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नैतिकता के आयाम

जाल में आया इंसान

मूल्यों के जाल से क्या निकलेगा इंसान

जाल बनाने वाला भी चालाक था

जाल भी किसी के इंतजार में था

नैतिकता के डोर से

जाल को बाँधा गया

मजबूती का पता नहीं

कायरता का अंदाजा भी नहीं

डोर में मूल्य था

डोर को बांधने वाला तो अनजान था

फसने वाला लाचार था

फ़साने वाला होशियार था

कहानी तो पहले से तैयार था

नैतिकता अपनी नानी से पूछा

हमें अब क्या करना है

नानी बोली बेटा

घबराना नहीं इसमें

साथ देने वाला नहीं

हर को तो इन्तजार था

क्यंकि हर किसी को बस इन्तजार था

बारी -बारी सब मुर्गा

हलाल हों या झटका

बेहतरीन स्वाद में

किसी ने कहा फ्राई में

किसी ने कहा टिक्का में

किसी ने कहा ग्रेवी में

स्वाद और नैतिकता लड़ने लगा

मुर्गा बोल ना सका

हर मुर्गे को बस इतना पता था

मेरी बारी कब आएगी

वो जन्म लिया था इंसानों के स्वाद के लिए

नैतिकता रो पड़ा

मुर्गा फिर भी बोल ना सका

ग्राहकों का कतार लम्बा था

हर मुर्गा अब हलाल को तैयार था

उसकी रोने के आवाज से ग्राहक को ख़ुशी मिलने लगी

मीट उसके लिए तैयार था

शाम भी हो रही थी

कितना खराब जमाना है

दस बजे के पहले ही मुर्गा एक साथी है

मरकर मुर्गा महफ़िल लगाया

मुर्गा चीखने लगा मेरे दोस्त को बुला ला

पानी मिलाकर सोडा डालकर कोल्ड ड्रिंक मिलाकर

बहस होने लगी

नैतिकता बोला क्या मुर्गा जीव नहीं था

इंसान बोला धरती हमारी है

नैतिकता बोला धरती पर मुर्गा जन्म

इंसानों होश में आओ तुमने मुर्गा को नहीं जन्माया है

धतरी तुम्हारी है - सोचो

अगर मुर्गा बोल पाता

तुमसे लड़ पाता

क्या तुम उसका स्वाद ले पाते

मैं नैतिकता हूं

सब पता है

मूल्यों का बाजार मैंने लगाया हूँ

इसीलिए रो रो कर आज कह रहा हूँ

ऐसा मत करना

इंसान का धर्म तो इंसानियत है

फिर कैसा स्वाद और कैसा मौत

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