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भारतीय समाज में आरक्षण और गैर आरक्षण का द्वन्द


दो  व्यक्तियों या दो समाजिक समूहों के बीच आरक्षण  भारतीय समाज में हमेशा से ही द्वंद्वयुद्ध होता आया है।  दलों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर मुखर विरोध नहीं होता है जिसका कारण समाजिक न्याय नहीं बल्कि समाजिक समीकरण है।  पूर्वनिश्चित और पश्चात् निश्चित के अपने नियम होते हैं और नियमों के अनुसार प्रचलित सिद्धांत पर कोई वक्तव्य या शब्द राजनीतिक रूप से सही दिखना ज्यादा जरूरी है। हर शस्त्रों में यहीं लिखा गया है। जब सारे राजनीतिक दल आरक्षण का समर्थन ही करते हैं तो दूसरे  शब्दों में पक्ष और प्रतिपक्ष को मिलाकर देखा जाये तो यह भारत का ही आवाज है। मगर द्वन्द कहाँ तक टाला जाए ? विचारों और विश्वासों में जो युद्ध होता है इसे शायद कूटनीतिक रूप से दिमागी हल निकाला जाता होगा।
आज का समाज बहुत ही दक्षता और बुद्धिमत्ता से कार्य करता है। गोफमैन का कहना उचित ही है ड्रामा में फ्रंट और बैक पहलू  के समान ही मानवीय जीवन में अब यहीं हो रहा है। सामने हर कोई अच्छा इंसान है मगर वीडियो संस्कृति असली स्वरूप को उजागर कर रही है। गरीबी एक तथ्य नहीं बल्कि सत्य है और इसे बिना गरीब बने समझा भी नहीं जा सकता। इतना तो तय है सीमित संसाधन और असीमित इच्छाओं का संघर्ष मानवीय जीवन के हर पक्षों में देखा जा सकता है। भारत सरकार संसदीय परम्परा को पालन करते हुए मूल रूप में   संघीय सरकार  है और राज्यों के पास भी अधिकार है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।  मगर संघ में शक्ति कई प्रकारों से निहित है बस  गठबंधन का सरकार नहीं हों।  अधिकार और आरक्षण पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा के सहयोगी दल लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान ने आज कहा कि आरक्षण कोई खैरात नहीं है और यह एक संवैधानिक अधिकार है जिसे कोई खत्म नहीं कर सकता।[1] अब प्रश्न यह है कि इसे कोई भी खत्म नहीं कर सकता - यह संविधानसम्मत तथ्य नहीं है। इसे कानूनी और संवैधानिक रूप से देखने की आवश्यकता है।  पासवान जी के शब्दों से ऐसा लगता है कि संविधान और कानूनी प्रावधान को वे संविधान संशोधन के दृष्टि से नहीं देख रहे हैं। हमारा संविधान लचीला और कठोर दोनों है और समय के सामंजस्य के हिसाब से अगर कानून नहीं बना तो समाज कभी भी प्रगतिशील नहीं बन सकता।
अनुसूचित  जाति /अनुसूचित जनजातियों के लिए संवैधानिक सुरक्षा निम्नलिखित है :
 
I. शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक  सुरक्षा
अनुच्छेद 15(4):-    अन्य पिछड़े वर्गों (जिसमें अनुसूचित  जाति / अनुसूचित जनजातियां शामिल हैं) के विकास के लिए विशेष प्रावधान
अनुच्छेद 29:-       अल्पसंख्यकों (जिसमें अनुसूचित जनजातियां शामिल हैं) के हितों का संरक्षण
अनुच्छेद 46:-       राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से उसकी संरक्षा करेगा
अनुच्छेद 350:-     पृथक भाषा, लिपि या संस्कृति की संरक्षा का अधिकार
अनुच्छेद 350:-     मातृभाषा में शिक्षण
II. सामाजिक सुरक्षा
अनुच्छेद 23:-       मानव दुर्व्यापार और भिक्षा एवं अन्य समान बलपूर्वक श्रम का प्रतिषेध
अनुच्छेद 24:-       बाल श्रम निषेध


III. आर्थिक सुरक्षा
अनुच्छेद 244:-     पांचवी अनुसूची का उपबंध खण्ड (1) असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा जो छठी अनुसूची के अन्तर्गत, इस अनुच्छेद के खण्ड (2) के अन्तर्गत आते हैं, के अलावा किसी भी राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए लागू होता है
अनुच्छेद 275:-     संविधान की पांचवी एवं छठी अनुसूचियों के अधीन आवृत विशेषीकृत राज्यों (एसटी एवं एसए) को अनुदान सहायता
IV. राजनीतिक सुरक्षा
अनुच्छेद 164(1):-   बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में जनजातीय कार्य मत्रियों के लिए प्रावधान
अनुच्छेद 330:-     लोक सभा में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण
अनुच्छेद 337:-     राज्य विधान मण्डलों में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण
अनुच्छेद 334:-     आरक्षण के लिए 10 वर्षों की अवधि (अवधि के विस्तार के लिए कई बार संशोधित)
अनुच्छेद 243:-     पंचायतों में सीटों का आरक्षण;
अनुच्छेद 371:-     पूर्वोत्तर राज्यों एवं सिक्किम के संबंध में विशेष प्रावधान

V. सेवा सुरक्षा
(अनुच्छेद 16(4), 16(4A), 164(B), अनुच्छेद 335, और अनुच्छेद 320(40)[2]

उपर्युक्त प्रावधान जो अनुसूचित  जाति / अनुसूचित  जनजाति से संबंधित संवैधानिक अनुच्छेद है। आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं होकर समाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि है। प्रश्न यह है कि राज्य अगर आरक्षण देता है तो समाज उसे कलंकित क्यों करता है ? कानून और प्रथा के बीच मध्य संकुल युद्ध क्यों हो रहा है ? पचास प्रतिशत का क्षेत्राधिकार पर कई प्रश्न हैं ? जाति और जनजाति के  सदस्य में आरक्षण क्या समाजिक एकीकरण या एकता को किस हद तक जोड़ा है। अधिनियम बन जाने से मात्र से सुधार नहीं होता है। समाजिक जागरूकता के स्तर पर मानव के द्वारा मानव को समझा जा रहा है ? विशेष प्रावधान समाज को जोड़ने का कार्य कर रहा है ? चुनाव में जाति के आधार पर उम्मीदार और भाषण में विकास का द्वन्द दिखाई देता है। डर अब तो यह है कि जाति के स्थान उपजातियों का दौर प्रारम्भ हो जाएँ। गोत्रवाद के गोद से खाप पंचायत का जन्म हुआ था। अंतर्विवाह में उपजातियों को प्राथमिकता देना नव समाजिक परिवर्तन है।
लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण हमेशा बढ़ रहा है और इसमें भी परिवारवाद ही नहीं संपर्कवाद का नया गठबंधन है। सम्पत्ति अब सत्ता का रास्ता तैयार करती है और यह रास्ता लम्बा ही होता जा रहा है। इस पर एक आयोग बनें जो यह बताएं समाजिक और शैक्षणिक रूप से दलित या आदिवासी समुदाय से बार - बार चुनकर कितने लोग आते हैं और नए लोगों का आना इस आरक्षण से सम्भव हुआ है या नहीं ?
सेवा क्षेत्र में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के चुनाव में क्षेत्रीय भषा या मातृभषा और अंग्रेजी  भाषा के आधार पर कोई वर्गीकरण है। अगर है तो इसका निदान या समाजिक समावेश इस समूह के अंदर किस प्रकार हों ?
पिछड़ों के संदर्भ में जनसंख्या अभी तक १९३१ के जनगणना को आधार बनाकर सारे निर्णय लिए गए हैं। वास्तविकता में इस समुदाय का जनसंसख्या क्या है वो भी विवाद का ही विषय है।  एस  एल  नायक जो कि एकमात्र एस  सी समुदाय से मंडल आयोग के सदस्य थे उन्होंने कई मुद्दे पर असहमति जताया था। जब मंडल आयोग की सिफारिश को वी पी सिंह की सरकार ने मान लिया तो इसका देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ।सवर्ण समुदाय के छात्र आत्हत्या करने लगे। सवर्ण छात्रों को लगने लगा कि उनका भविष्य अंधेरे में चला गया। 19 सितंबर 1990 दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए। गोस्वामी तब बच तो गया लेकिन पूरी तरह जल गया था, जिसके कारण 14 साल बाद उसकी मौत हो गई। देश के अलग-अलग हिस्सों में सवर्ण समुदाय प्रदर्शन करता रहा। दिल्ली सहित देश भर में लोग मारे जाने लगे।[3] डॉ. प्रीतम गोपीनाथ मुंडे ने अपने पार्लियामेंट के स्पीच में कहा है - जहां तक संविधान में पिछड़े वर्गों को मुख्य धारा में लाने के बारे में लिखा गया है, उसमें अनुसूचित जाति/जनजाति के संदर्भ में बातें काफी हद तक स्प­ट है। उन्हें संवैधानिक अधिकार हैं किंतु अन्य पिछड़ी जाति/वर्ग के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। ओ.बी.सी. हमारे देश की जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा है और उनका विकास उन तक पहुंचे इसलिए ओ.बी.सी. कमीशन को कॉस्टीटय़ूशनल दर्जा मिलना चाहिए ताकि यह सोशियो इकोनोमिकली बैकवर्ड लोग मुख्य प्रवाह में आये। जब मैं यह कहती हॅं कि ओ.बी.सी. एक बड़ा हिस्सा है तो मैं एक निश्चित आंकड़ा नहीं बता सकती, क्योंकि आज तक जातिनिहाय जनगणना नहीं हो पाई है। जब हम रिजर्वेशन की बात करते हैं तो किसको कितना हिस्सा मिले यह तय करने के मापदंड क्या है? जब किसी जाति की जनसंख्या हमें मालूम नहीं तो हम उनके रिजर्वेशन का प्रतिशत किस आधार पर करते हैं। जातिनिहाय जनगणना और ओ.बी.सीज को कांस्टीटय़ूशनल राईट्स दिए जाने के बारे में सरकार जल्द कुछ निर्णय करे, ऐसी मैं दरख्वास्त करती हॅं।[4] मुड़े जो प्रश्न उठा रही है वो आबादी से संबंधित है यह आज भी स्पष्ट नहीं है। इसीलिए कानून को बनाते समय सही आकलन नहीं हों तो समस्या बढ़ती ही जाती रहती है।
आरक्षण को नए सिरे से देखने और समझने के आवश्यकता पर विचार करना होगा। बहस से भागने के बजाय प्रत्येक पहलू पर विस्तार से नहीं तार्किकता और वैज्ञानिकता के आधार पर विश्लेषण हों। आरक्षण हटा देना और कायम रखना : एक समाजिक और राजनीतिक द्वन्द है जिससे दुविधा अधिक बढ़ती है समायोजन कम होता है। पूर्वाग्रह और भेदभाव के स्थान पर मूल्य निरपेक्षता के साथ - साथ विवेकशीलता के साथ कानून में परिवर्तन हों ताकि लक्षित समूह भी समावेशी समाज का हिस्सा बन सकें।






[1] https://www.prabhatkhabar.com/news/delhi/story/929753.html
[2] http://ncst.nic.in/hi/content/constitutional-safeguards-sts
[3] https://www.navodayatimes.in/news/national/let-go-of-the-mandal-commission-/14789/
[4] http://164.100.47.194/loksabhahindi/Members/DebateResults16.aspx?mpno=5267

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