आज गाँधी जिन्दा होते तो आखिर परिदृश्य क्या होता। सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर चलने वाले वो जरूर भारत की दशा देखकर परेशान होते। आज भी भारतीय समाज पुरातन समस्याओं से ही घिरा हुआ है।
गरीबी, बेरोजगारी, अपराधीकरण, मूल्यविहीन शिक्षा, शोषितों के साथ तरह - तरह के दुर्व्यवहार, आदिवासियों के साथ शोषण, श्रमिक वर्गों के साथ अन्याय, खान मजदूरों के सुविधा में कमी, किसानों द्वारा आत्महत्या, ग्रामीण समाज और शहरी समाज के बीच अन्तर, महिलाओं के प्रति हिंसा, पारिवारिक विघटन, युवा असंतोष, नशाखोरी, मानव निर्मित प्रदूषण, वृद्धों को घर के अंदर ही उपेक्षा, जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता - साम्प्रदायिक मुद्दों के बीच असंतुलन, मानव के द्वारा मानव का शोषण जैसे मुद्दे शायद गाँधी इसे जरूर परेशान होते।
गरीबी, बेरोजगारी, अपराधीकरण, मूल्यविहीन शिक्षा, शोषितों के साथ तरह - तरह के दुर्व्यवहार, आदिवासियों के साथ शोषण, श्रमिक वर्गों के साथ अन्याय, खान मजदूरों के सुविधा में कमी, किसानों द्वारा आत्महत्या, ग्रामीण समाज और शहरी समाज के बीच अन्तर, महिलाओं के प्रति हिंसा, पारिवारिक विघटन, युवा असंतोष, नशाखोरी, मानव निर्मित प्रदूषण, वृद्धों को घर के अंदर ही उपेक्षा, जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता - साम्प्रदायिक मुद्दों के बीच असंतुलन, मानव के द्वारा मानव का शोषण जैसे मुद्दे शायद गाँधी इसे जरूर परेशान होते।
गाँधी जी के नजरों में राजनीति का उद्देश्य यह था की इसके माध्यम लोगों का कल्याण हों। सीमित संसाधन और असीमित इच्छाएं के बीच सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। समाजवादी विचार हों या पूंजीवादी विचार या कोई अन्य विचार हों मगर जन सेवा और लोगों की भलाई ही मात्र उद्देश्य होना चाहिए। कोई भी दल, पार्टी या संस्था हों लेकिन मानव मात्र का कल्याण ही सच्ची राष्ट्र सेवा है।
गाँधी जी ने स्वयं कहा था - गाँधी मर सकता है मगर गांधीवाद नहीं। उनका मानना था - समाज और व्यक्ति एक दूसरे से सहयोगी हैं। आज समाज में अकेलापन का दौर है जिसमें समाजिक कल्याण की जगह व्यक्तिगत
महत्वाकांक्षा ने स्थान लिया है।
मृत्युंजय कुमार
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