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आंदोलन और राजनीति के बीच दम तोड़ता आरक्षण और जाति

नव भारत टाइम्स के रिपोर्ट के अनुसार -गुजरात चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस को हार्दिक पटेल के संगठन पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का साथ मिल गया है। हार्दिक ने कहा कि विधानसभा चुनाव में उनकी लड़ाई बीजेपी से है, इसलिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर वह कांग्रेस का समर्थन करेंगे। PAAS के संयोजक हार्दिक पटेल ने बुधवार को कहा कि कांग्रेस ने हमारी सभी मांगों को स्वीकार कर लिया है। यदि कांग्रेस पार्टी सत्ता में आती है तो हमारी सभा मांगों को पूरा करने का प्रयास करेगी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने हमारी पटेल आरक्षण की मांग को मान लिया है। पार्टी का वादा है कि वह विधानसभा में गैर-आरक्षित समुदाय के लिए विधेयक पेश करेगी। उन्होंने कहा, 'कई राज्यों में आरक्षण की सीमा को 49 फीसदी से अधिक किए जाने पर अदालत ने रोक लगाई है। ऐसे में किसी भी तरह की रोक से बचने के लिए कांग्रेस सरकार बनते ही विधेयक लाएगी। उन्होंने कहा कि आरक्षण की 49 फीसदी की सीमा को पार करना संभव है और ऐसा कई राज्यों में हुआ है।' हार्दिक पटेल ने दावा किया कि कांग्रेस ने पटेल समुदाय को ओबीसी की तर्ज पर आरक्षण देने में सहमति जताई है। पाटीदारों को अन्य पिछड़ा वर्ग की तरह लाभ मिलेंगे। हार्दिक ने कहा कि कांग्रेस सरकार पैनल बनाकर मंडल कमिशन की सिफारिशों के आधार पर सर्वे कराएगी और गैर-आरक्षित पिछड़े लोगों को इसके आधार पर लाभ दिया जाएगा। उन्होंने कहा, 'कांग्रेस और मैंने मिलकर समझौते का ड्राफ्ट तैयार किया है।' यही नहीं हार्दिक पटेल ने कांग्रेस और PAAS के बीच हुए समझौते को लेकर कहा कि इसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन भी नहीं होगी।[1] पाटीदार  नेता और पाटीदार अमानत आंदोलन समिति (पीएएएस) के नेता   हार्दिक पटेल ने कहा कि गुजरात के गांव में गरीबी और बेरोजगारी है। गुजरात में गुजरात मॉडल का झूठा प्रचार हो रहा है। उन्होंने भाजपा पर आरोप लगाते हुए कहा कि 200 करोड़ देकर भाजपा ने निर्दलीय उम्मीदवार उतारे हैं। बीजेपी पर आरोप लगते हुए पटेल ने ये भी कहा - कोटा आंदोलन या आरक्षण आंदोलन को   वापस लेने के लिए 1200 करोड़ रुपये की पेशकश की गयीं थी।[2] इस तथ्य को ऐसे सिर्फ हार्दिक पटेल ही बता सकते हैं।
समाजिक आंदोलन से राजनीतिक दल का निर्माण या निष्ठा में बदल जाने से आंदोलनों के इतिहास पर बुरा ही असर पड़ता है। बहुजन पार्टी ने ब्राह्मणवाद के विरोध से दलित - ब्राह्मण राजनीति में परिवर्तित होने के बाद लोकसभा शून्य और विधानसभा में मात्र उन्नीस सीटों का हश्र भी एक इतिहास है। रिपब्लिकन पार्टी कितने खंड में है इसकी जानकारी भी नहीं है। लोक जन शक्ति पार्टी मोदी लहर में लोकसभा में छह सीटों पर सफलता प्राप्त करती है लेकिन लालू - नीतीश गठबंधन के बाद एकमात्र सीट पर विजयी होती है। उदित राज दलविहीन होकर स्वयं के अस्तित्व को ही भाजपा में शामिल कर लिया। हाँ इतना जरूर है भाजपा में नहीं जाते तो लोकसभा के दर्शक दीर्घा में बैठना पड़ता। बहुजन आंदोलन या पिछड़ा आंदोलन अपने स्वरूप में बहुत बड़े प्रश्नों के साथ उभरती है लेकिन सत्ता में आने के लिए मुख्यमंत्री, कैबिनेट या राजयमंत्री के पद के लालसा के सामने दम तोड़ देती है। सत्ता के लिए समुदाय हित को छोड़ना और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के आग में जल जाना हकीकत है। आज जो हर्दिक पटेल जी ने रास्ता अपनाया इससे अच्छा तो केजरीवाल मॉडल को अपना लेते तो बेहतर राजनीतिक समझ का परिचय देते। टिकट के खेल में गठबंधन में कब गांठ पर जाएँ ये तो आने वाला समय ही बता पायेगा।

नीतीश कुमार द्वारा गुजरात में चुनाव प्रचार करने से पटेल समाज के विरुद्ध ही संदेश जायेगा। प्रधानमंत्री के पद के महत्वकांक्षा को खत्म करने का यह अर्थ नहीं हों - आने वाले समय में जनाधार ही खत्म कर लिया जाएँ। लव - कुश सम्मेलन ने ही नीतीश कुमार को बिहार में राजनीतिक जमीन दिया था। जमीन में अगर दरार पड़ा तो भूकंप आये बिना ही जनाधार हिल जायेगा। यह महज संयोग नहीं है लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री ने कहा - ऊना छोटी घटना है। हमारे विचार से समाजिक न्याय के संदर्भ में लालू, पासवान और नीतीश परिपक्क नेता हैं। आपसी संघर्ष और घृणा में  कहीं अब गुमनाम हो जाएँ।

समाजशास्त्री सतीश देशपांडे के अनुसार,  2014 में नरेंद्र मोदी की भूस्खलन जीत ने जाति का अंत होने के रूप में स्वागत किया था, क्योंकि उन्होंने ओबीसी से इनकार करते हुए कहा कि उनकी भारत की राजनीति में अब तक निर्णायक भूमिका है। अठारह महीने बाद, बिहार के चुनावों के साथ, यह स्पष्ट है कि इसके अंत की रिपोर्टों को अतिरंजित किया गया था। अन्य पिछड़ा वर्ग - ओबीसी - तीन-अक्षर के संक्षिप्ताक्षरों के बीच एक विशेष स्थान है जिसने पिछली तिमाही की शताब्दी में राष्ट्रीय राजनीति का आकार दिया है। यदि यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) और एनडीए (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन) ने औपचारिक सरकार की मंशा पर नियंत्रण किया है, तो यह स्पष्ट नहीं है कि इस अवधि के दौरान ओबीसी ने हमारी राजनीति को निखारने में एक निर्णायक भूमिका निभायी है।[3]
उच्च जातियों के राजनीतिक एकाधिकार को चुनौती मूलतः अन्य पिछड़ा वर्ग में प्रभुत्वशाली जातियों द्वारा दी गयीं। मसलन बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपने पंद्रह वर्षों के शासन काल में भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानि कायस्थ) जातियों पर सीधा प्रहार किया। पुनः पिछड़ी जाति से नीतीश कुमार जो कुर्मी जाति से हैं, उन्होंने भी नेतृत्व अपने पास रखा और परिधि पर ही उच्च जातियों के नेताओं को रखा। मगर साम्प्रदायिकता का मुखर विरोध करते हुए भजपा से गठबंधन को तोड़ा और लालू प्रसाद यादव के साथ  नया समीकरण बनाया। पुनः वर्चस्व और शक्ति के संदर्भ में ही लालू प्रसाद यादव से गठबंधन तोड़ा और एन डी में शामिल होकर दुबारा मुख्यमंत्री बनें। वहीं यू पी के चुनाव को ठीक से देखा जाएँ तो हिंदुत्व जो धर्म से ही संबंधित नहीं है बल्कि धरातल पर उनके जीवन शैली भी है, जहां से जाति जैसी संस्था का उद्भव हुआ है वहां मुलायम और मायावती के टकराव के कारण ही भाजपा जीती। भाजपा के जीतने से और सपा के जीतने से कोई अन्तर नहीं है। अपराधीकरण दोनों शासनों में अगर होता है तो यह मानसिक मनोवृत्ति के ख्याल को भी छोड़ना उचित नहीं है। समाज के  दर्पण से ही  राजनीति और राजनीतिज्ञ हमेशा अपना चेहरा देखते हैं। संवेदनशून्यता के दौर में जहाँ जीवन के हर पहलू में अमानवीयता को देखा जा सकता है।
मानव जब जाति के आधार पर वर्गीकृत हों तो मानव के भीतर आखिर मानवीय मूल्यों का विकास सम्भव ही नहीं है। ट्रैन हों या बस या कोई अन्य सार्वजनिक स्थल जब तक एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के जाति को जान नहीं लेता है तब तक वह घुमा - फिरा के बात करता है। जैसे ही दो या दो से अधिक मनुष्यों को एक - दूसरे के जाति का ज्ञान होने से वह एक - दूसरे के भावना अनुकूल वार्तालाप करते हैं विशेष पीठ पीछे के लिए छोड़ दिया जाता है।
निकोलस बी डर्क के अनुसारभारत में  जाति व्यवस्था अक्सर पारंपरिक  संस्कृति में गहराई से एक संस्था के रूप में देखी जाती है। हालांकि ध्यान से अध्ययन करने पर जाति व्यवस्था कम से कम आंशिक रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रथाओं द्वारा आकारित थी। ब्रिटिश पहुंचने से पहले, भारतीय समाज बहुत ही सांप्रदायिक समूहों में विघटित हो गई थीं, जो सामाजिक पहचान के केंद्र थे। इन समूहों को समझने की कोशिश में, पुर्तगाली ने पहली बार जाति की पहचान का सुझाव दिया। अंग्रेजों ने भारतीय समाज में आदेश को बढ़ावा देने के लिए इस विचार पर विस्तार किया। उनके लिए धन्यवाद, जनगणना के लिए आवश्यक अनुशासन ने जाति वर्गों की स्पष्ट पदानुक्रम स्थापित करने में मदद की। यद्यपि भारतीय खुद को वर्षों के लिए जाति वर्ग के बारे में परस्पर विरोधी रहा है, अब जाति भारत की प्रतिस्पर्धी राजनीति में एक कारक बन गई है। निकोलस डर्क  का तर्क है कि जाति व्यवस्था न तो प्राचीन भारत के एक अपरिवर्तित अस्तित्व है और  न ही एक प्रणाली जो एक मुख्य सांस्कृतिक मूल्य को दर्शाती है, बल्कि जाति वास्तव में है। जाति एक आधुनिक घटना है - जो भारतीय परंपरा की मूल अभिव्यक्ति के बजाय भारत और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बीच ठोस ऐतिहासिक मुठभेड़ का उत्पाद या परिणाम है। यहाँ पर डर्क्स बिल्कुल स्पष्ट करते हैं - जाति का आविष्कार  ब्रिटिश द्वारा नहीं  किया गया था, लेकिन जातियों के वर्चस्व के तहत ब्रिटिश प्रशासन ने भारत के विभिन्न प्रकार के सामाजिक पहचान और संगठन के नाम पर और इसके बाद भी एक एकल शब्द जाति द्वारा सक्षम हो गया।
मेरे अनुसार, जाति व्यवस्था अधिकतर लोगों के सोच और आदतों में इस कदर शामिल है जिससे निजात पाना इतना आसान नहीं है। विशुद्ध रूप से जाति संस्था समाजीकरण के द्वारा एक पीढ़ी से आने वाली पीढ़ियों में बिना प्रयास और मेहनत से दिमाग के संरचना में चला जाता है। इसी कारण इसे व्यवहार के कई रूपों में देखा जा सकता है। यहाँ तक कि चुटकुले, मजाक और बोलचाल के भाषा में इतना घुला मिला होता है जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है।
जन्म आधारित जाति व्यवस्था मानव को नैतिक और समाजिक मूल्यों के प्रति असंवेदनशील बनाने कि प्रक्रिया है। यह व्यवस्था मनुष्य को बर्बर, हिंसक, अतार्किक, अविवेकशील और सद्गुणों का नाश करता है। किसी भी दलित हिंसा के स्वरूप को अगर आप करीबी से देखेगें तो ऐसा लगेगा यह आखिर मनुष्य नहीं कोई जानवर ही ऐसा कर सकता है। बोलने की आवश्यकता नहीं कि दलित के प्रति हिंसा में महिलाओं को नग्न करना, पूरी रत पिटाई करना, नग्न कर पूरे गाँव में घुमाना, हर उम्र के लोगों के द्वारा बलात्कार या अमानवीय कुकृत्य को आखिर जाति संस्था से सम्भव है। दलित नेताओं में एक नयीं प्रवित्ति का विकास हुआ है जैसे ही सत्ता समाप्त हुईं या दल बदलने की इच्छा हुईं दलित शोषण का नाटक प्रारम्भ कर देना, नेता भी जनता है नाटक है और पब्लिक भी पूरा आनंद लेती है। इस प्रकार दोहरे चरित्र का विकास कतई सामाजिक आंदोलन नहीं हो सकता है।
भारतीय राजनीति में आप राजनीति करिये मगर आरक्षण या भ्रष्टाचार या सामाजिक मुद्दों को साया बनाकर अगर किया गया तो लोकतंत्र के मर्यादा को हानि उठानी पड़ेगी जिसका नुकसान हम सबों को उठाना पड़ेगा। 



[1] https://navbharattimes.indiatimes.com/state/gujarat/ahmedabad/congress-has-agreed-to-all-conditions-says-hardik-patel/articleshow/61749376.cms
[2] http://www.thehindu.com/elections/gujarat-2017/hardik-patel-accepts-congress-quota-formula-for-patidars/article20632150.ece?homepage=true
[3] http://www.thehindu.com/opinion/lead/the-obc-primer-on-indian-politics/article7847129.ece

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