नब्बे के दशक में जो घटना घटी उससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ। रूस के विघटन से एकध्रुवीय विश्व का निर्माण, जर्मनी का एकीकरण, वी पी सिंह द्वारा ओ बी सी समुदाय को आरक्षण देना, आडवाणी द्वारा मंदिर निर्माण के रथ यात्रा, राव - मनमोहन द्वारा उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण के नीति को अपनाना आदि घटनाओं से विश्व और भारत जैसे विकाशसील राष्ट्र के लिए एक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आर्थिक परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ। सरकारी नौकरियों में नकारात्मक वृद्धि हुयी और निजी नौकरियों में धीरे - धीरे वृद्धि होती चली गयी। कृषकों का वर्ग भी इस नीति से प्रभावित हुआ। सेवाओं के क्षेत्र में जी डी पी बढ़ती गयी और कृषि क्षेत्र अपने गति को बनाये रखने में अक्षम रहा। कृषि पर आधारित जातियों के अंदर भी शनैः - शनैः ज्वालामुखी कि तरह नीचे से
आग धधकती रहीं।
डी
एन धानाग्रे ने कृषि वर्गों अपना अलग ही विचार
दिया है। उन्होंने पांच भागों में विभक्त किया है।
·
जमींदार
·
अमीर किसान
·
मध्यम वर्ग का किसान
·
गरीब किसान
·
मजदूर
डेनियल थॉर्नर (1 915-19 74) जो
अमेरिकी मूल के अर्थशास्त्री थे जिन्होनें
कृषि अर्थशास्त्र और भारतीय आर्थिक इतिहास पर अध्ययन किया ।
वे
भारत के
कृषि नीति को अच्छी तरह से समझते थे।
डैनियल थॉर्नर ने कृषि आधारित समाजिक संरचना को तीन वर्गों में विभाजित किया है।
मिट्टी से प्राप्त आय (यानी, किराया, खुद की खेती, या मजदूरी), अधिकारों की प्रकृति (यानी, स्वामित्व, किरायेदारी, शेयरधारक और सभी पर कोई अधिकार नहीं), और वास्तव में किए गए जमीन पर किये गए कार्यों
की सीमा (यानी, कोई काम नहीं करना, आंशिक काम करना, कुल काम करना, और दूसरों के लिए काम करना) । किसान, मालिक और मजदूर
- कृषि समाजिक संरचना के तीन अवयव हैं। भरतीय समाज में अनुसूचित जातियों के पास जमीन
नहीं के बराबर होने से वे मजदूरों के श्रेणी में आते हैं। आजादी के बाद पाटीदार समुदाय
में कृषक और मालिक दोनों हैं। इसीलिए यह समुदाय कृषि पर आधारित होने के कारण समाज का
शक्तिशाली समुदाय है। उद्योग, व्यापर और वाणिज्य में इस समुदाय के भूमिका के इंकार
नहीं किया जा सकता है। बहुसंख्यक समुदाय होने
के कारण यह जाति अपने क्षेत्र में प्रभावशाली भी है।
कृषि समाज का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन है। जजमानी व्यवस्था
भारतीय ग्रामीण इलाकों में आज भी अपने मूल स्वरूप में परिवर्तन के साथ मौजूद है।
संवैधानिक और कानूनी रूप से जमींदारी व्यवस्था देश के आजादी के समय ही समाप्त हुईं। जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन हेतु ही भारतीय संविधान में प्रथम संसोधन और नौवीं अनुसूची का भी निर्माण किया गया था। इस अनुसूची में उन अधिनियमों को सम्मिलित जाता रहा है जिससे संसद में बनाये गए नियम के वैधानिकता को
न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करें। मुकदमेबाजी से भूमि सुधार क़ानूनों को बचाने के लिए ही नौवीं अनुसूची का सहारा किया गया। अभी हाल में ही
उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में व्यवस्था दी कि संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। फैसले में कहा गया है कि 24 अप्रैल 1973 के बाद संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किए गए किसी भी कानून की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।
मुख्य न्यायाधीश वाई के सभरवाल और न्यायमूर्ति अशोक भान, न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति बी. पी. सिंह, न्यायमूर्ति एस. एच कपाडिया, न्यायमूर्ति सी. के ठक्कर, न्यायमूर्ति पी. के बालासुब्रमण्यम, न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर तथा न्यायमूर्ति डी. के जैन ने यह घोषणा भी की कि किसी भी कानून को बनाने और इसकी वैधानिकता तय करने की शक्ति किसी एक संस्था पर नहीं छोड़ी जा सकती। फैसले में कहा गया है कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या न्यायपालिका को करनी है और उनकी वैधानिकता की जांच संसद के बजाय न्यायालय ही करेगा। न्यायालय ने कहा कि इन कानूनों को न्यायिक समीक्षा से परे रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती और संविधान के भाग तीन में प्रदत्त मौलिक अधिकारों और भाग चार में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक तत्व संविधान के मूल ढांचे का अहम हिस्सा हैं। उनके उल्लंघन अथवा अतिक्रमण को उच्चतम न्यायालय अवैध ठहरा सकता है।[1]
कृषि अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर अब नहीं रह गए हैं। मौसम पर आधारित कृषि विशाल जनसँख्या को पूरा करने में सक्षम नहीं रह गया है। औद्यौगिकीकरण और शहरीकरण के दौर में मजदूरों का भी पलायन तेजी से बढ़ रहा है। गांव में मजदूरों का अभाव भी कृषि व्यवस्था को काफी प्रभावित किया है। शहरों के अपेक्षा कृषि क्षेत्र में मजदूरी उतना नहीं मिलता है। मजदूरों के साथ आमनवीय वर्ताव भी पलायन होने को मजबूर करता है। कृषि क्षेत्र में हमेशा रोजगार भी नहीं मिलता है। मौसमी बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी दोनों होने से लोगों का शहरों की ओर होना
स्वाभाविक है। मजदूरों में सर्वद्धिक रूप से
एससी और एसटी के अलावे गरीब स्वर्ण और पिछड़े वर्ग भी हैं।
ऐसे समाजिक संरचना में कोई भी नेतृत्वकर्ता आकर यह कह दे की सरकार की भेदभावपूर्ण नीति ही आपके दशा के लिए जिम्मेदार है। पाटीदार समुदाय जो कृषि अर्थव्यवस्था निराश होकर हार्दिक पटेल जैसे नेताओं के समाने नेतृत्व स्वीकार करने के अलावे उपाय भी नहीं बचा था। इस सिद्धांत के पीछे एकमात्र तर्क है
आरक्षण के लाभ से ही आर्थिक स्थिति बदलेगी। यही वो नीति है जिससे सारे समस्याओं का हल देगा। उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति आरक्षण सुधार कर देगा।
गुजरात के राजनीति में तीन युवा चेहरे सामने आये हैं। पाटीदार समाज के नेता हर्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर
और दलित नेता जिग्नेश मेवानी हैं । गुजरात राजनीति के केंद्र में इस बार जाति विकास के मुद्दे से आगे निकल गयी है। हीरालाल दवे का मानना है
जाति की राजनीति के केंद्र में पाटीदार हैं जो कि पारंपरिक रूप से भाजपा समर्थित समुदाय है। पाटीदार समुदाय
जो राज्य की 60 मिलियन आबादी का 12% हिस्सा रखता है और 182 सीटों में से कम से कम 60 में प्रभाव रखता है।[2]
समाजशास्त्री सतीश देशपांडे का स्पष्ट मानना है - पाटीदार
के आंदोलनों को देखकर ऐसा लगता है आरक्षण एक कल्याणकारी लाभ का सिद्धांत है जिसे राज्य अपने विवेक से किसी भी समुदाय को दे सकता है। इस परिदृश्य में एक बहुत बड़ी जनसंख्या, मीडिया प्रबंधन, समुदाय को एकत्रित करने का कौशल, राज्य को मजबूर करने का जबरदस्त अभियान आदि के माध्यमों से आरक्षण मिल सकता है।[3]
संविधान
के अनुसार आरक्षण का आधार सामजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी
अपने कई फैसलों में दोहरा चुका है।
पिछली यूपीए सरकार ने भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद की विशेषज्ञ समिति की सिफारिश पर जाटों को आरक्षण देने का फ़ैसला किया था।
अदालत ने इसे ग़लत ठहराते हुए कहा है कि तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट को नजरअंदाज़ किया।
कोर्ट का कहना था कि ज़ाति आरक्षण देेने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन पिछड़ापन निर्धारित करने के लिए यह अकेले पर्याप्त नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। बशर्ते, ये सिद्ध किया जा सके कि वे औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। क्योंकि अतीत में उनके साथ अन्याय हुआ है, ये मानते हुए उसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर, आरक्षण दिया जा सकता है। साथ
ही अगर समाज का एक हिस्सा कम तरक़्की करता है - जिसके ऐतिहासिक कारण हैं, तो इसका असर न सिर्फ़ देश की प्रगति बल्कि लंबे समय में समाज पर भी पड़ेगा।[4]
अतीत
में हुए शोषण जो अभी तक जारी है। मंदिरों में आज भी मामूली इंसान तो छोड़िये बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री को प्रवेश करने के बाद
धोया गया। जगजीवन राम भी जब एक मंदिर गए तो बाद में पवित्र किया गया। क्या ये सारी
समाजिक बाध्यताएँ अन्य समुदाय को भुगतना पड़ता है। The Untouchability Practices Act, 1955 संविधान के आर्टिकल 17 को लागू करने के लिए बनाया गया.
इस क़ानून को फिर से सख़्त बनाया गया और 1976 मे सन्सोधित करके इसे Protection of Civil Rights act
के नाम से ज़्यादा प्रभावी रूप मे लागू किया गया।
बाद
मे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लगातार बढ़ते गये जघन्य अत्याचारों और हिंसा, जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, गंभीर हमलो द्वारा शारीरिक क्षति आदि के फलस्वरूप राज्य को एक बार फिर गंभीर फ़ैसले लेने पड़े और दलितों को सुरक्षा के लिए
विशेष क़ानून बनाना पड़ा जिसे “Scheduled Caste and Scheduled Tribe
(Prevention of Atrocities) Act, 1989 के नाम से जाना गया और इसमे पहले से अधिक कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया ताकि ये क़ानून दलित के
के लिए प्रतिरक्षक ढाल का कार्य कर सके।
इसी क़ानून का शोषक समाज ने जमकर विरोध किया।
यही क़ानून वर्ग विशेष द्वारा “हरिजन एक्ट” के नाम से प्रचारित किया गया।
समाज मे स्थापित परंपराओं और क़ायदे क़ानूनों द्वारा दलितों को परंपरागत कार्यों में धकेलने के विरुद्ध और उनके अपने सामाजिक स्तर मे सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयासों में सहयोग के लिए समय समय पर अतिरिक्त क़ानूनों को भी प्रभाव मे लाया गया।
The Employment of Manual scavengers
and Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993 नामक क़ानून, जो दलितों द्वारा हाथ से अन्य नागरिकों के मानव मल को साफ करने की अतिहीन कुप्रथा को ख़तम करने के लिए बना था, इन नियमों मे सबसे महत्वपूर्ण है।
जो एक अन्य कुप्रथा रोकी जानी थी, वो थी दलित लड़कियों का मंदिरों मे देवदासी के नाम पर यौन शोषण. आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक ने देवदासी नाम की इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करने के लिए क़ानून पास किए।
इस प्रथा के द्वारा जवान दलित लड़कियाँ स्थानीय देवता को देवदासी के नाम पर भेंट चढ़ा दी जाती थीं, जिनका मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण होता था. देवता के नाम पर मंदिर के पुजारी/पुरोहित, दलित लड़कियों का शोषण करते रहे थे।
महाराष्ट्र मे 1934 मे ही इस घटिया परंपरा को बंद करने का क़ानून बन चुका था।
कुछ क़ानून जो, इस उच्च वर्ग द्वारा शुरू की गयी दलित बालिकाओं के शारीरिक शोषण इस नीच धार्मिक परंपरा को गैर क़ानूनी घोषित करके इसके उन्मूलन और प्रतिबंध के लिए पास किए गये।[5]
we have to fight for right..
ReplyDeletethanks for your comment
Deletewe have to fight for right..
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