पुण्यतिथि विशेष: 'हमारा देश, हमारा राज' की भावना का अनुसरण करने वाले बिरसा मुंडा
मृत्युंजय कुमार
छोटानागपुर का इलाका उलिहातू झारखण्ड राज्य में स्थित है। यह वहीं जगह है जहाँ क्रन्तिकारी और वीर सपूत
09 जून 1875 को को भगवान बिरसा मुंडा अवतरित हुए थे।
जन्म तिथि
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15 नवम्बर 1875
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पिताजी का नाम
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सुगना मुंडा
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माताजी का नाम
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करमी हातू
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नारा
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‘आबुआ राज सेतेर जना, महारानी राज तुंडु जना’
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प्रमुख आंदोलन
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उलगुलान[1]
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मृत्यु
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09
जून 1900
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मेरे विचार से मात्र 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा के समझ को देखें तो यह आश्चर्य ही है कि समाज को उन्होंने सूक्ष्म तरीके से समझा ही नहीं बल्कि समुदाय को समझाने में भी सफल हुए। एक विचारक समाज सुधारक, समाजिक दर्शन और समाज सुधार के प्रति उनकी सजगता समय से काफी आगे था।
यही कारण है कि समाजिक समस्याओं और स्थानीय कुरीतियों के साथ ही राजनीतिक आंदोलन की के स्वरूप में मानवीय अधिकार को शामिल किया जो उनके विशाल नेतृत्व का ही प्रमाण है।
बिरसा मुंडा के आंदोलन को समझने से पहले पारिवारिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। उनके पिता सुगना मुंडा
गरीब थे। जीवन निर्वाह हेतु वे मजदूरी करते
थे। उन्हें अपना गांव भी छोड़ना पड़ा था और
अपने पुत्र बिरसा अपने मामा के घर भेज दिए।
इसके पीछे का मूल कारण था - उनकी पढ़ाई मे
दिक्कत नहीं हो। यह उनके पिता के दूरदर्शी
सोच का ही परिणाम था। कुछ साल वहां रहने के
बाद बिरसा मुंडा को बेहतर पढ़ाई के लिए चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में भेज दिया गया। वहां नामांकन का आधार ईसाई होना था। इसी कारण उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ा। स्कूल में उनका नाम बिरसा डेविड रख दिया गया था। वहीं पढ़ते हुए बिरसा ने आदिवासियों पर हो रहे जुल्म
और अत्याचार करीब से समझा। उन्हें इस बात का दुःख था कि ब्रिटिश सरकार आदिवासियों की जमीन हथियाना
चाहती है। इनके धार्मिक मामलों में भी दखल
दिया जा रहा है। महज चाल साल की पढ़ाई के बाद 1890 में उन्होंने उस जर्मन स्कूल और
ईसाई मिशिनरी से रिश्ता तोड़ा। उनका परिवार
कोल्हान इलाके मे चल रहे सरदारों के आंदोलन से प्रभावित था। 1893-94 में
पोड़ाहाट के जंगलों में बिरसा मुंडा ने सरदार विद्रोहियों के साथ 1882 मे बने
अंग्रेजों के वन कानून का पुरजोर विरोध किया।
1895 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया। उन्हें 2 साल की सजा हुई।[2]
कुमार सुरेश सिंह[3] द्वारा
रचित पुस्तक बिरसा मुंडा और उनका आन्दोलन में उनके घटनाओं का विस्तार से चर्चा है।
कुमार सुरेश सिंह ने कहा है कि एक ओर अंग्रेज
सरकार मालगुजारी न देने पर झारखंडियों की जमीन
नीलाम कर रही थी , तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार की मिसनरी मिशन उनकी जमीन वापसी करा कर धर्मातरित कर रही थी।[4]
बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ उलगुलान का आह्वान
किया था। शोषकों, ठेकेदारों और अंग्रेजी चाटुकारों
को मार भगाने का आह्वान किया उनके आंदोलन का उद्देश्य था। पुलिस को भगाने की इस घटना से बिरसा मुंडा के नेतृत्व
पर आदिवासियों का विश्वास हुआ। विद्रोह और
आंदोलन की आग धीरे-धीरे पूरे छोटानागपुर में
फैल गई और अन्य आदिवासियों का समूह उसमें शामिल हुआ। कोल लोग भी विद्रोह में शामिल हुए जिससे आंदोलन
जन व्यापक बनता गया। जनमानस को विश्वास होने लगा कि बिरसा मुंडा भगवान के दूत के
रूप में शोषकों से मुक्ति के लिए स्वर्ग से यहां पहुंचे हैं। अब दिकुओं[5] का
राज समाप्त हो जाएगा एवं 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज'[6] कायम
होगा। आदिवासी को यह पूर्ण रूप से विश्वास
हो गया कि यदि वे सरकार के खिलाफ खड़े होंगे, सरकार का विद्रोह करेंगे तो उनका खोया
हुआ राज ही सम्मान भी वापस मिलेगा।
इस हूल[7] ने अंग्रेजी हुकूमत को लाचार किया और 22 अगस्त 1895 अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा को
किसी भी तरह गिरफ्तार करने का निर्णय हुआ।
जिला अधिकारियों ने बिरसा के गिरफ्तारी के संबंध में विचार-विमर्श किया और जिला पुलिस अधीक्षक, जीआरके मेयर्स को दंड प्रक्रिया
संहिता 353 और 505 के तहत बिरसा मुंडा का गिरफ्तारी वारंट का तामिला करने का आदेश दिया
गया था। दूसरे दिन सुबह मेयर्स, बाबु जगमोहन
सिंह तथा बीस सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने चल पड़े। पुलिस पार्टी 8.30 बजे सुबह बंदगांव से निकली एवं
3 बजे शाम को चालकद पहुंची। बिरसा के घर को
उन्होंने चुपके से घेर लिया। एक कमरे में बिरसा
मुंडा आराम से सो रहे थे। काफी मुश्किल से बिरसा
मुंडा को गिरफ्तार किया गया। उन्हें संध्या 4 बजे रांची में डिप्टी कलक्टर के सामने
पेश किया गया। रास्ते में उनके पीछे भीड़ का
जन - सैलाब भी थी। भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। ब्रिटिश अधिकारी को आशंका
थी उग्र भीड़ कोई उपद्रव न कर बैठे लेकिन बिरसा
मुंडा ने भीड़ को समझाया। बिरसा मुंडा के खिलाफ मुकदमा चलाया गया लेकिन मुकदमा चलाने
का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया।
बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में 50/- रुपये का जुर्माना
तथा दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी।
उलगुलान की आग जरूर थम गयीं लेकिन यह चिंगारी बनकर रह गई जो आगे चलकर ज्वालामुखी
का रूप धारण किया। 30 नवम्बर 1897 के दिन बिरसा
को रांची जले से छोड़ दिया गया। 24 दिसम्बर 1899 को 'उलगुलान' पुन: प्रारंभ कर दिया
गया। सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने और रांची
जिले के खूंटी, करी, तोरपा, तमाड़ और बसिया थाना क्षेत्रों में उलगुलान की आग दहक उठी। क्रांतिकारियों ने ईसाईयों की भीड़ और गिरजा घरों
में तीन चलाये। बसिया में ईसाई मिशन पर तीरों की बौछार की गई. इस विद्रोह का मुख्य
केन्द्र बिंदू खूंटी थाना क्षेत्र था। 07 जनवरी
1900 की बैठक के बाद विद्रोही करीब दस बजे दिन में खूंटी के लिए रवाना हो गये। विद्रोहियों ने खूंटी थाना में हमला कर दिया. थाने
में घिरे कांस्टेबलों ने आगे बढ़ते भीड़ पर दो राउंड गोली चलाई पर गोली किसी को नहीं
लगी। इससे बिरसा के अनुयायियों को यह विश्वास
हो गया कि बिरसा की वाणी सत्य है। 9 जनवरी 1900 को डोम्बारी से कुछ दूर सैंको से करीब
तीन मील उत्तर में सईल रैकब पहाड़ी पर विद्रोहियों की सभा हो रही थी तभी सभा में तीन, धनुष, भाला, टांगी, गुलेलों से लैस
बिरसा के अनुयायियों एवं विद्रोहियों के अंदर अंग्रेजों एवं शोषकों के खिलाफ लड़ाई
लडऩे का जज्बा अंतिम चरण में था। तभी पुलिस
पार्टी ने उस सभा के सामने आकर विद्राहियों को आत्म समर्पण एवं हथियार डालने का आदेश
दिया। इतने में ही बिरसा मुंडा का दूसरे सबसे
बड़े भक्त नरसिंह मुंडा सामने आकर ललकारते हुए कहा कि 'हमलोगों का राज है, अंग्रेजों
का नहीं ' , अगर हथियार रख देने का सवाल है तो मुण्डाओं को नहीं, अंग्रेजों को हथियार
रख देना चाहिए। अगर लडऩे की बात है तो वे खून
के आखिरी बूंद तक लडऩे को तैयार हैं। इसी के
बाद अंग्रेजी सेना ने भीड़ पर आक्रमण कर दिया और विद्रोहियों को अंग्रेजों ने क्रुरता
के साथ दमन किया। लेकिन विद्रोहियों ने अंग्रेजों
के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गये। सईल रकब रकब पहाड़ी पर इस आक्रमण में 40 से लेकर
400 की संख्या में मुंडा लोग लड़ाई में मारे गये।
विद्रोहियों पर इस घटना के बाद दमन और तेज हो गया। विद्रोहियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। 03 फरवरी 1900 ई को 500/- रुपये के सरकारी ईनाम
के लालच में जीराकेल गांवों के सात व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे
में अंग्रेजों को बताकर धोखे से पकड़ लिया गया। बिरसा को पैदल ही खूंटी के रास्ते रांची पहुंचा दिया
गया। हजारों की भीड़ ने तथा बिरसा के अनुयायियों
ने बिरसा जिस रास्ते से ले जाया गया उनका अभिवादन किया गया। 1 जून 1900 को डिप्टी कमिश्नर ने ऐलान किया कि बिरसा
मुंडा को हैजा हो गया तथा उनके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं है। अंतत: 9 जून 1900 को बिरसा ने जेल में अंतिम सांस
ली।[8]
जल, जंगल और जमीन का संघर्ष कभी खत्म हो पायेगा या नहीं,
ये तो समय ही तय करेगा। खनिज और जंगल अगर विकास के लिए जरूरी है तो विस्थापन का हल
भी उतना ही जरूरी है। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण और वैश्वीकरण में आदिवासी समाज अनुपयुक्त
हो रहे हैं और संसाधनों पर बैठे हैं लेकिन संसाधनविहीन भी होते ही जा रहे हैं। सामाजिक
परम्पराएं और सांस्कृतिक धरोहर बिना संसाधन
के बच पाना मुश्किल ही लगता है। इस समुदाय से उभरता मध्य वर्ग भी अपना स्वतंत्र पहचान
के चक्कर में सीमांत समाज ही सीमांत इंसान बनता जा रहा है। बिरसा मुंडा के सपनों की
भूमि अब हकीकत का रेगिस्तान ही बन गया है।
[2]
https://hindi.firstpost.com
[3]
कुमार सुरेश सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी
व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
विभाग के महानिदेशक रहे
हैं।
[8]
http://hindubulletin.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
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