परिवारवाद, चुनावी दौरों में जनता के करोडों रूपये का बर्बादी,
जनता से किए हुए वादों, ताकत का तमन्ना, बहस
करने की बजाय हंगामा, चुनावी मशीन,जनता से रिश्ता, चुनाव आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता
और ईमानदारी की रक्षा, व्यापक राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए संकीर्ण राजनीतिक/चुनावी
फायदे की चिंता से ऊपर सोच, चैनलों का एग्जिट पोल, जनता को जताने के लिए बिना आधार का आंदोलन आंदोलन, बाहुबल, पेड़ न्यूज से हटकर अब धार्मिक अल्पसंख्यक
एक नया ट्रेंड या सोच है। जातिवाद से धर्म का रूपांतरण और जाति से प्रभुत्वशाली जाति
में रूपान्तरण नया राजनीतिक संस्करण है।
मूल समस्या यह है कि राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के दौरान
समाजिक संरचना पर प्रहार करना उचित नहीं है। इसे देश के समाजिक संरचना प्रभावित होती
है समाजिक व्यवस्था पर घातक परिणाम दूरगामी होते हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच लिंगायत और वीरशैव लिंगायत समुदाय
को अलग धर्म का दर्जा देने जैसे मुद्दे एक गलत राजनीतिक संकेत है। प्रतीकात्मक रूप
से इस प्रकार के परम्परा से राष्ट्र कमजोर होता है। कमजोर राष्ट्र का प्रधानमंत्री
भाजपा या कांग्रेस या अन्य दल से हो भी एक कमजोर राष्ट्र का ही प्रतिनिधित्व करेगा। लिंगायत और वीरशैव लिंगायत को धार्मिक अल्पसंख्यकों
का दर्जा देने के कदम को मैं विखंडित संस्कृति
से जोड़ता हूँ। विखंडन हमेशा सांस्कृतिक रूप से समाजिक विभाजन को बढ़ाती है जिससे समाजिक
एकीकरण सम्भव नहीं हो पाता है। वाला बताया
है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मगंलवार को अपने कर्नाटक दौरे के दौरान यह बातें कही।
भारत के अन्य इलाकों की तरह कर्नाटक में भी चुनाव जातिगत
आधार पर लड़ा जा रहा है। राज्य में दो जातियों का काफी दबदबा रहा है- लिंगायत और वोक्कालिगा।
दोनों ही मजबूत कृषक समुदाय हैं। जहां लिंगायत राज्य के उत्तरी इलाके में बड़ी संख्या
में हैं, तो वहीं वोक्कालिगा पूर्व मैसूर राज्य वाले इलाके में बसे हुए हैं। यह अब
दक्षिण कर्नाटक का हिस्सा है। आबादी के लिहाज से लिंगायत बड़ी जाति है, जिसके बारे में
कहा जाता है कि वह राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत है, जबकि वोक्कालिगा 15 फीसदी
है। कर्नाटक में दलित आबादी 23 प्रतिशत और मुसलमान 10 प्रतिशत हैं, बाकी छोटे धार्मिक
समुदायों व उप-जातियों की आबादी है। मसलन, सिद्धरमैया कुरबा जाति के हैं, जो उत्तर
भारत की अहीर जाति जैसी है। उनकी आबादी लगभग आठ प्रतिशत है।[1] एम.एन. श्रीनिवास का मानना है - वोक्कालिगा स्थानीय और
राज्य स्तर भूमि पर प्रभुत्व होने के कारण
कर्नाटक (विशेष रूप से राज्य के दक्षिणी हिस्से में) दक्षिण में किसी भी अन्य
क्षेत्र की तुलना में ज्यादा ताकतवर है। वोक्कालिंगा
और लिंगायत एक शक्तिशाली समुदाय है इससे इंकार नहीं किया जा कसता है। कर्नाटक के ऊपर
विशेष रूप से कूर्ग का अध्ययन आज भी प्रासंगिक है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली ने कर्नाटक चुनाव
की मतगणना के दौरान रुझानों में बीजेपी की बढ़त को 'निराशाजनक' करार देते हुए कहा कि
कांग्रेस पार्टी 'गलत जातिगत मैनेजमेंट' की वजह से हार की तरफ बढ़ रही है। मोइली ने
कहा कि कांग्रेस पार्टी को चुनाव से पहले लिंगायत मुद्दा नहीं उठाना चाहिए था। मोइली ने कहा, 'कर्नाटक का परिणाम थोड़ा निराशाजनक
है। अगर कांग्रेस ने विकास या फिर सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनाव लड़ा होता तो जीत
हासिल हो सकती थी। मुझे लगता है कि कांग्रेस ने कर्नाटक में जातिगत मैनेजमेंट का जो
दांव खेला, वो उल्टा पड़ गया। इसका रोल काफी महत्वपूर्ण है। बीजेपी के निगेटिव कैम्पेन
के आगे कांग्रेस का पॉजिटिव कैम्पेन हार गया।' उन्होंने कहा, 'बीजेपी की तरफ से पीएम
मोदी और अमित शाह ने विकास का मुद्दा उठाया। लेकिन हम इस बात को समझ नहीं सके। हम जाति
के गणित को भी सही से मैनेज नहीं कर सके। लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने
का प्रस्ताव पारित करने को लेकर पार्टी के कई सदस्यों की सहमति नहीं थी। हमें लगता
है कि लिंगायत और वोक्कालिगा के मसले को हम सही से संभाल नहीं सके।'[2] समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास का मानना है कि भारतीय
राजनीति में जातियों का बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र के लिए घातक है। वहीं अमेरिकी राजनीतिज्ञों
आई. रुडोल्फ और एस. एच. रुडोल्फ का मानना है
कि राजनीतिक प्रक्रिया के विकास के लिए यह बहुत जरूरी है। अमेरिकी राजनीतिज्ञों ने
अपनी किताब ‘मॉडर्निटी एंड ट्रेडिसन’ में लिखा कि भारत में जातिगत
राजनीति की वजह से सामाजिक समूहों के बीच श्रेष्ठता की दौड़ कम हुई है और इसकी वजह
से विभिन्न जातियों के लोगों के बीच राजनीतिक समानता आई है। जातियों के गणित में अनपढ़
मतदाता भी निपुण होते हैं और इसे आधार बना कर विभिन्न दलों के लिए चुनाव विश्लेषक सियासी
गणित का हिसाब लगाते हैं, ताकि ये दल उनका इस्तेमाल कर सकें। कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल 28.05.2018 को समाप्त हुआ और 15.05.2018 को रिजल्ट आया। कर्नाटक विधानसभा के मौजूदा कार्यकाल के समाप्त होने से पहले ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 172 (1) और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 15 के साथ अनुच्छेद 324 के तहत कर्तव्यों और कार्यवाही के अंतर्गत भारतीय चुनाव आयोग को नई विधानसभा के गठन की आवश्यकता है।[3] केंद्रीय मंत्रिमंडल
फेरबदल के पीछे क्या उद्देश्य है ये जानकारी तो नहीं है लेकिन ठीक कर्नाटक चुनाव से पहले शायद इसमें कई तथ्य जरूर छुपे हैं। ये प्रश्न इसीलिए वाजिब है है कि सुषमा स्वराज और
अरुण जेटली के कारणों में समानता और दोनों के प्रभाव में अंतर शायद सोचने पर मजबूर करता है।
कपड़ा मंत्रालय को भी एक पूर्णकालीन मंत्री जिनसे अन्य प्रभार लिए गए। शायद इससे मंत्रालय मजबूत होगा।
संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन आदेश- 2008 के अनुसार कर्नाटक राज्य में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की कुल संख्या इस प्रकार है जिसका विवरण निम्नलिखित हैः-
राज्य
|
विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र की कुल सीटें
|
अनुसूचित जाति(एससी) के सुरक्षित सीट
|
अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सुरक्षित सीट
|
कर्नाटक
|
224
|
36
|
15
|
Source:
Press Information Bureau, the Nodal agency for communicating to media on behalf
of Government of India.
आगामी संसदीय चुनाव शायद गठबंधन का सरकार होगा और समीकरण में जाति और विकास दोनों का मिलावट से ही कोई परिणाम आएगा। कर्नाटक का चुनाव हों या बिहार विधानसभा - लोकसभा का उपचुनाव से स्पष्ट है कोई भी दल स्पष्ट बहुमत में नहीं आने वाला है। इसके पीछे कई कारण हैं जिस पर
समाजशास्त्रीय विश्लेषण होना चाहिए। मेरा स्पष्ट मानना था इस बार एग्जिट पोल गलत होगा क्यूंकि हमेशा ट्रेंड एकसमान नहीं होता है और आर्म चेयर का विशेलषण भी सटीक हों ऐसा भी नहीं है। भास्कर अख़बार अपने विश्लेषण
में कहा है – “लोकसभा चुनाव में तो कर्नाटक का कोई खास असर नहीं होगा। हां ! जहां जिस
पार्टी की सरकार होती है, वहां उसे अमूमन लोकसभा सीटें भी ज्यादा मिल जाती हैं। लेकिन
राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में जहां अधिकतम सीटें भाजपा के पास
हैं, वहां नुकसान तो तय है। भाजपा इस नुकसान को कितना कम कर पाती है, यही उसकी काबिलियत
होगी।“
कर्नाटक राज्य
में
सभी
विधानसभा
निर्वाचन
क्षेत्रों
के
मौजूदा
मतदाता
सूची
को
संशोधित
किया
गया
है। 01.01.2018 को
सूची
को
संशोधित
किया
गया। कर्नाटक
की
मतदाता
सूची
का
अंतिम
प्रकाशन
28.02.2018 को किया
गया
है।
अंतिम
मतदाता
सूची
के
अनुसार, राज्य
में
निर्वाचकों
की
संख्या
इस
प्रकार
है:
राज्य
|
निर्वाचक मतदाता सूची के अनुसार कुल मतदाताओं की संख्या
|
अंतिम मतदाता सूची के अनुसार कुल मतदाताओं की संख्या
|
कर्नाटक
|
4,90,06,901
(करीब 4.90 करोड़)
|
4,96,82,357
(करीब 4.968 करोड़)
|
Source:
Press Information Bureau, the Nodal agency for communicating to media on behalf
of Government of India.
कर्नाटक के मतदान केंद्रों की संख्या इस प्रकार है:
राज्य
|
2013 में मतदान केंद्रों की संख्या
|
2018 में मतदान केंद्रों की संख्या
|
वृद्धि (% में)
|
कर्नाटक
|
52,034
|
56,696
|
9%
|
Source: Press Information Bureau, the
Nodal agency for communicating to media on behalf of Government of India.
Serial
No.
|
Name
of Party
|
Seats
|
Voting
Percentage
|
01.
|
BJP
|
104
|
46.4
|
02.
|
INC
|
78
|
34.8
|
03.
|
JD(S)
|
38
|
16.5
|
04.
|
OTHER
|
02
|
NA
|
Source: ECI via Nielsen.
उपर्युक्त डाटा से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वोट प्रतिशत में भाजपा का वृद्धि हुआ है। गठबंधन का परिणाम से सरकार बनेगी लेकिन कर्नाटक में यहीं जनाधार भाजपा रख पाएगी ? गठबंधन के गांठ भी कई बार फायदा और नुकसान दिलाता है।
जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ मुहीम कमजोर हों ऐसा नहीं है लेकिन कर्नाटक में तो अलग धर्म का निर्माण एक समस्या है समाधान - ठीक से कहा नहीं जा सकता क्यूंकि धर्म और जाति से चुनाव जीतना होता है, ये सत्य है। शिक्षा में एक समान स्कूल प्रणाली और समान पाठ्यक्रम के लिए अगर आंदोलन हों तो चंदा जुटाना भी मुश्किल होगा। यहीं भारतीय समाज है जहाँ पहचान बनते - बनते पहचान कब मिट गयी ये तो विदेशो द्वारा किये गए आक्रमण से ही पता चलता है। अंग्रेजों के सामने सर झुकाने का गर्व और अपने समाज को सिर्फ बराबरी का दर्जा नहीं देने का शर्म आजतक पता नहीं चल पाया है।
सवाल
ये उठता है कि लिंगायत[4] कौन
होते हैं, और ऐसी क्या बात है जो जिसकी वजह से इस समुदाय की राजनीतिक तौर पर इतनी अहमियत
है । बारहवीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना (उन्हें भगवान बासवेश्वरा भी कहा जाता है)
ने हिंदू जाति व्यवस्था में दमन के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ा. उन्होंने वेदों को ख़ारिज
किया और वे मूर्तिपूजा के ख़िलाफ़ थे। लिंगायत
हिंदुओं के भगवान शिव की पूजा नहीं करते लेकिन अपने शरीर पर इष्टलिंग धारण करते हैं
। ये अंडे के आकार की गेंदनुमा आकृति होती
है जिसे वे धागे से अपने शरीर पर बांधते हैं. लिंगायत इस इष्टलिंग को आंतरिक चेतना
का प्रतीक मानते हैं। आम मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही लोग होते हैं । लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते । उनका मानना
है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था। वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लिंगायत भगवान शिव की पूजा
नहीं करते लेकिन भीमन्ना खांद्रे जैसे लोग ज़ोर देकर कहते हैं - "ये कुछ ऐसा ही जैसे इंडिया भारत है और भारत
इंडिया है. वीरशैव और लिंगायतों में कोई अंतर नहीं है। " भीमन्ना ऑल इंडिया वीरशैव
महासभा के अध्यक्ष पद पर 10 साल से भी ज़्यादा अर्से तक रहे हैं। इस विरोधाभास की वजहें
भी हैं। बासवन्ना ने जो अपने प्रवचनों के सहारे
जो समाजिक मूल्य दिए, अब वे बदल गए हैं। हिंदू
धर्म की जिस जाति व्यवस्था का विरोध किया गया था, वो लिंगायत समाज में पैदा हो गया । रहूम डॉक्टर एम
एम कलबुर्गी लिंगायत थे और उन्होंने समाज में जाति व्यवस्था का विरोध करने के लिए पुरजोर
अभियान चलाया था। बासवन्ना का अनुयायी बनने के लिए जिन लोगों ने कन्वर्जन किया, वे
बनजिगा लिंगायत कहे गए । वे पहले बनजिगा[5] कहे
जाते थे और ज़्यादातर कारोबार करते थे। लिंगायत
समाज अंतरर्जातीय विवाहों को मान्यता नहीं देता, हालांकि बासवन्ना ने ठीक इसके उलट
बात कही थी। लिंगायत समाज में स्वामी जी (पुरोहित
वर्ग) की स्थिति वैसी ही हो गई जैसी बासवन्ना के समय ब्राह्मणों की थी। सामाजिक रूप
से लिंगायत उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में गिनी जाती है। राज्य के दक्षिणी हिस्से में भी लिंगायत लोग रहते
हैं। सत्तर के दशक तक लिंगायत दूसरी खेतीहर जाति वोक्कालिगा
लोगों के साथ सत्ता में बंटवारा करते रहे थे । वोक्कालिगा दक्षिणी कर्नाटक की एक प्रभावशाली
जाति है। देवराज उर्स ने लिंगायत और वोक्कालिगा लोगों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़
दिया। अन्य पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और
दलितों को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर देवराज उर्स 1972 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने।
अस्सी के दशक की शुरुआत में लिंगायतों ने रामकृष्ण हेगड़े पर भरोसा जताया। जब लोगों को लगा कि जनता दल राज्य को स्थायी सरकार
देने में नाकाम हो रही है, तो लिंगायतों ने अपनी राजनीतिक वफादारी वीरेंद्र पाटिल की
तरफ़ कर लिया। पाटिल 1989 में कांग्रेस को
सत्ता में दुबारा आये, लेकिन वीरेंद्र पाटिल
को राजीव गांधी ने एयरपोर्ट पर ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया और इसके बाद लिंगायतों
ने कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया। रामकृष्ण हेगड़े
लिंगायतों के एक महत्वपूर्ण चेहरा के र्रोप में उभरे। हेगड़े से लिंगायतों का लगाव तब भी बना रहा जब
वे जनता दल से अलग होकर जनता दल यूनाइटेड में आ गए। हेगड़े की वजह से ही लोकसभा चुनावों में लिंगायतों
के वोट भारतीय जनता पार्टी को मिले और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी।
रामकृष्ण हेगड़े के निधन के बाद लिंगायतों ने बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता चुना और
2008 में वे सत्ता में आए। जब येदियुरप्पा
को कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो लिंगायतों ने 2013 के विधानसभा चुनावों
में बीजेपी की हार से अपना बदला लिया। आगामी
विधानसभा चुनावों में येदियुरप्पा को एक बार फिर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित
करने की यही वजह है कि लिंगायत समाज में उनका मजबूत जनाधार है। लेकिन लिंगायतों के लिए अलग धार्मिक पहचान की मांग
उठने से राज्य में येदियुरप्पा के जनाधार को तोड़ने के लिए कांग्रेस को एक मौक़ा मिल
गया है।[6] जनाधार
को ख़त्म करने लिए क्या अलग धर्म ही एकमात्र उपाय बचा है ? धर्म और राजनीति के खेल से
सत्ता मिल सकती है तो समाजिक अलगाव और संघर्ष का जिम्मेदार कौन होगा ?
भारतीय राजनीति में पिछड़ा और अल्पसंख्यक बनने का होड़ चल
पड़ा है। जाति, उपजाति, गोत्र से समाजिक गतिशीलता इस कदर बढ़ रही है कि नया धर्म का चलन
प्रारम्भ होना समाजिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है। यह समानता और भाईचारे नहीं बल्कि
राजनीति आधारित जन चेतना का नकारात्मक स्वरूप है। जैन संप्रदाय को अल्पसंख्यक समुदाय
का दर्जा मिलने में लगभग सौ साल लगा था। भारत
में लोकतंत्र को मजबूत करने के ख्याल से एकीकरण
लाना होगा जिससे अनेकता के स्थान पर एकता हों। भले ही इसमें समय लगेगा क्यूंकि मानसिकता
के निर्माण समाजीकरण का असर आसानी से नहीं जाता है। लेकिन परिवर्तन न हों ऐसा भी नहीं
है। लेकिन को तात्कालिक फायदे के लिए तोरना बिल्कुल भी सही नहीं है। भारत में गरीबी
और कुपोषण के रहते राष्ट्रवाद का विकास आसानी हों जाये - ये इतना भी आसान नहीं है।
जब सरकारी दफ्तर में एक सरकारी बाबू द्वारा जलेबी बनाने की आदत तो गयी नहीं है। आम
इंसान का समस्या सियासी नहीं बल्कि रोजमर्रे के जीवन में नौकरी, भोजन, कोर्ट का मुकदमा,
जमीन पर कब्जा न हों इसके संघर्ष, स्कूल में नामांकन का संघर्ष, महिला हिंसा घर न हों
आदि -आदि इतने जाल हैं कि वो क्या समझें राष्ट्रवाद है ? जमीन पर लोकतंत्र आने में
अभी भी वक्त लगेगा क्यूंकि पैरवी संस्कृति, परिवारकेंद्रित सोच और मनोरंजन से उबरने
में अभी काफी समय लगेगा। बचा समय आलोचना, ईर्ष्या और घृणा में भी लगाना होता है। इससे
भी समय बच जाएँ तो कानाफूसी और स्वंय से घृणा - दूसरों के तरक्की से परेशानी के परेशान
होने बाद समय कहाँ बच पाता होगा ?
लिंगायत द्वारा अलग धर्म बनाने का मांग से कुछ अन्य समुदायों
पर भी विचार करना होगा। आजतक के रिपोर्ट का उल्लेख जरूरी है जिसमें वैदिक ब्राह्मणों
द्वारा अल्पसंख्यकों का दर्जा अल्पसंख्यक आयोग
से माँगा गया। आयोग स्पष्ट रूप से कहा है - वैदिक ब्राह्मण समुदाय को नहीं अल्पसंख्यकों
का दर्जा नहीं मिलेगा। हिंदू समुदाय या धर्म से जुड़े वैदिक ब्राह्मण से एक नया चलन प्रारम्भ
होगा। आयोग इसके अलावे सिंधियों को भी अल्पसंख्यक
दर्जा देने के पक्ष में नहीं है। आयोग ने यह
भी कहा कि अगर सरकार विश्व ब्राह्मण संगठन और पूर्वोत्तर बहुभाषीय ब्राह्मण महासभा
का अनुरोध स्वीकार कर लेती है तो राजपूत, वैश्य जैसी अन्य जातियां भी इसी तरह की मांग
करने लगेंगी जिससे हिन्दू समुदाय में ‘‘कई अनुचित विखंडन हो जाएंगे।’’ आयोग ने अपनी सालाना रिपोर्ट
2016-17 में कहा कि वैदिक ब्राह्मण हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं। सिर्फ यह दावा करने से कि वैदिक ब्राह्मण थोड़े
ही हैं, यानि संख्या बल से कम है। इससे सरकार को उन्हें अल्पसंख्यक घोषित नहीं करना देना
चाहिए। आयोग ने यह भी कहा कि समुदाय यह भी
दावा करते हैं वे अपनी परंपरा और संस्कृति के सरंक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं, जिससे
अल्पसंख्यक का दर्जा मांगने के उनके दावे में दम नहीं आ जाता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक,
यूनेस्को वेद और वैदिक संस्कृति के संरक्षण का अनुरोध कर रहा है। यह भी उन्हें पृथक अल्पसंख्यक घोषित करने के मामले
का समर्थन नहीं करता है। आयोग के मुताबिक,
अगर सरकार ब्राह्मण संगठनों की मांग को स्वीकार कर लेती है तो अन्य जातियां भी इसी
तरह की मांग करने लगेंगी। आयोग ने कहा, ‘‘
आयोग को वैदिक ब्राह्मणों को पृथक अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने का कोई आधार नहीं मिला।
’’ सिंधियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने की मांग पर आयोग ने कहा कि समुदाय
के सदस्यों ने मुख्य तौर पर ‘भाषायी अल्पसंख्यक’
के आधार पर अपना दावा किया है। आयोग के मुताबिक,‘‘ सिंधियों का यह कहना नहीं है कि
देश के अलग अलग हिस्सों में रहने वाले सिंधी हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं हैं। ’’ आयोग
ने अल्पसंख्यक के दर्जे की सिंधियों की मांग पर कहा समुदाय का दावा मुख्य तौर पर इस
आधार पर आधारित है कि वह ‘‘भाषायी तौर पर अल्पसंख्यक’’ हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम
1992 सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों से संबंधित है। आयोग ने कहा कि इसलिए आयोग को उन्हें
अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने के लिए कोई आधार नहीं मिला। सूत्रों ने बताया कि रिपोर्ट अभी संसद में रखी जानी
है। फिलहाल मुस्लिम, बुद्ध, ईसाई, सिख, पारसी
और जैन अल्पसंख्यक समुदाय हैं।[7]
जाति का राजनीतिकरण और राजनीति का जातिकरण
आधुनिकीकरण
होकर धर्म निर्माण के ख्याल से एक नया प्रयोग हो रहा है।
जाति से राष्ट्रीय एकता अनेकता में परिवर्तित होती है मगर इसके पीछे सामूहिकता का अभाव भी है। पूर्वाग्रह और भेदभाव के गर्भ से जन्म लिया है जाति, और इसमें नशे से मदहोश होने के लिए सीढ़ी के समान स्तरीकरण है। हर कोई अपने से नीचे - ऊपर खोज सकता है और परिवर्तन भी कर सकता है। पहचान बदलेगी या नहीं ये कहा नहीं जा सकता। हिंसक समाज में भय से परिवर्तन भी कोई कर सकता है ये भी नई कहानी है।
सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव
का निर्माण करने के लिए समान व्यवहार और समाजिक घमंड को चूर्ण बना कर पीना होगा लेकिन ऐसा हकीकत में सम्भव नहीं है। हमारे देश के समाजिक और राजनीतिक चिंतक
इस संदर्भ में ईमानदारी के स्थान पर पद के संभावना के आधार पर सोचते हैं और
समस्या एवं इससे उत्पन्न अन्य समस्याओं का समाधान भी आने वाले पोस्ट या जाने वाले पोस्ट को देखकर ही करते हैं।
जातीय गौरव को भुलाना और दूसरों को समान भाव से गौरवशाली समझना भारतीय समाज के लिए अति आवश्यक है और मानव मात्र को ही
प्रथा बना देना आज का जरूरत है। लिखने में सही लगता है लेकिन हकीकत में ये सम्भव दिखाई भी नहीं देता है। आत्म-सम्मान से वंचित होने का दर्द और आत्मसम्मान छीन लेने का स्वतन्त्रता एक बृहत समाज का उद्देश्य है। देश मे लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में पुत्रमोह या परिवारमोह के आगे सबको जला दिया सकता है और अंत में खुद भी जलना ही तो सच्चाई है। जातिवाद समाप्त हो गया है ऐसा कहा जा है क्यूंकि जाति व्यवस्था मजबूत हो गयी है।
देश में शिक्षा और आर्थिक हितों का संघर्ष नहीं हो सकता लेकिन जाति और जमात पर जान देकर भी खुश रहना आज का सच्चाई है। विज्ञान और तकनीकि का विकास रूक जाएँ लेकिन जाति शक्ति का उदय नहीं रूकें । प्रतिनिधि व्यवस्था में कुछ परिवारों के प्रतिनिधित्व से ही आरक्षण हों या संरक्षण हों या सत्ता अब
सीमित हो चुकी है। प्रतिष्ठा और पद
से श्रेष्ठ होना और इससे बाहर आज विरोधाभासी है। जैसे कोई पद
मिला दिमाग गर्म हो जाता है शीतलता गायब। जहाँ सत्ता या पद से बाहर हुआ वैसे ही मानवता
से मनवा अधिकार पर परिचर्चा प्रारम्भ होती है वो भी मस्तिष्क झुकाकर। उच्च, मध्यम और निम्न प्रभाव में वृद्धि और कमी में प्रयत्नशील प्राणी सामने वाले के शक्ति का अंदाजा
लगाकर उचित व्यवहार करते हैं।
[1]
https://www.livehindustan.com/blog/story-s-srinivasan-article-in-hindustan-on-03-april-1883163.html
[2]
https://navbharattimes.indiatimes.com/state/other-states/bangalore/chennai/congress-should-not-have-raised-lingayat-issue-before-polls-veerappa-moily/articleshow/64174019.cms
[3]
http://pib.nic.in/newsite/PrintHindiRelease.aspx?relid=71437
[4]
इस समय के लिंगायत मूर्तिपूजक
नहीं हैं। उनके लिए लिंग पूज्य है और गुरु
भी । मंदिरों में
जाना उनके लिए आवश्यक नहीं है । लिंगायत
में दो श्रेणी है
जंगम और अन्य। जाति
प्रथा में विश्वास बिलकुल भी नहीं है।
(Bharat
ke Gaurav (Part -2) By Publications Division Published by Publications Division
Ministry of Information & Broadcasting)
[5]
बनजिगा – एक कन्नड़ वैश्य जाति जो तेलुगु बालिजा का एक रूप है । बनिया – व्यापारियों, महाजनीपेशावालों, दुकानदारों और अन्य वैश्य जातियों के लिए विशेषकर राजस्थान और पश्चिम भारत में प्रयुक्त एक शब्द। (J.H. Hattan, Mangalnath Singh (2007) Bharat Mein Jatipratha (Swarup,
Karma, Aur Uttpati) By J.H.
Hattan, Mangalnath Singh, pp – 288)
[6]
https://www.bbc.com/hindi/india-40725185
[7]
https://aajtak.intoday.in/story/national-minority-commission-not-to-give-minority-status-for-vaidik-brahaman-samuday-1-977634.html
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