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एक जिंदगी : स्वर्गीय भोला पासवान शास्त्री


जब पूरा विश्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध एकजुट हो रहा है वैसे परिदृश्य में स्वर्गीय भोला पासवान शास्त्री को याद करना स्वाभाविक है। कुछ दिन पहले पूरे बिहार में उनका जयंती लोगों ने बड़ी धूमधाम से मनाया। इसी संदर्भ में मैंने सोचा उनके जीवन के उन पहलूओं पर प्रकश डाला जायें जिससे अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं।

राज्य सभा में पहले अनुसूचित जाति से बनने वाले प्रतिपक्ष के नेता, बिहार राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के पहले अध्यक्ष के साथ - साथ दो बार केंद्रीय मंत्री भी थे।
जब राजनीति में पूँजी का महत्व बढ़ता जा रहा है, यह सोचने के लिए पूरे भारतीय समाज को मजबूर होना पड़ेगा क्यूँकि शास्त्री जी झोपड़ी वाले मकान से निकलकर उसी मकान में अंतिम साँस लेकर इस दुनिया से चले गए।
उनके  जयंती पर आज यह कहना बिलकुल सही होगा स्वार्थविहीन, लोक कल्याण, मानव अधिकारों, सादगी और सच्चाई आज के राजनीति को नहीं उस राह पर चले की आवश्यकता है।

एक तरफ प्रथम विश्व युद्ध से अशांति और हिंसा   का वातावरण था, दूसरी तरफ पूर्णिया जिले के काझा कोठी के पास बैरगाछी  ग्राम में शांति और अहिंसा के दूत भोला पासवान शास्त्री का जन्म 21 सितम्बर 1914 को हुआ था।  यह भी अजीब संयोग है सितम्बर महीने के  तारीख 1984  को इस दुनिया से सदा के लिए विदा ले लिये।

स्व0 शास्त्री की छवि राज्य और केंद्र दोनों में ईमानदार, कर्मठ और योग्य रहा है।   शास्त्री स्वतंत्रता  के पहले और बाद  विधान सभा के सदस्य एवं लगातार डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह  के मंत्रिमंडल में कैबनेट मंत्री के रूप में कई सालों तक बिहार के उत्थान और विकास  के लिए कार्य किया।  इन्दिरा गांधी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री के रूप में  कार्य किया और अब उनका परिवार इंदिरा आवास में रहता है। उनके द्वारा किये गए कार्यों  ईमानदारी को आज भी पूरे देश में याद किया जाता है। सरकारी बंगला के स्थान पर  दिल्ली के वेस्ट्रन कोर्ट के एक कमरा में रह कर मंत्री के रूप में कार्य किया और समाज के सभी वर्गो के कल्याण के लिए कार्य करते रहे।
शास्त्री जी के परिवार के पास  कुल मिलाकर 6 डिसमिल जमीन थी।  उसमें भी बड़ा हिस्सा इनलोगों ने सरकार को सामुदायिक केंद्र बनाने के लिए दे दिया है। अभी इनका परिवार गरीबी में जी रहा है। श्रम मंत्री का परिवार श्रमिक हों, ये भी ईमानदारी का दूर पहलू है। पूरे स्थिति को सोचने पर पुर्विचार भी करना पड़ता है क्यूँकि वर्तमान राजनीति से बुल्कुल मेल नहीं खा रहा है।

21 सितम्बर  आते ही जयंती प्रारम्भ होती है और  दलितों के चेतना पर चर्चा शुरू हो जाती है। एक यक्षप्रश्न यह है की क्या उनके विचारों पर अब कोई चलना चाहेगा ? इस प्रश्न का उत्तर भी पाठकों के विवेक पर ही छोड़ना उचित समहता हूँ। उनके खाते में बिल्कुल भी पैसे नहीं थे, इस बात की जानकारी तब चलीं जब इस दुनिया को छोड़ गए थे। उनके मृत्यु के बाद पूर्णिया के तत्कालीन जिलाधीश ने इनका श्राद्ध कर्म करवाया था।  ऐसे व्यक्ति का जीवन भी नेपथ्य में चला गया।




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