डॉ अशोक शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक में इंडियन लॉबिंग एंड इट्लूएंस इन यूएस फैसिस मेकिंग: पोस्ट-शीत युद्धअमेरिकी राजनीतिक प्रक्रिया में रुचि समूहों की पैरवी की गतिविधियों का विशद विश्लेषण है जो समकालीन भारतीय राजनीति ही नहीं विश्व परिप्रेक्ष्य का सही अवलोकन प्रस्तुत करता है। लॉबीइंग जिसे सही मायनों में यह कहा जा सकता है कि हितों को साधने हेतु अपने समर्थन के लिए हर प्रकार का संसाधन और क्षमता का इस्तेमाल करना। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यहाँ एक बात ध्यान देने कि बात है की लॉबीइंग को भारतीय जनमानस में स्वीकृति नहीं मिली है तो दूसरी ओर अमेरिका सहित विकसित राष्ट्रों में इसे समान्य घटना समझा जाता है। दूसरा प्रश्न यहाँ महत्वपूर्ण है कि लॉबीइंग करने वाले संस्था या हित समूह क्या भ्रष्टाचार के प्रवृत्ति को बढ़ाते हैं या नीति निर्माण करने वाली संस्था को अपने प्रभाव या कूटनीति से कितना प्रभावित कर पाते हैं ? एक रोचक तथ्य का इशारा लेखक द्वारा यह किया गया है कि अप्रवासी भारतीय और स्थायी नागरिकों द्वारा भारत के हितों को प्रमुखता दिया जा रहा है। लेकिन मेरा प्रश्न यह है कि नाम (NAM) के बाद एल पी जी (LPG - Liberalization, Privatization
And Globalization ) नीति से विश्व बैंक और आई एम एफ के अलावे डब्ल्यू टी ओ का दबाब ही नहीं भारत का निर्भरता ही नहीं बढ़ा बल्कि एकपक्षीय विश्व में भारत जैसे विकासशील राष्ट्र अपने मुद्दे तो उठाते हैं लेकिन उनके मुद्दे आज भी प्रभावशाली नहीं बन सकते हैं। डॉ शर्मा ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि भारत कॉकस द्वारा लॉबिंग का आकलन मुख्य रूप से ऐसे मुद्दों पर किया गया है जैसे परमाणु, आतंकवाद, कारगिल, कश्मीर, आर्थिक सहायता और अमेरिका-भारत संबंधों के कारणों को आगे बढ़ाने जैसे मुद्दों पर विरोधी लॉबी समूहों से निपटने में कारगर है जो उचित है। कुल मिलाकर यह पुस्तक नए संदर्भ में और नए दृष्टिकोण के हिसाब से भारत के पक्ष को विस्तार से विश्लेषण किया गया है। इसके लिए लेखक धन्यवाद के पात्र हैं और जिन्होनें ज्वलंत मुद्दे पर अपने विचारों को एक पुस्तक का रूप दिया।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है - ' संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत् ' ( समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए ) । असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र - पुत्री के उत्पन्न होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान - बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है। [1] ब्राह्मणों के विवाह के अलावे लगभग सभी जातियों में गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति आदि ग्रंथों में यह कहा गया है कि यदि कोई कन्या सगोत्र से हों तो सप्रवर न हो अर्थात सप्रवर हों तो सगोत्र न हों, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान 'गौत्र" कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते ...
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