प्रत्येक युग
में
राजनीतिक चिंतकों
द्वारा मानवीय
क्रियाकलाप
एवं तत्कालीन
समाज
के आवश्यकताओं
के अनुसार राजनीतिक पक्ष से सम्बन्धित विचारों पर विमर्श और चर्चा होती रही है। हर पहलू के अपने तर्क होते हैं और प्रत्येक पहलू का अपना दूसरा पक्ष भी होता है। कोई भी सिद्धांत समय सापेक्ष और उस युग के दशा के अनुसार ही होता है। भारत में जब राजतंत्र था तब भी प्रत्येक सिद्धांतों का विशद विश्लेषण होता रहा है। इसीलिए यह लेख पर्याप्त और अपर्याप्त के दुविधा के बीच अपना रास्ता निकाल पता है या नहीं, समय और राजनीती द्वारा ही तय हो सकता है। अराजनीतिक यानि गैर राजनीतिक लोगों का प्रवेश राजनीति में मेरे हिसाब से और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के दृष्टिकोण से अलग प्रवृति के समय में प्रवेश कर रहा है। राजनीतिक कार्यकर्ता जो किसी भी दल का हों वे लोग जमीन पर कार्य तो करते हैं और अपने प्रिय नेताओं के गलत बयानों का बचाव
करते - करते थक कर बिसलेरी या किनले का पानी भी नहीं मिलता है।
पूरी तरह से राजनीतिक धारा को बदलने का दावा करने वाले एक क्षेत्रीय दल जिसका नाम आम आदमी पार्टी है उसके एकमात्र संचालक अरबिंद
केजरीवाल इन दिनों आम आदमी के मतों जीतकर राजयसभा के लिए खास व्यक्ति
को खोज रहे हैं। पार्टी सूत्रों के मुताबिक आप नेता अरविंद केजरीवाल इन सीटों के लिए पार्टी से बाहर प्रोफेशनलंस की तलाश कर रहे हैं।
सूत्र यह भी कह रहे हैं कि इस कड़ी में रघुराम राजन से संपर्क साधा गया है और वह आप के ऑफर पर विचार कर रहे हैं।
द टाइम्स ऑफ इंडिया की इस रिपोर्ट के मुताबिक पार्टी के वरिष्ठ नेता ने कहा है कि पार्टी से बाहर के लोगों को प्रत्याशी बनाए जाने का फैसला ले लिया गया है।
उन्होंने कहा कि यह तय किया गया है कि समाज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले प्रमुख हस्तियों को उम्मीदवार बनाया जाए।[1]
समाज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले प्रमुख हस्तियों और पार्टी में मर मिटने वाले सधारण कार्यकर्ता के प्रति मेरे दिल में जो बातें आयीं उसे ही मैं भी समझने का प्रयास करना चाहता हूँ। मेरे दृष्टिकोण से अभिजात्य समाज यानि धन पर नियंत्रण रखने वाले या धन को व्यवस्थित कराने वाले मध्य वर्ग आखिर राजनीति में प्रवेश करते हैं तो शायद आर्थिक संवृद्धि तो होगी मगर आर्थिक विकास सम्भव नहीं है।
विशेष रूप से मध्य वर्ग या टैक्स देने वाले समुदाय जिन्हें हमेशा लगता है राजनीति तो राष्ट्र को ही कमजोर कर रही है। आपस में हमेशा राजनीति और राजनीतिक लोगों का आलोचना करते नहीं थकते मगर प्रत्येक लाल फीता कटवाते वख्त सेल्फी लेने के लिए भी मर मिटते। समाज के चरित्र का निर्माण तो समाज के लोगों से ही बनता है। इसीलिए राजनीति को बुल्कुल ख़ारिज करते हुए एक आई आर एस अधिकारी पहले अपने पद पाकर अपनी इच्छा पूरा किया। सिविल सेवा कोई समाज सेवा नहीं है। सबको पता है सिविल सेवा में चयन होने मात्र से समाजिक हैसियत परिवार, रिश्तेदार और समाज में ऊंचा हो जाता है। उसके बाद सत्ता में बैठे मंत्री के साथ अच्छे संबंध बनने कि संभावना भी बनी रहती है। आर्थिक रूप थोड़ा मजबूत और समाजिक रूप से भी हैसियत में परिवर्तन हो जाता है। बड़े व्यापारी घराने और सत्ता के वास्तविक स्वरूप से पहचान भी हो जाती है। तीन और पांच करके प्रमुख हस्तियों में भी एक हस्ती का निर्माण हो जाता है। मगर दुर्भाग्य यह है कि जो कार्यकर्ता किसी भी दल को हस्ती प्रदान करता है वह प्रतिनिधित्व के काबिल ही नहीं बन पाता है। बाद में कार्यकर्ता को यह समझा दिया जाता है - देखो कुछ जरूर मिलेगा ????????????
सत्ता तो तुम्हारा ही है और तुम्हारे बिना सत्ता मिल ही नहीं सकता। तुम अमूल्य और बेशकीमती साधन हों। मंत्री बनने, एम पी, एम ए एल बनने से तुम कमजोर हो जाओगे। संवैधानिक दायरे के अंतर्गत तुम्हें कार्य करना पड़ेगा। कार्यकर्ताओं तुम्हारी कोई सीमा नहीं है और सीमा में बांधने से तुम्हारी राजनीतिक हैसियत कम हो जायेगी।
राजनीति में
दार्शनिकों के तरह तुम्हारा सम्मान है और क्षेत्र पर तुम्हारी पकड़ है। इसीलिए कोई भी तुम्हें कमजोर नहीं कर सकता। अगर सत्ता में आ गए तो कमजोर हो जाओगें क्यूंकि सत्ता में आने वालों का क्षेत्र पर पकड़ नहीं होता है। पक्ष या विपक्ष दोनों में देखों और ध्यान से देखों कोई भी कार्यकर्ता को सत्ता के संरचना में आखिर शामिल क्यों नहीं किया जाता है। हम अपने होने के कारण समझा रहे हैं देखो जेल चले जाओगे तब आखिर पार्टी कौन चलाएगा। समझो झंडा उठाना जरूरी है इससे हाथ मजबूत होता है और जोर - जोर से नारा लगाने से कभी भी डिप्रेसन नहीं होगा। इसीलिए चिंतित हूँ तुम्हारे अधिकारों के लिए तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा क्यूंकि पद हमेशा समझदार और होशियार लोगों को मिलता है। अगर समझदार और होशियार होते तो कार्यकर्ता ही नहीं बनते।
30 अक्टूबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि नौकरशाहों के लिए न्यूनतम अवधि तय की जाए और राजनीतिक आकाओं द्वारा मनमाने स्थानांतरण पर रोक लगाई जाए। लंबे समय से विधायिका और अधिकारियों के बीच खराब रिश्ते का कारण यह हस्तक्षेप रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा – ‘हमने देखा कि नौकरशाहों में सत्यनिष्ठा और जवाबदेही में गिरावट की मुख्य वजह, राजनीतिक हस्तक्षेप या उस व्यक्ति के कारण होती है, जिनके पास अधिकर हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में नौकरशाहों की भूमिका बहुत जटिल हो चुकी है। प्राय: उन्हें ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं, जिनका अर्थव्यवस्था और तकनीकी क्षेत्र में दूरगामी असर होता है। उनके निर्णय निश्चित रूप से पारदर्शी और लोकहित में होने चाहिएं। उन्हें जनता के प्रति पूरी तरह जवाबदेह होना चाहिए। मनमाना स्थानांतरण नौकरशाही के लिए एक डरावने सपने जैसा है, जिसे राजनेता असुविधाजनक अधिकारियों के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं।’ यह 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश की तरह ही है, जिसे नहीं लागू किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में सीबीआई निदेशक की न्यूनतम अवधि निश्चित करने का आदेश दिया था। यह कानूनी रूप से अकेला पद है, जिसकी न्यूनतम अवधि निश्चित है। इस कारण गृह सचिव, कैबिनेट सचिव, रक्षा सचिव, इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक, रॉ सचिव और कुछ अन्य दूसरों को भी इसका फायदा मिला। एक अधिकारी उतना ही अच्छा होता है, जितना कि दूसरा, लेकिन जो सत्ता पक्ष के अनुकूल नहीं होते, उन्हें गेंद की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर फेंक दिया जाता है।[2]
अगर इसे एक सिद्धांत के तौर पर देखें तो बड़ी विडंबना को दावत दिया जा रहा है। इसका उदाहरण अभी हाल में ही देखने को मिला। जब मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार हो रहा था तो बी जे पी और आर एस एस पृष्ठभूमि के नेताओं पर काफी अनुमान लगाया जा रहा था लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी के तौर पर गैर राजनीतिक लोगों के भूमिका में वृद्धि जरूर हुईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के शासनकाल के चौथे वर्ष में आज रविवार को हुए मंत्रिपरिषद विस्तार में जिन 13 मंत्रियों ने शपथ ली उनमें से चार नौकरशाह हैं।
इनमें आरके सिंह, सत्यपाल सिंह, केजे अल्फॉस और हरदीप सिंह पुरी शामिल हैं। राजकुमार सिंह 1975 बैच के पूर्व आइएएस अधिकारी हैं और बिहार के आरा से लोकसभा सदस्य हैं।
वे केंद्रीय गृह सचिव और रक्षा उत्पादन सचिव भी रहे हैं। सत्यपाल सिंह उत्तर प्रदेश की बागपत सीट से अजीत सिंह को हराकर सांसद बने।
1980 बैच के आइपीएस अधिकारी सिंह मुंबई के पुलिस आयुक्त रह चुके हैं। अल्फॉस कन्ननथनम 1979 बैच के आइएएस अफसर और केरल के भाजपा नेता हैं। 1989 में उनके डीएम रहते कोट्टायम सौ फीसद साक्षरता वाला देश का पहला शहर बना था। हरदीप सिंह पुरी 1974 बैच के आईएफएस अधिकारी हैं।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहने के साथ कई देशों में भारत के राजदूत रहे। हिंदू कॉलेज, दिल्ली में पढ़ाई के समय जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे हैं।[3] रजनीश कुमार ने लिखा है - नौ नए मंत्रियों में से चार पूर्व ब्यूरोक्रैट का होना दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी के पास योग्य लोगों की कमी है इसलिए ब्यूरोक्रैट्स की शरण में जाना पड़ता है।[4] मगर मेरा यह मानना है राजनीतिक संस्कृति में गिरावट आने के पीछे खुद किसी भी दल का कार्यप्रणाली जिम्मेदार है। कर्यकर्ताओं द्वारा पार्टी के निर्णय को मानना अपने ऊपर अत्याचार करवाने के समान है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (पहली संसद के राज्यसभा सदस्य) लिखते हैं :
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
अगर राजनीतिक आकाओं का भय कार्यकर्ताओं में व्याप्त हो जाता है तो आप जीवन भर भय और डर के बंधन में ही रहेगें। आपके टिकट कटते रहेगें और आप संतोष के चादर में अपने को लपेटे रहेगें। हाइकमान का खौफ आपको इस कदर कमजोर करेगा कि उम्र भी निकल जाएगी और मंजिल का रास्ता भी आप भूल जायेगें। समझाने और बुझाने के बाद भी आप भयभीत होकर आज्ञाकारी बनें रहेगें। एक दिन ऐसा आएगा जब आप खुद अपने भविष्य को अंधकार में डालकर दिन के उजाले में आंनद और मजा लेने लगेगें। पहले से और ताकत बनकर उभरेगें और आपका दर्द नारा में दिखाई देगा। हारे मन से आप क्षेत्र में मजबूती के कार्य करेगें। समय भी जा रहा होगा और सत्य से बचने का उपाय है खुद से झूठ बोलना। सबसे यहीं कहेगें मैं अवसरवादी नहीं हूँ सिद्धांतों पर चलता हूँ। रात के अँधेरे में अपने हकीकत को तलाश भी नहीं कर पायेगें। भय का जब दिल में आगमन होता है इंसान विवेक खो देता है। प्रत्येक सुबह उठेगें जिससे आपको शक्ति मिलें मगर आशा कि किरणें भी उम्र भर आपको सलाह देती रहेगीं
उनके सामने
झुकते रहें, डरते रहे, दबते रहें और अपना नाश करते रहें। वो भी आपको झुकाते रहेगें और
दबाते रहेगें अंततः आप स्वयं सोच लेगें क्या लेकर आया था और क्या लेकर जाना था।
व्यक्ति, राज्य, समाज या राष्ट्र मेहनतकश लोगों से ही बनता है। राजनीति में बदलाव आया है वो ऐसे नहीं आया है। अपराधी पहले राजनीति में सहयोग करते थे अब उन लोगों ने अपने विचारों में परिवर्तन किया और खुद शामिल हों गए। राजनीति के पास अगर दिल होता तो क्या होता ?
राजनीति अपने आप से ही कहता भाई
अच्छाई से हर बुराई
को खत्म किया जा सकता है और प्रेम या प्यार पत्थर को भी मोम बना देती है। भाई मेरे मामले में अगर ये नीति अपनाएं तो राज नहीं कर पाओगें।
हमारा अनुभव मुझसे ही प्रश्न करता है - प्रेम, प्यार,संवेदना, भावना, ईमानदारी समझदारी और विनय की भाषा के लिए कोई जगह बची है राजनीति में, अगर ऐसा है तो सिर्फ अपने और अपने परिवार के लिए ही बचा है। उससे जो बचा है वो मित्र, उद्योग और प्रचार तंत्र को चला जाता है।
राजनीतिक सिद्धान्त भी बदल रहे हैं उसके गुण भी समय के साये से पूछ रहा है ये क्या हो रहा है। जनतंत्र में षड्यंत्र के शामिल होने से सिद्धांत के रूप रेखा कोई भी बदल सकता है। कोई भी सिद्धांत कारगर नहीं है क्यूंकि किसी व्यक्ति के प्रवेश से ही सिद्धांत ख़ारिज हो जाता है। दृष्टिकोण और विचार भी कोई विश्वव्यापी सत्य नहीं है।
सुदर्शन की कहानी हार की जीत मानवीय मूल्यों को झकझोर देती है। विश्वाश एक शब्द नहीं है बल्कि मनुष्य के अंदर के गहराई की मूल प्रवृतियों से खुद का परिचय है। घोड़ा अगर बलपूर्वक लिया जाता तो खड़गसिंह के डाकू के प्रवित्ति का परिचायक होता। बाबा भारती ने एक
अपाहिज को घोड़ा पर बैठाया था न कि
खड़ग सिंह को, लेकिन विश्वास को तो चकनाचूर कर देता है जब यह पता चला की अपाहिज तो कोई और नहीं बल्कि खड़गसिंह ही था। बाबा भारती के शब्दों में -
"लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन - दुखियों पर विश्वास न करेंगे।" यह कहते - कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो। यह कहानी ‘हार की जीत’ अपने समय की और समय से आगे की भी कहानी है। नीतिपरक और दृष्टांत की इस कहानी के अंदर मनुष्य की मूल प्रवृतियों का निदर्शन है। और अब भी मूल प्रवृतियां वहीं है। इसलिये यह कहानी मह्त्त्वपूर्ण हो जाती है कि हमें अपने कर्मों को केवल व्यक्तिनिष्ठता की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये बल्कि समाज में उस कर्म की उपयोगिता और उसके प्रभाव पर भी विचार करना चाहिये। इसी में कहानी के शीर्षक की भी सार्थकता है। खडग सिंह छल से घोड़ा प्राप्त कर उनसे जीत गया है बाबा भारती अपने घोड़े की रक्षा में हार गए हैं लेकिन वृहत्तर मूल्यों के स्तर पर खडग सिंह उनसे पराजित होता है। बाबा भारती हार कर जीतते हैं और खडग सिंह भी नहीं हारता, वह अपने भीतर के मनुष्य को पहचानता है, वह रोता है..यह उसके ‘हार की जीत’ है।[5]
राजनीति में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ आज हार की जीत ही हो रही है। बस अंतर इतना
है कि डाकू खड्ग सिंह भी मानवीय मूल्यों को समझ लेता है। बुद्ध के समझाने पर अँगुलीमाल डाकू भी सही रास्ते पर आ जाता है।
भारतीय राजनीति अभी संकट के दौर से गुजर रही है। जहाँ आम कार्यकर्ताओं का सिर्फ इस्तेमाल हो रहा है जो किसी भी संघटन का धूरी होता है। गैर और अराजनीतिक लोगों को लिया जाएँ मगर कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता के आधार पर पहले उन्हें जगह दिया जाएँ।
Comments
Post a Comment