संविधान
दिवस मनाने से कानून और प्रथा के बीच कानून को तरजीह मिल सकेगी। कानून बन जाने मात्र
से समाजिक प्रथा और परम्परा नहीं बदलती है बल्कि समाज में जागरूकता और चर्चा से कुछ
सुधार संभव है। आज भी लोगों के बीच पंचायत परम्परा को ज्यादा तरजीह मिलती है। पुलिस
के घर आ जाने मात्र से समाज में बदनामी हो जाती है, इसीलिए पंच परमेश्वर के परम्परा
को मान्यता मिल जाती है। पंच परमेश्वर के द्वारा व्यक्ति को न्याय मिलने कि जगह उसे
समाजिक मान्यताओं के प्रति समझौते के लिए मजबूर किया जाता है। भारतीय ग्रामीण समाज
में आज भी पंच समाज के वे महत्वपूर्ण लोग होते हैं जो दिमाग से सामंतवादी और परम्परावादी
होते हैं। नैतिक मूल्यों से बना पंचायत अधिकतर अनैतिक कार्यों में ही लिप्त रहती है।
हाल में जाति पंचायत और जाति सम्मेलन का उद्देश्य भी समाज को अप्रगतिशील बनाना ही है।
भावनाओं और अतार्तिक जमीन पर ही इस तरह के लोग अपने हितों के पूर्ति हेतु जाति या धर्म
का चोला ओढ़कर लोगों को गुमराह करते हैं। समाज में उभरता हुआ मध्य वर्ग जो समाजिक हितों
के ज्यादा संवेदनशील दिखाई देते हैं मगर अपने लक्ष्यों के लिए इस तरह के मंचों का इस्तेमाल
करते हैं। ऐसे परिदृश्य में संविधान दिवस समाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण
है जिससे मनुष्य एक तार्किक और विवेकशील प्राणी बन सकें।
अम्बेडकर
ने स्पष्ट शब्दों में कहा था - बहते नाले के पानी में गिरने का स्थान गाँव है। जहाँ
जाति के आधार पर दमन होता है, और समाजिक - आर्थिक पिछड़ेपन का प्रतीक है। इस आशय को व्यक्त करने वाले अपने विचार उन्होंने
कृषि में लघु जोत विषय पर दिया था। ०६ अक्टूबर १९२१ को उनोहोने बम्बई विधान परिषद में
ग्राम पंचायत विधेयक पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था - यह बहुत खरनाक प्रणाली
है। मुझे कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि
ये ग्रामीण गणराज्य भारत के गांव के लिए अभिशाप रहा है। (अम्बेडकर, 1982, 02 :
106) ऐसा इसलिए है कि गांव से स्थानीय लोगों में
प्रेम राष्ट्रव्यापी नजरिया और नागरिक गुण
पनपने देने में बाधक है। पददलित वर्ग के
लोगों के लिए वर्ग के लोगों के लिए
ग्रामीण समाज पराश्रय का प्रतीक था। इसके विपरीत शहरी, औदयोगिक समाज ही दलितों के लिए
उद्धार का मार्ग है, जिसे गाँधी के अनुनायी नापसंद करते थे।[1] कानूनों
के प्रति आज भी ग्रामीण समाज में जागरूकता नहीं होने से उन्हें अपने अधिकारों के बारे
में कोई जानकारी नहीं होती है। ऐसे ही परिदृश्य में अब ग्रामीण समाज में हालत बदलने
के तुलना ज्यादा शोषण बढ़ रहा है। लगभग सभी जातियों के अपने नेताओं और ग्रामीण संरचना
में वर्चस्व रखने वाले व्यक्तियों द्वारा शोषण बढ़ता ही जा रहा है। यहीं कारण है कि
कम पढ़े लिखे लोगों द्वारा जो अपने को नेतृत्वकर्ता कहते हैं वे लोग जाति पंचायत और जाति सम्मेलन को माध्यम बनाकर भोले
- भाले लोगों का शोषण करते हैं। राजनीति और गैर राजनीति जगहों पर अपना स्थान बनाने
में सक्षम भी होते हैं। मनुस्मृति बाद के समाजों में अब मनुस्मृति के नए संस्करण में
कोई मनुवादी नहीं बल्कि हर समाज में अपने लोगों के द्वारा ही अपने लोगों का शोषण ही नव मनुवाद है।
भय
ने भगवान को बनाया और अब आर्थिक और राजनीतिक
भय में मनुष्यों के भीतर अंतरात्मा को ही मार डाला। भय के कारण ही सामंतवादी शोषण के
अवधारणा को मजबूती मिली। अंग्रेजों के भय से भारत गुलाम रहा। प्रभत्वशाली जातियों के
दमन का विरोध नहीं होने के पीछे भी भय है। भय के राजनीतिक विषात पर भी धर्मनिरपेक्षता
और सम्प्रदायिकता का खेल खेला जाता है। संविधान के नजरों में मनुष्य बराबर है लेकिन
भय के वातावरण में संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल क्या सम्भव है ? ऐसे ही माहौल में
ही संविधान दिवस क्या भय के वातावरण को समाप्त कर पायेगी। प्रतिबंध और लोकतंत्र एक
दूसरे के विरोध में खड़े हैं क्यूंकि लोकतंत्र मनुष्य को आजाद करती है। आज के संदर्भ
में संविधान राज्य के भय को दूर करने हेतु ही मूल अधिकार दिए हैं। लेकिन क्या मूल अधिकारों
को कितना आज का मीडिया पॉपुलर बनाया यह सवाल तो बनता ही है।
सुप्रीम
कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) दीपक मिश्रा ने रविवार को कहा कि नागरिकों के मौलिक
अधिकारों के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता है।
यह बात उन्होंने केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद की इस दलील का जवाब देते
हुए कही जिसमें उन्होंने कहा था कि शासन का काम उनके पास रहना चाहिए जो शासन करने के
लिए निर्वाचित किए गए हों। प्रसाद ने कहा था कि जनहित याचिका शासन का विकल्प नहीं बन
सकती है। इसपर सीजेआई ने कहा कि उच्चतम न्यायालय
संवैधानिक संप्रभुता में विश्वास करता है और उसका पालन करता है। उन्होंने कहा, मौलिक अधिकार संविधान के मूल मूल्यों
में हैं और वे संविधान का मूल सिद्धांत हैं।
एक स्वतंत्र न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ संतुलन स्थापित
करने के लिए संविधान के अंतिम संरक्षक की शक्ति दी गई है ताकि इस बात को सुनिश्चित
किया जा सके कि संबंधित सरकारें कानून के प्रावधान के अनुसार अपने दायरे के भीतर काम
करें। संविधान दिवस मनाने के लिए शीर्ष अदालत
द्वारा आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकार के साथ कोई
समझौता नहीं हो सकता। न्यायमूर्ति मिश्रा ने
कहा, नागरिकों का अधिकार सर्वोच्च होना चाहिए। संविधान को स्पष्ट और जीवंत दस्तावेज बताते हुए उन्होंने
कहा, उच्चतम न्यायालय का आज मानना है कि हम सिर्फ संवैधानिक संप्रभुता के तहत हैं और
हमें इसका पालन करना चाहिए। सीजेआई ने कार्यक्रम
में कहा, यद्यपि कोई भी अधिकार पूर्ण नहीं है, लेकिन ऐसी कोई बाधा नहीं होनी चाहिए
जो संविधान के मूल सिद्धांतों को नष्ट करे।
इस कार्यक्रम का उद्घाटन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने किया।[2] न्यायपालिका
और विधायिका में अब संघर्ष बढ़ रहा है क्यूंकि मनुष्यों में अब अधकारों के प्रति सजगता
बढ़ी है। राज्य के निरंशुक व्यवहार के कारण ही बहुत हद तक गांधीजी अराजकतावादी थे। संतुलन
से समान्य समाज यानि पर्तिस्पर्धा के जगह पर सहयोग होना चाहिए।
राष्ट्रपति
राम नाथ कोविंद ने रविवार को कहा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच नाजुक
संतुलन कायम रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि वे सब समान हैं। उन्होंने कहा कि राज्य के
तीनों अंगों को अपनी स्वतंत्रता को लेकर सचेत रहना चाहिए और अपनी स्वायत्तता की रक्षा
के लिए प्रयास करना चाहिए। राष्ट्रपति ने कहा
कि हालांकि उन्हें सजग रहना चाहिए कि वे अनजाने में भी दो अन्य शाखाओं में से किसी
एक के क्षेत्र में घुसपैठ कर शक्तियों को अलग कर आपसी भाईचारे को बाधित नहीं करें। राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय द्वारा आयोजित संविधान
दिवस समारोह का उद्घाटन करते हुए कहा कि राज्य की तीनों शाखाओं के बीच के संबंधों पर
गौर करते समय नाजुक संतुलन को ध्यान में रखना अहम है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका
सभी समान हैं। उन्होंने कहा कि हमारा संविधान
गतिहीन नहीं है, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज है । उन्होंने राज्य की तीनों शाखाओं के बीच संवाद में
संयम और विवेक की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि इससे राज्य की तीनों समान शाखाओं के
बीच भाईचारे को बढ़ावा मिलेगा। उन्होंने कहा
कि राज्य के तीनों अंगों की संविधान के प्रति खास जिम्मेदारी है। इससे आम नागरिक भी आश्वस्त होंगे कि संविधान सुरक्षित
है और परिपक्व हाथों में है। उन्होंने कहा
कि अदालतों में सुनवाई भी, अगर संभव हो तो ऐसी भाषा में होनी चाहिए जो साधारण याचिकाकर्ता
समझा सकें। उन्होंने मामलों के निस्तारण की
प्रक्रिया में भी तेजी लाने की जरूरत पर बल दिया
। राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि यह उच्च न्यायपालिका पर है कि वे निचली न्यायपालिका
को प्रोत्साहित करें और इस प्रक्रिया में राज्य सरकार का सहयोग भी काफी जरूरी है ।
उन्होंने कहा, मुझे यह जानकर खुशी हुई कि कुछ
उच्च न्यायालय इस दिशा में कदम उठा रहे हैं । 30 जून 2017 तक झारखंड उच्च न्यायालय के तहत सत्र
एवं जिला अदालतों में करीब 76 हजार मामले थे जो पांच साल या उससे अधिक समय से लंबित
थे। उच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में से करीब
आधे मामलों को 31 मार्च 2018 तक निस्तारण का लक्ष्य रखा है। राष्ट्रपति ने कहा कि संविधान
एक अमूर्त आदर्श मात्र नहीं है और इसे देश की हर गली, हर गांव और हर मोहल्ले में आम
जनता के जीवन को सार्थक बनाना होगा।[3] भारत
के राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविंद
ने जिन प्रश्नों को उठाया वो काफी महत्वपूर्ण है। कृपाशंकर चौबे ने अपने लेख संविधान दिवस की सार्थकता (दैनिक जागरण) में लिखते हैं - आम भारतीय नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के प्रति तो थोड़े सजग दिखते भी हैं, किंतु कर्तव्यों के प्रति प्राय: उनमें सजगता नहीं दिखती। राज्य के नीति निदेशक तत्वों के प्रति भी अधिसंख्य नागरिकों में वांछित सजगता नहीं नजर आती।[4] नागरिकों को अधिकारों और कर्तव्यों दोनों के प्रति सजग होना चाहिए। संतुलित समाज ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण करेगी। प्रकृति और समाज में संतुलन ही एक अच्छे भविष्य को बना पायेगी।
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