहार के नरसंहारों में सबसे बड़ा और नृशंस नरसंहार माना जाता है।  इसमें बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भी निशाना बनाया गया था। 30 नवंबर और 1 दिसंबर, 1997 की रात हुए इस नरसंहार में रणवीर सेना ने 58 लोगों की हत्या की थी।  लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार ने कई परिवारों को अनाथ कर दिया था।  कई परिवारों में घर का काम-काज संभालने के लिए एक महिला भी नहीं बची थी।  कुछ परिवारों में तो सिर्फ बच्चे ही जीवित रह गए थे। इस  मामले में पटना की एक विशेष अदालत ने 7 अप्रैल, 2010 को 16 दोषियों को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई थी।  लेकिन पटना हाइकोर्ट के नौ अक्तूबर, 2013 के फैसले में सभी दोषियों को बरी कर दिया था।[6] हिंसा सभ्य समाज को बर्बर और हिंसक बना देता है। जनतंत्र में विरोध के कई तरीके हैं। अण्णा आंदोलन से एक दल बना जो दिल्ली के सत्ता पर कायम है। भले ही यह दल अपने लक्ष्यों में कामयाब नहीं रहा लेकिन अपने उद्देश्यों को पहुंचाने में सफल रहा। समाज आखिर हिंसक क्यों बनता है। इसके लिए आखिर अंतिम जिम्मेदारी किस पर है। समाजिक समझौते का सिद्धांत ने यह बताया है समझौता सभी लोगों के बीच होता है। समान और आसमान दोनों पृष्भूमि के लोगों को राज्य नामक संस्था उसके अधिकारों को संरक्षित करता है और सभी लोगों को समान अवसर मुहैया करवाता है। शोषण करने वाले को दंडित करता है शोषित लोगों को राज्य उसके मानव अधिकारों और अधिकारों को दिलाता है। राजा के शासन यानि राजतंत्र में परोपकार किये जाते थे मगर अधिकार नहीं दिए जाते थे। फ्रांस की क्रांति (1789) ने स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे का नारा दिया जो हमरे संविधान के उद्देशिका में भी शामिल है। राज्य का निर्माण ही सामाजिक समझौता सिद्धांत के कारण सम्भव हुआ। 17वीं एवं 18वीं सदी के यूरोपीय विचारकों- हॉब्स, लॉक और रूसो ने इस सिद्धांत के द्वारा राज्य के उद्देश्य को समझाया। मनुष्यों द्वारा मनुष्यों का शोषण कोई नई बात नहीं थी। मनुष्यों के हिंसक प्रवृति पर लगाम लगाने हेतु ही राज्य जैसी संस्था का जन्म हुआ था।

आज सिर्फ इस बात की आवश्यकता है सरकार और समाज में सामंजस्य हों और एकता को बढ़ाने हेतु नफरत के जहर को खत्म भी करना हों।



[1] http://www.prabhatkhabar.com/news/sunday/story/818460.html
[2] https://www.caasgroup.net
[3] http://www.jagran.com
[4] http://zeenews.india.com
[5] https://navbharattimes.indiatimes.com
[6] http://www.bbc.com

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