भारतीय राजनीति में इन चार
शब्दों का महत्व बढ़ता जा रहा है। ये चारों शब्द निम्नलिखित है :
·
धर्मनिरपेक्षता,
·
साम्प्रदायिकता,
·
असहनशीलता और
·
सहनशीलता।
इसीलिए सर्वप्रथम संविधान के उद्देशिका का ही उल्लेख करना चाहूँगा। जो निम्नलिखित है।
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद
धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्ष शब्द भारत के प्रस्तावना में बयालीसवाँ संशोधन (1976) में यह शब्द डाला गया जब भारत में आपातकाल था। इसके बाबजूद जनता पार्टी के सरकार द्वारा भी इस शब्द को नहीं हटाया जाना भारत के सोच को परिलक्षित करता है। जनता पार्टी के सरकार में उस समय अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और सुब्रण्यम स्वामी जैसे नेता मंत्रीमंडल में मौजूद थे। इसी शब्द में सभी धर्मों का सम्मान और समानता निहित है। राज्य का कोई धर्म नहीं है लेकिन राज्य में रहने वाले लोगों का धर्म हो सकता है। कोई भी व्यक्ति संविधान के दायरे में रहकर अपने धर्म का प्रचार - प्रसार कर सकता है। सरकार इसमें किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करेगी। धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचा का हिस्सा है यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने अपने एसआर बोम्मई बनाम भारतीय संघ में दिया है।
सांप्रदायिकता
जब व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ भाव से देखते हैं और दूसरे धर्म के प्रति हीनता का भाव रखते हैं तभी साम्प्रदायिकता का बीज पनपता है। साम्प्रदायिकता एक विचारधारा के तौर पर धार्मिक रूप से एकीकरण के बजाय विभाजन पर आधारित होती है। सांप्रदायिकता का अंग्रेजी में अर्थ (Communalism) है।
Communalism में Commune का अर्थ है समाज में भाईचारा के साथ आपस में रहना लेकिन अब आदर्श बदलते समय के साथ इसका अर्थ भी बदल गया है। इसीलिए इस शब्द का अर्थ यह हैं एकता के परिवेश को अनेकता में बदलना और हिंसा, घृणा, अलगाव, वैमन्सयता आदि को जन्म देना।
सहनशीलता : जो सहन योग्य हों।
असहनशीलता
: जो सहन करने लायक नहीं हों।
यहाँ प्रश्न है राज्य निरपेक्ष है यानि कोई मतलब नहीं है - धार्मिक मामलों में।
मनुष्य जो धर्म को नहीं मानते हैं या नास्तिक हैं उनको छोड़ दिया जाये तो जो आस्तिक मनुष्य हैं यानि जो धर्म को मानते हैं। राज्य अधार्मिक और मनुष्य धार्मिक है। द्वन्द यहीं है - राज्य और मनुष्य के बीच सामंजस्य धर्म के मुद्दे पर कैसे हों ?
ऐसा कहा जाता है धर्म निजी मामला है और सरकार का कोई मतलब नहीं है। लेकिन धर्म के नाम पर हिंसा होते ही सरकार कार्यवाही करती है तो सरकार किसी न किसी रूप में शामिल हो ही जाती है। हिंसा होते ही सरकार प्रवेश करती है जबकि राज्य धर्मनिरपेक्ष है।
मुझे ऐसा लगता है - राज्य अपने स्वरूप और प्रकृति में धर्मिक नहीं है लेकिन राज्य को नियंत्रित करने वाले लोग का भी तो धर्म होता ही होगा। अगर राज्य को संचालित करने वाले लोगों का धर्म होता होगा तो उनका आस्था और विश्वास भी किसी भी धर्म के प्रति हो सकता है ? ऐसे हालात में मनुष्य और राज्य के स्वरूप में थोड़ा दुविधा बन सकती है। आस्था का अगर कोई तर्क नहीं है लेकिन राज्य का तर्क है। मनुष्य तर्क और हितों से अपना निर्णय लेता होगा तो राज्य भी अपने हितों और संबंधों को देखकर ही कोई कानून या अन्य राष्ट्रों से संबंध बनाता है। प्रश्न यह है अब जहाँ आस्था है वहाँ तर्क भी नहीं है। ये बातें धर्म ही नहीं अन्य बातों पर भी समान रूप से लागू होती है।
अगर हकीकत को देखें तो धर्म ने मनुष्य का निर्माण नहीं किया बल्कि मनुष्यों के प्रकृति के विचत्र स्वभाव को देखकर ही धर्म बनाया है। प्रारम्भ में तो प्रकृति के रहस्यों और प्राकृतिक आपदा ही भय से भयभीत बना दिया होगा। इन रहस्यों को समझने के लिए प्रकृति पूजा से बढ़कर मूर्ति पूजा तक लोगो पहुंच गए। खैर जो भी हों हकीकत यह है धर्म सत्य है और यहीं धर्म मनुष्यों को जैविक रूप से समान रहते हुए भी अलग - अलग धार्मिक इकाई और विचारधारा में बदला। मानव अब मानव नहीं बल्कि वह धार्मिक मानव है जिसके सोच में ही वो परम्परा और विश्वास जन्म लेता है वो जिस धर्म का पोषक होता है।
वास्तव में धर्निर्पेक्षता और
सांप्रदायिकता एक विश्वासों और आस्थाओं के रूप में मनुष्यों के बीच एक दीवार बनाती है और चूँकि मानव तर्कशील प्राणी है तो हितों के देखते हुए दिवार को कभी छोटा और बड़ा कर लेती है। मेरा मानना है
कोई भी राजनेता या राजनीतिक धर्म का इस्तेमाल तब तक नहीं कर सकता जब तक कि मनुष्यों को भी हित और स्वार्थ न हों।
विभाजित समाज है तभी अनेकता है तभी इसका कोई उपयोग या दुरूपयोग करता है। हितों के पूर्ती का माध्यम अगर धर्म हो सकता है तो पारस्परिक मदद से एकता भी बढ़ सकती है और वहीं धर्म अनेकता में बदलकर पारस्परिक उग्र भी हो सकती है इसे सांप्रदायिक हिंसा या दंगा भी कहते हैं।
मेरे विचार से सम्प्रदाय शब्द ही ठीक नहीं है क्यूंकि प्रत्येक धर्म में बहुत सम्प्रदाय होते हैं। जैसे हिन्दू धर्म में शैव और वैष्णव सम्प्रदाय, मुस्लिम धर्म में शिया और सुन्नी, बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान सम्प्रदायों में विभाजीत रहा है। इसीलिए धर्म और सम्प्रदाय में बहुत ही अन्तर है। ईश्वर ने जगत बनाया जब इसी ईश्वर के दंगा या विद्रोह के मनुष्यों को जीवन देना पड़ता है तब धर्म जैसे संस्था पर पनुर्विचार के जगह मानवीय व्यवहार पर पुनर्विचार होना चाहिए।
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वर्ष 11 महिने 18 दिन में दुनिया का सबसे बडा, बेहतरीन, मजबूत एवं शक्तिशाली संविधान का निर्माण किया जिससे मानव
कानून के अनुसार चलें और ऐसा आचरण और व्यवहार करे जिससे मानव का कल्याण हो सकें। एक
मानव द्वारा दूसरे मानव का शोषण नहीं हों और समाज में शांति बनें रहें। आज के समय में
लोगों के भीतर हर पल या क्षण जी लेने के ख्वाब मानव को असम्बेदनशील के अलावे असहनशील
बनाते जा रहा है। सहनशील मनुष्य तब बन जाता है जब आपका कार्य दूसरे के मुठ्ठी में हों।
असहनशील तब बन जाता जब ऐसा लगे समाने वाला मेरा कुछ क्षति नहीं पहुंचा सकता है। इसीलिए
संतुलन समाज ही समाज को सभ्य बनाता है। धर्मनिरपेक्ष समाज में सहनशीलता को प्रश्रय
मिलता है साम्प्रदायिक समाज में असहनशीलता को प्रश्रय मिलता है।
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