डॉक्टर रुखमाबाई राउत के 153 वें जन्मदिवस पर उन्हें नमन करता हूँ। महिला सशक्तीकरण और विशेष रूप से भारतीय महिला जो औपनिवेशिक काल
में प्रारम्भिक दौर के चिकत्सा के क्षेत्र में अभ्यास करने वाली महिलाओं में से एक थी।
गूगल
डूडल पर सम्मान प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला चिकित्सक भी हैं। उनका जन्म मुंबई प्रान्त के 22 नवंबर, 1864 को हुआ था। भारतीय समाज में आज भी बाल विवाह हो रहा है लेकिन यह कानून के खिलाफ है। राउत जिस समाज में जन्म लीं थीं उस समय के समाज में बाल विवाह आम बात थी। तत्कालीन समाज रूढ़ियों और परम्परा के दृष्टिकोण से महिलाओं के लिए बंद समाज का दौर था। यहीं कारण है कि मात्र ग्यारह वर्ष के उम्र में 'दादाजी भिकाजी' (19) के साथ विवाह के बंधन में बंध गयीं।
के
दीपालाक्ष्मी ने लिखा है - रुखमाबाई के कारण ही आधुनिक भारत में महिलाओं ने सहमति के अपने अधिकारों पर जोर दिया है। (If women in modern
India can assert their rights of consent, it is due to Rukhmabai.) रुखमाबाई
के
पिता
का
नाम जनार्दन
पांडुरंग
और
माता
का
नाम जयंतीबाई
है।
वे
एकमात्र
पुत्री
थीं।
महज
आठ
वर्ष
के
उम्र
में
पिताजी
इस
दुनिया
को
छोड़
दिया।
जयंतीबाई
ने
सखाराम
अर्जुन
(प्रसिद्ध
चिकित्सक
और
बॉम्बे
प्राकृतिक
हिस्ट्री
सोसाइटी
के
संस्थापक
सदस्य)
से
दुबारा
शादी
कर
ली।समाजिक
कुरीतियों के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर ने ही रुखमाबाई को वो जगह दिलाई जो आज भी कोई
भी महिला समाजिक मान्यता के विरुद्ध खड़ी नहीं हो पाती है। शादी के बाद भी रुखमाबाई अपनी मां और सौतेले - पिता के साथ ही रहना
चाहती थीं। 'दादाजी भिकाजी' ने सात साल बाद अदालत से मांग की कि वह अपनी पत्नी के साथ रहना चाहता है और उसके
साथ रहने के लिए आदेश दे। रूखमाबाई ने अपने
पति के साथ जाने से इनकार कर दिया और उन्होंने कहा एक महिला को शादी में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है क्यूंकि
उन्हें दिलचस्पी नहीं है। उनके इस फैसले को उसके सौतेले - पिता ने समर्थन दिया था। अदालत में उनके सौतेले पिता के सहयोग मिला। दादाजी बनाम रुखमाबाई का मामला जो तीन वर्षों तक चला था, उससे इंग्लैंड और भारत दोनों में एक बहस प्रारम्भ हुईं।
यह फैसला
दादाजी के पक्ष में चला गया। अदालत
ने रुखमाबाई को अपने पति या छह महीने की कारावास के साथ रहने का आदेश दिया। एक बहादुर
रूखमाबाई ने जेल का रस्ता चुना मगर पति के
साथ रहना नामंजूर किया। इसी मामले में रानी
विक्टोरिया ने बाद में फैसला सुनाया। 1891
के सहमति का कानून का निर्माण इसी संघर्ष के वजह से हुआ। इसके प्रतिक्रिया में रूढ़िवादी भारतीयों के विरोध किया फिर भी इसके बावजूद
सरकार ने कानून बनाया। (The verdict was subsequently overruled
by Queen Victoria. This prompted the government to bring the Age of Consent
Act, 1891, despite opposition from conservative Indians.) रुखमाबाई
ने
कानूनी
रूप
से
1888 में
अपने
पति
से
अलग
होकर
चिकित्सा के
अध्ययन
के
लिए
इंग्लैंड
चली
गयीं। उन्होंने लंदन
स्कूल
ऑफ
मेडिसिन
फॉर
विमेन
(London School of Medicine for Women) में
बम्बई
के
कामा
अस्पताल
के
डॉक्टर एडिथ पेचे
(Dr.
Edith Pechey )और इंग्लैंड
में भारतीय
सहपाठियों
के
सहयोग
से
अपना कोर्स
पूरा
किया। वह
1894 में
भारत
लौटकर
अगले
35 वर्षों
तक तक सूरत, राजकोट और बॉम्बे
में
अभ्यास
किया।
उनका
निधन 25 सितंबर, 1955 को
निधन
हो
गया
।[1] । समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण से उन्नीसवीं सदी में डॉक्टर रखमाबाई राऊत का जीवन आज के महिलाओं के लिए
भी प्रेरणास्रोत है। उस समय जब मीडिया और सोशल मीडिया नहीं था तब उन्होंने अपने अधिकारों
को समझा ही नहीं संघर्ष भी किया। उन्हीं जैसे महान महिलाओं के योगदान से समाजिक परिवर्तन
हुआ है। ऐज ऑफ़ कंसेंट एक्ट, 1891 ( Age of Consent
Act, 1891) के कानून का बनना उनके व्यक्तित्व का ही मिशाल है। आनंदीबाई
गोपालराव जोशी (31 मार्च 1865 - 26 फ़रवरी
1887) भारतीय महिलाओं के प्रारंभिक चिकित्सकों में से एक थे। भारतीय मूल की पहली महिला थीं जिसने संयुक्त राज्य
अमेरिका में चिकित्सा की डिग्री में स्नातक कीं।
आनंदी गोपाल जोड़ी टी बी के कारण चिकत्सा अभ्यास नहीं कर पायीं लेकिन रूखमाबाई
में चिकत्सा के क्षेत्र में अभ्यास किया।
भारतीय
समाज में सहमति और असहमति के स्वर हमेशा से ही दिखाई देते रहे हैं। एक ओर बाल गंगाधर
तिलक जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी भी रूखमाबाई के पति के पक्ष में थे तो दूसरी ओर जस्टिस रानाडे
और बेहरामजी मालाबारी सहित कई सामाज सुधारक रूखमाबाई के पक्ष में थे। मी सिंधुताई सपकाल (MEE SINDHUTAI SAPKAL)
मराठी फिल्म बायोपिक बनायीं जिसके निर्देशक आनंद महादेवन हैं। रूखमाबाई के शब्दों से ही यह लेख खत्म कर रहा हूँ।
"मैं उन दुर्भाग्यपूर्ण हिंदू महिलाओं में से एक हूं, जिनके कठिन परिश्रम में शुरुआती विवाह के अनुयायियों के द्वारा अनुचित दुखों का सामना करना पड़ता है। बाल विवाह के इस दुष्ट अभ्यास ने मेरे जीवन की खुशी को नष्ट कर दिया है।
यह मेरे और उन चीजों के बीच आता है जो मैं अन्य सभी के ऊपर पुरस्कार देता हूं - अध्ययन और मानसिक खेती। मेरी कम से कम गलती के बिना मैं एकता को बर्बाद कर रहा हूं; मेरी अज्ञानी बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर आकांक्षा को संदेह के साथ देखा गया है और इसका सबसे कमज़ोर तरीके से व्याख्या किया गया है। " (“I am one of those
unfortunate Hindu women whose hard lot is to suffer the unnamable miseries
entailed by the custom of early marriage. This wicked practice of child
marriage has destroyed the happiness of my life. It comes between me and the
things which I prize above all others - study and mental cultivation. Without
the least fault of mine I am doomed to seclusion; every aspiration of mine to
rise above my ignorant sisters is looked down upon with suspicion and is
interpreted in the most uncharitable manner." Extract from a letter
written by Rukhmabai, a victim of child marriage, to The Times of India on June
26, 1885, and reproduced in the book Child Marriages in India by Jaya Sagade
(Oxford University Press, 2005).)[2]
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