सूत्रों के हवाले से यह जानकारी आयी है अब सरकार सभी जातियों को आर्थिक आरक्षण देने पर विचार कर रही है। 26 July 2018 के आई बी
एन 7 का रिपोर्ट के कुछ अंश इस प्रकार है – “केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सभी जातियों
को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने पर विचार कर रही है। सूत्रों के मुताबिक, सरकार के भीतर सभी जातियों
में आर्थिक रूप से पिछड़े और कमज़ोर तबकों को आरक्षण देने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि ये चर्चा फिलहाल प्रारंभिक स्तर पर शुरू
हुई है। आरक्षण पर कोई भी फैसला लेने से पहले
बड़े स्तर पर सलाह मशविरा किया जाएगा।“[1]
मुझे
याद है कि कांग्रेस पार्टी के जनार्दन द्विवेदी ने भी ठीक लोकसभा चुनाव से ही आरक्षण
पर अपने सोच को स्पष्ट किया था। नव भारत टाइम्स के रिपोर्ट के अनुसार, “एक तरफ कांग्रेस अपनी मैनिफेस्टो में प्राइवेट
सेक्टर में कोटा की बात शामिल कर 2014 के चुनावों में मास्टर स्ट्रोक लगाना चाहती है,
तो दूसरी तरफ उसके नेता वर्तमान में चल रही जातिगत रिजर्वेशन के विरोध में बोल रहे
हैं। यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के करीबी और कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी
ने जाति के आधार पर रिजर्वेशन को समाप्त करने की मांग की है। उन्होंने राहुल गांधी
से सभी समुदायों को इसके दायरे में लाते हुए आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए कोटा
लागू करने का अनुरोध किया है।“[2]
मेरा मानना है यह सही समय है क्यूंकि चुनाव ही लोकतंत्र का आधार है। सरकार बनने के बाद आरक्षण को विवाद के घेरे में लाया जाता है, जो उचित नहीं है। सभी दलों को आरक्षण के सभी मुद्दों पर गुमराह करने के स्थान पर अपना रूख स्पष्ट करना चाहिए। नागरिक समाज के लोगों के द्वारा भी इस पर बहस हों जिससे सही और वास्तविक तथ्यों का आंकड़ा के अलावे समाजिक स्तर पर न्याय के अवधारणा पर पुनर्विचार हों सकें। आरक्षित वर्गों को आरक्षण देगें या नहीं देगें, यह मुद्दा तो बिल्कुल ही छोटा है बल्कि प्रश्न यह है कि आरक्षित वर्गों को आरक्षण देकर समाजिक रूप से कलंकित करना उस समुदाय के मानवीय गरिमा के भी विरुद्ध है। वोट बैंक के मुद्दे से हटकर समाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखकर और पूर्वाग्रह को छोड़कर न्याय पूर्ण बहस से ही समाजिक एकीकरण सम्भव है।
जनार्दन द्विवेदी की जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने का विचार हों या केंद्र सरकार द्वारा सभी जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की चर्चा हों, लेकिन मेरा प्रश्न है कि नीतिगत फैसला लेने का कार्य तो सरकार का ही है लेकिन इसे डराने और गुमराह करने के स्थान पर समय के अनुसार इस नीति विखंडन हों। जब सरकारी नौकरी खत्म हो रहीं तो आरक्षण स्वतः ही शनैः - शनैः समाप्त ही हो जायेगा लेकिन इसे ठीक चुनाव के सामने मुद्दा उठाकर और दबा देना समाजिक एकता और अखंडता के लिए खतरनाक घंटी है।
जनादेश को अगर वास्तव में जनता ही तय करती है तो अब इसे जनता के सम्मुख उठाना चाहिए और उस फैसले का सम्मान भी करना होगा। पांच सौ पैतालीस का निकाय अंतिम रूप से जनता द्वारा ही निर्वाचित होता है तो क्यों न आरक्षण खत्म करने का मुद्दा राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र में ही शामिल हो जाएँ। कोई भी नेता या अन्य लोगों के द्वारा आरक्षण पर बयान दिया जाना अब समय और परिस्थितियों के बीच का खेल ही लगता है। एक समुदाय को खुश करने लिए विरोध और दूसरे समुदाय को समर्थन पाने के लिए समर्थन सही नहीं है क्यूंकि वास्तव में यह फूट डालो और राज करो के नीति के समान है जो राष्ट्रवाद को कमजोर करता है।
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