गरीबी एक शब्द नहीं बल्कि समाजिक यथार्थ है जो मनुष्य से गरिमा, आजीविका, सम्मान, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा को छीन लेती है और इसके अलावे उसे असन्तोष, अवसाद, अमानवीय गुणों से भर देता है। गरीबी का संबंध मनुष्य के अर्थव्यवस्था से है लेकिन इतना प्रभावशाली होता है जिससे वह मानव होता है मगर जैविक गुणों के वजह से परन्तु समाजिक प्राणी भी कह पाना मुश्किल ही होता है।
गरीब लोग को देखते ही सम्पन्न लोगों के मन में यहीं ख्याल आता है - इसका इस्तेमाल कहाँ किया जा सकता है और अगर कब तक किया जा सकता है। दास प्रथा में भी दास तब तक ही सभ्य समाज के लिए उपयुक्त था जब तक उसके शरीर में ऊर्जा रहती थी। इतिहास यहीं सिखाता है क्रिकेट, फुटबॉल के समान ही दासों से खेल भी होता था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आज के खेल में मृत्यु शामिल नहीं है लेकिन दासों के खेल में एक दस दूसरे दास का कत्ल करता था तब सभ्य समाज के सम्पन्न लोगों द्वारा तालियां बजायी जाती थी।
विकसित
राष्ट्र का ख्याल विकाशील और अल्पविकसित राष्ट्रों के प्रति व्यवहार सही नहीं रखा जाता
है क्यूंकि यह भी गरीबी का ही खेल है। द ग्रीन क्लाइमेट फंड के द्वारा भी गरीबी के
संस्कृति को समझ सकते हैं।
द ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) एक नया वैश्विक फंड है जो विकासशील देशों के जलवायु परिवर्तन की चुनौती का जवाब देने के प्रयासों के समर्थन में बनाया गया है। जीसीएफ विकासशील देशों को अपनी ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) के उत्सर्जन को कम करने या कम करने में मदद करता है और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल है। यह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए विशेष रूप से कमजोर देशों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कम उत्सर्जन और जलवायु-लचीला विकास के लिए एक आदर्श बदलाव को बढ़ावा देने का प्रयास करता है।
यह 1 9 4 देशों द्वारा स्थापित किया गया था जो 2010 में संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के पक्ष थे, कन्वेंशन के वित्तीय तंत्र के हिस्से के रूप में। कन्वेंशन के सिद्धांतों और प्रावधानों द्वारा निर्देशित किया जा रहा है, जबकि यह कमीशन और अनुकूलन के लिए वित्त पोषण की बराबर मात्रा में देने का लक्ष्य है।
जब 2015 में पेरिस समझौते पर पहुंच गया था, तो ग्रीन क्लाइमेट फंड को समझौते की सेवा करने और जलवायु परिवर्तन को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लक्ष्य का समर्थन करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गई थी।
जलवायु चुनौतियों के जवाब में सभी देशों से सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता होती है, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों शामिल हैं। इन ठोस प्रयासों में, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने संयुक्त रूप से महत्वपूर्ण वित्तीय संसाधनों को एकत्रित करने पर सहमति व्यक्त की है। विभिन्न स्रोतों से आ रहा है, ये संसाधन विकासशील देशों की दमनकारी शमन और अनुकूलन आवश्यकताओं को संबोधित करते हैं।
जीसीएफ ने 2014 में अपनी प्रारंभिक संसाधन जुटाई शुरू की, और तेजी से 10.3 अरब अमरीकी डालर के मूल्य के वचन एकत्र किए। ये फंड मुख्यतः विकसित देशों से आते हैं, लेकिन कुछ विकासशील देशों, क्षेत्रों और एक शहर (पेरिस) से भी।
जीसीएफ की गतिविधियों को देश के स्वामित्व के सिद्धांतों के माध्यम से विकासशील देशों की प्राथमिकताओं के साथ गठबंधन किया जाता है, और निधि ने एक सीधा पहुंच साधन स्थापित किया है ताकि राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय संगठनों को सीधे अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थों के बजाय धन प्राप्त हो सके।
निधि उन समाजों की जरूरतों पर विशेष ध्यान देता है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, विशेष रूप से कम विकसित देशों (एलडीसी), लघु द्वीप विकासशील राज्यों (एसआईडीएस) और अफ्रीकी राज्यों के प्रभावों के लिए अत्यधिक संवेदनशील हैं।
निधि उन समाजों की जरूरतों पर विशेष ध्यान देता है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, विशेष रूप से कम विकसित देशों (एलडीसी), लघु द्वीप विकासशील राज्यों (एसआईडीएस) और अफ्रीकी राज्यों के प्रभावों के लिए अत्यधिक संवेदनशील हैं।
जीसीएफ का उद्देश्य कम-उत्सर्जन और जलवायु-लचीला विकास में निवेश करने के लिए जलवायु वित्त के प्रवाह को उत्प्रेरित करना है, जो जलवायु परिवर्तन के वैश्विक प्रतिरूप में एक आदर्श बदलाव को चलाता है।
हमारा नवाचार निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश का उपयोग करना है, कम उत्सर्जन, जलवायु लचीला विकास के लिए जलवायु-अनुकूल निवेश की शक्ति का अनलॉक करना। अधिकतम प्रभाव हासिल करने के लिए, जीसीएफ फंडों को उत्प्रेरित करने, नए निवेशों के लिए बाज़ार खोलकर अपने प्रारंभिक वित्तपोषण के प्रभाव को गुणा करना चाहता है।
हमारा नवाचार निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश का उपयोग करना है, कम उत्सर्जन, जलवायु लचीला विकास के लिए जलवायु-अनुकूल निवेश की शक्ति का अनलॉक करना। अधिकतम प्रभाव हासिल करने के लिए, जीसीएफ फंडों को उत्प्रेरित करने, नए निवेशों के लिए बाज़ार खोलकर अपने प्रारंभिक वित्तपोषण के प्रभाव को गुणा करना चाहता है।
निधि के निवेश अनुदान, ऋण, इक्विटी या गारंटी के रूप में हो सकते हैं।
(The
Green Climate Fund (GCF) is a new global fund created to support the efforts of
developing countries to respond to the challenge of climate change. GCF helps
developing countries limit or reduce their greenhouse gas (GHG) emissions and
adapt to climate change. It seeks to promote a paradigm shift to low-emission and
climate-resilient development, taking into accounts the needs of nations that
are particularly vulnerable to climate change impacts.
It
was set up by the 194 countries who are parties to the United Nations Framework
Convention on Climate Change (UNFCCC) in 2010, as part of the Convention’s
financial mechanism. It aims to deliver equal amounts of funding to mitigation
and adaptation, while being guided by the Convention’s principles and
provisions.
When
the Paris Agreement was reached in 2015, the Green Climate Fund was given an
important role in serving the agreement and supporting the goal of keeping
climate change well below 2 degrees Celsius.
Responding
to the climate challenge requires collective action from all countries,
including by both public and private sectors. Among these concerted efforts,
advanced economies have agreed to jointly mobilize significant financial
resources. Coming from a variety of sources, these resources address the
pressing mitigation and adaptation needs of developing countries.
GCF
launched its initial resource mobilization in 2014, and rapidly gathered
pledges worth USD 10.3 billion. These funds come mainly from developed
countries, but also from some developing countries, regions, and one city
(Paris).
GCF’s
activities are aligned with the priorities of developing countries through the
principle of country ownership, and the Fund has established a direct access
modality so that national and sub-national organisations can receive funding
directly, rather than only via international intermediaries.
The
Fund pays particular attention to the needs of societies that are highly
vulnerable to the effects of climate change, in particular Least Developed
Countries (LDCs), Small Island Developing States (SIDS), and African States.
GCF
aims to catalyze a flow of climate finance to invest in low-emission and
climate-resilient development, driving a paradigm shift in the global response
to climate change.
Our innovation is to use public investment to stimulate private finance, unlocking the power of climate-friendly investment for low emission, climate resilient development. To achieve maximum impact, GCF seeks to catalyse funds, multiplying the effect of its initial financing by opening markets to new investments.
Our innovation is to use public investment to stimulate private finance, unlocking the power of climate-friendly investment for low emission, climate resilient development. To achieve maximum impact, GCF seeks to catalyse funds, multiplying the effect of its initial financing by opening markets to new investments.
The
Fund’s investments can be in the form of grants, loans, equity or guarantees.[1])
विकाशील
राष्ट्रों
और
अल्प
विकसित
राष्ट्रों
का
योगदान
कार्बन
उत्सृजन
में
कम
रहा
है
लेकिन
स्वास्थ्य
संबंधी
खतरे
भी
इन्हीं
राष्ट्रों
को
भुगतना
पड़ता
है।
संसाधनों
के
भूलता
के
बाबजूद
इन
राष्ट्रों
को
विकसित
राष्ट्र
पर
निर्भर
रहना
परता
है।
तकनीकी
और
विज्ञान
के
क्षेत्र
में
पिछड़ापन
इसके
लिए
जिम्मेदार
है
क्यूंकि
नीति
ठीक
से
बनाई
नहीं
जाती
है।
अनुसंधान
और
विकास
को
बढ़ावा
नहीं
दिया
जाता
है।
ये
राष्ट्र
अपने
समस्याओं
में
ही
इतने
उलझे
रहते
हैं
जिसके
कारण
मंजिल
दूर
होती
जा
रही
है।
विशेष
रूप
से
भारत
जैसे
विकाशील
राष्ट्र
के
लिए
हर
वर्ष
चुनाव
में
ही
इतनी
ऊर्जा
गवानी
पड़ती है
कि
इन
मुद्दों
के
लिए
नीति
निर्माताओं
के
पास
समय
बचता
ही
नहीं
है।
भूख
जैसी
समस्या
भी
अभी
भी
भारत
के
चुनैती
बनी
हुयी
है।
भारत
में
चाहे
कांग्रेस
की
सरकार
सत्ता
में
रहे
या
फिर
बीजेपी
की,
तमाम
नेता
लगातार
देश
में
प्रगति
और
विकास
के
लंबे-चौड़े
दावे
करते
रहे
हैं। लेकिन
सच्चाई
कुछ
और
ही
है।
विभिन्न
वैश्विक
संगठनों
के
समय-समय
पर
होने
वाले
अध्ययनों
व
रिपोर्टों
से
सरकार
के
दावों
की
कलई
खुलती
रही
है। बावजूद
इसके
न
तो
सरकार
और
नेताओं
का
चरित्र
बदलता
है
और
न
ही
उनके
वादों
को
हकीकत
में
बदलने
की
दिशा
में
कोई
ठोस
पहल
होती
है। ऐसी
रिपोर्ट्स
आने
के
बाद
कुछ
दिनों
तक
सरगर्मी
रहती
है
लेकिन
उसके
बाद
फिर
पहले
की
तरह
सबकुछ
एक
ही
ढर्रे
पर
चलने
लगता
है। बीते
सप्ताह
विश्वबैंक
और
अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा
कोष
ने
भारत
की
विकास
दर
में
गिरावट
का
दावा
किया
था। उसके
बाद
अब
वैश्विक
भूख
सूचकांक
में
देश
के
100वें
स्थान
पर
होने
के
शर्मानक
खुलासे
ने
विकास
और
प्रगति
की
असली
तस्वीर
पेश
कर
दी
है।
वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की ओर से वैश्विक
भूख सूचकांक पर जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के 119 विकासशील देशों
में भूख के मामले में भारत 100वें स्थान पर है. इससे पहले बीते साल भारत 97वें स्थान
पर था। यानी इस मामले में साल भर के दौरान
देश की हालत और बिगड़ी है।[2]
मेरा
मानना
है
- गरीबी
बढ़ने
से
समाजिक
समस्याओं
का
स्वरूप
भी
परिवर्तित
होता
जा
रहा
है।
रोतों
- रात
अमीर
बनने
के
ख्वाब
ने
विशेष
रूप
से
युवा
वर्ग
को
अपराध
के
दुनिया
के
प्रति
आकर्षण
बढ़ता
जा
रहा
है।
कार्य
करने
कि
संस्कृति
के
जगह
अन्य
असमाजिक
कार्यों
में
लिप्त
होते
जा
रहे
हैं।
इतना
ही
नहीं
इसी
परिस्तिथियों
का
फायदा
उठाकर
युवाओं
को
समाज
के
सम्पन्न
वर्ग
उनको
सही
राह
के
स्थान
पर
गलत
राह
के
जाल
में
फसा
दे
रहे
हैं।
आतंकवादियों
में
उदासीन
और
अवसाद
से
भरे
युवाओं
को
भर्ती
करना
अब
आसान
होता
जा
रहा
है।
झूठ
बोलने
के
प्रवृति
भी
इसीलिए
बढ़ती
जा
रही
है
कि
हकीकत
कोसों
दूर
होता
है।
अपने
मन
के
अंदर
अपने
को
ही
महान
बनाने
के
आदत
में
बढ़ोतरी
हो
रही
है
जो
एक
खतरनाक
मनोविज्ञान
को
जन्म
दे
रही
है।
घटते
संसाधन
और
बढ़ते
लालच
का
कोई
अंत
नहीं
है।
सरकार
जनसंख्या
को
मानव
संसाधन
बनाने
में
असक्षम
होती
जा
रही
है।
आर्थिक रूप से आसमान व्यक्ति राजनीतिक रूप से आखिर कैसे समान हो सकता है ? मतों के
स्तर पर समानता और मतों के नियंत्रण पर समानता में काफी अंतर है। हमारा समाज जब किसी
पर भी वस्तु या व्यक्ति पर नियंत्रण खो देता है तो भगवान के जिम्मे ही काम सौंप देता
है। गरीबी को अंत में एक भाग्य के रूप में स्वीकार कर लिया है और उसी नीयति के अनुरूप
जीवन निर्वाह करने लगता है।
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