सम्पूर्ण क्रांति से पिछड़े और समाज के कमजोर वर्ग का नेतृत्व
हुआ। सोचने पर विवश हूँ जे पी दलित /आदिवासी / पिछड़ा नहीं बल्कि कायस्थ थे। जब उच्च
जातियों के खिलाफ जुबानी जंग शुरू हुयी थी तो यह आवाज जे पी द्वारा ही दिया गया था।
जन्म से जाति का निर्माण होता है लेकिन हमेशा जन्म आधारित जाति ही समाजिक चेतना लाये इसकी गारंटी नहीं है। आंबेडकर
को अपना सरनेम एक ब्राह्मण द्वारा दिया जाना यह प्रमाणित करता है कि एक ही समाजिक व्यवस्था
में पूर्वाग्रह से सारे लोग ग्रसित नहीं होते हैं। समाजिक खाँचा कोई ईटा भट्टा का खाँचा
नहीं है जिसमें एक ही प्रकार के बुद्धि का निर्माण होता हों। जातिगत अत्याचार एक समाजिक
सच्चाई है लेकिन इसे सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। इससे समाजिक परिवर्तन तो छोड़िये
यह मानवीय लिहाज से भी ठीक नहीं है। हमेशा पॉलिटिकली करेक्ट होने की भी आवश्यकता नहीं
है। अगर ऐसा हुआ तो आने वाली नस्लें या पीढ़ी अनुसंधान में पीछे ही नहीं जाएगी बल्कि
वह दूसरे राज्यों में जाकर गोत्र खोजकर नया ख़ून का रिश्ता ढूँढता मिलेगा। एक ही जाति
ब्राह्मण में जन्मे राजा राम मोहन राय और राधाकांत देव के विचारों में आसमान - जमीन
का अंतर देखा जा सकता है। एक सती प्रथा के विरोधी तो एक समर्थक थे।
श्री हुक्मदेव नारायण यादव (मधुबनी) से संसद सदस्य हैं
जिन्होनें कहा है - : मैं नहीं, डॉक्टर लोहिया ने इन प्रश्नों के बारे में वर्ष
1962 में जो कुछ कहा था, मैं उन बातों को पहले सदन के सामने रखकर ही आगे बढ़ना चाहूंगा
- “आरक्षण का मूल उद्देश्य होना
चाहिए जाति प्रथा के समूल नाश के लिए। जब तक यह जाति प्रथा रहेगी, तब तक इस आरक्षण
का द्वन्द्व चलता रहेगा, तब तक समाज में जातीय संघर्ष रहेगा, समाज में जातीय विद्वेष
रहेगा, जातीय तनाव रहेगा और जिसके कारण राष्ट्र पीड़ित रहेगा, भारत माता दुखी रहेगी।“
इसीलिए, इसको अगर समाप्त करना है तो पूरे राष्ट्र
को और इस सदन को चिंतन करना चाहिए कि हिन्दुस्तान से जाति प्रथा का समूल नाश कर दिया
जाए। वह कैसे और क्यों, इस पर चिंतन करना चाहिए।[1]
अगर
जाति प्रथा खत्म हो गयी तो यह राष्ट्र क्या करेगा ? विकास करना होगा और भीड़ जुटाने
के लिए नैतिक मानदंडों का पालन करना होगा। जाति के आधार भीड़ जुटाना आसान था इसीलिए
इसे खत्म करने का घाटा कौन लेगा। जातिगत प्रतिनिधित्व और जातिवाद से संसद और विधानसभा
जाना मुश्किल होगा - इससे तो नुकसान है।
वर्चस्व का प्रतिरोध
जब होगा तब हर जाति और वर्ग में टकराव होगा। वर्चस्व स्थापित करने वाली तमाम जातियों
का ठेका लेती हैं और ठेकेदारी से सत्ता और सत्ता से पद और पद के बाद ठेकेदारी बांटने
का काम ही रूक जायेगा। इस पृष्ठभूमि से तो
समाज में शांति, सौहार्द समाप्त हो जाएगी क्यूंकि परिवर्तन होगा तो परम्परागत सिद्धांत
बदले जायेगें। इसीलिए जाति जाने का डर सबको है क्यूंकि यह लाभ का सौदा है। समानता और स्वतंत्रता
को सुनिश्चित करने जाति प्रथा एक अनिवार्य घटक है जिससे आसानी से या भावुकता से मूर्ख बनाया
जा सकें। किसी को जाति का गर्व और गौरव नाश कर देगा तो किसी को पिछड़ा आंदोलन वास्तविकता
से दूर ले जायेगा।
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