स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकसभा और विधानसभा का चुनाव 1967 तक एक ही साथ होते रहे। मगर 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं को भंग कर दिया जिससे एक साथ चुनाव होने का सिलसिला टूट गया। इसके पश्चात 1970 में
लोकसभा भी भंग हो गयी। जिससे यह क्रम पूरी तरह से टूट गया। लोकसभा व विधानसभा चुनाव भारत में एक साथ चुनाव कराने की मांग सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी ने रखी थी। उनकी बात का समर्थन एच. एस. ब्रह्म ने भी किया था। उनका मानना था कि इससे सरकार के खर्चे में कमी आएगी तथा प्रशासनिक कार्यकुशलता में भी बढ़ोतरी होगी। भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का मानना है कि बार -बार चुनाव कराने से सरकार का सामान्य कामकाज ठहर-सा जाता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में नवंबर 2013 में विधानसभा चुनाव हुए,फिर लोकसभा चुनाव के कारण आदर्श आचार संहिता लग गई। इसके तुरंत बाद नगरीय निकाय के चुनाव कराए गए और फिर पंचायत चुनाव। इन चुनावों के चलते 18 महीनों में से नौ महीने तक आदर्श आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज कमोबेश ठप सा रहा।चुनाव एक साथ कराने से समय की बचत होगी। तथा इस समय को राजनीतिक आरोप -प्रत्यारोप के बजाय उत्पादक कार्यों में लगाया जा सकेगा।[1]
मेरा मानना है कि भारत में 29 राज्य और सात केंद्र शासित
प्रदेश है। कहीं न कहीं चुनाव होने से खर्च ही नहीं बल्कि सामान्य काम - काज भी बाधित
होता है। ऐसे परिस्थिति में एक साथ चुनाव कराने
का विचार ही उचित है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने से हर
वर्ष गुटबंदी और अराजकता के माहौल पर लगाम लग सकेगा। भारत विविधताओं का देश है जहाँ
भाषा - बोली, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, बढ़ती आबादी के साथ जूझना पड़ता है।
जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, बाहुबल और भ्रष्टाचार
चुनावी राजनीति में जड़ें जमा चुकीं है। मतदाताओं
का विभाजन का आधार भी जाति, धर्म, क्षेत्र और संकीर्ण मुद्दों पर ही होता है जिससे
इंकार नहीं किया जा सकता है। इरविंग गॉफमैन ने अपनी पुस्तक " प्रेजेंटेशन ऑफ सेल्फ इन एवरी डे लाइफ
" में सही ही कहा है कि सामने का मंच पर जो बातें मनुष्य करता है वो पीठ पीछे
नहीं करता है। समाजिक जीवन भी एक नाटकीय जीवन ही है जो समय के अनुसार सच बोलते हैं।
भारतीय समाज का अभी वो काल नहीं आया है जब कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से बिना
जाति जानें खुलकर बात करें। समाजिक अंतःक्रिया यानि बातचीत के भी कई स्तर हैं जिनमें
स्व - समुदाय के भीतर बातचीत और स्व - समुदाय के बाहर बातचीत भी शामिल है। इतना ही
नहीं शक्तिशाली और शक्तिविहीन के बीच बातचीत का पैटर्न ही पलट जाता है। ऐसे समाज में
एक बार में लोकसभा और विधानसभा का चुनाव होना जरूरी है क्यूंकि विरोधाभास और दुविधा
के गति को इसे थोड़ी राहत मिलेगी।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक हालिया इंटरव्यू में इस बात को और भी साफ़ कर दिया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि चुनावों को त्योहार खासकर होली की तरह होना चाहिए। यानी आप उस दिन किसी पर रंग या कीचड़ फेंके और अगली बार तक के लिए भूल जाएं। देश हमेशा इलेक्शन मोड में रहता है। एक चुनाव - खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है। मेरा विचार है कि देश में एक साथ यानी 5 साल में एक बार संसदीय, विधानसभा, सिविक और पंचायत चुनाव होने चाहिए। एक महीने में ही सारे चुनाव निपटा लिए जाएं। इससे पैसा, संसाधन, मैनपावर तो बचेगा ही, साथ ही सिक्युरिटी फोर्स, ब्यूरोक्रेसी और पॉलिटिकल मशीनरी को हर साल चुनाव के लिए 100-200 दिन के लिए इधर से उधर नहीं भेजना पड़ेगा। एकसाथ चुनाव करा लिए जाते हैं तो देश एक बड़े बोझ से मुक्त हो जाएगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते तो ज्यादा से ज्यादा संसाधन और पैसा खर्च होता रहेगा। 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद देश में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए। 2018 में 8 राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं जबकि 2019 में लोकसभा के चुनाव होने हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या आप एक साथ चुनाव कराने का लक्ष्य हासिल कर लेंगे, प्रधानमंत्री ने कहा कि ये किसी एक पार्टी या एक व्यक्ति का एजेंडा नहीं है। देश के फायदे के लिए सबको मिलकर काम करना होगा। इसके लिए चर्चा होनी चाहिए।[2]
अब समय आ गया है कि दलगत राजनीति को छोड़कर राष्ट्रीय हितों को आगे रखते हुए
विधानसभा और लोकसभा चुनावों को एक साथ कराया जाना चाहिए। यह किसी दल या समूह का बात नहीं है बल्कि यह पुरानी परम्परा का ही पालन है जो काफी उचित भी था। आचार-संहिता कहीं न कहीं विकास-कार्यों में भी अवरोध पैदा करती है और जिससे आर्थिक विकास सुचारू रूप से नहीं चल पाता है। कार्मिक,जन शिकायत व विधि एवं न्याय संबंधी राज्यसभा की स्थायी समिति ने भी अपनी 79 वीं रिपोर्ट में भी लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने के लिए कई सिफारिशें दी थी। जिससे यह स्पष्ट है कि चुनाव सुधार के लिए यह कदम उठाना उचित है।
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