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भय, भयानक, नफरत और अविश्वास के सायें में : व्यक्ति, समाज, राजनीति और राज्य

मनुष्य एक समाजिक और रजनीतिक प्राणी के अलावे वह मनोवैज्ञानिक रूप से नियंत्रित प्राणी है। भय, भयावह और भयानक वारदातों से मनुष्य के बारे पुनः सोचना अनिवार्य हैं।

अमेरिका के टेक्सास प्रांत में एक बैपटिस्ट चर्च में रविवार को गोलीबारी की घटना हुई।  इस गोलीबारी में कम से कम 26 लोगों के मारे जाने की खबर है।  इसके अलावा हमले में कई लोग घायल हुए हैं।  हमलावर ने चर्च में प्रार्थना के लिए आए लोगों को निशाना बनाया।  अमेरिकी मीडिया में आई खबरों से यह जानकारी मिली है।  हमलावर के मारे जाने की खबर है। बताया गया है कि शूटर दोपहर से थोड़ी देर पहले चर्च में घुसा और उसने गोलीबारी शुरू कर दी  इस घटना के वक्त चर्च में करीब 50 लोग मौजूद थे।  डलास मॉर्निंग न्यूज वेबसाइट की खबर के अनुसार घायलों में दो साल का एक बच्चा भी शामिल है।  विल्सन काउंटी के कमिश्नर अल्बर्ट गेम्ज़ जूनियर ने एएफपी को बताया कि कई मौतें हुईं और कई लोग घायल हुए।  हालांकि वे आधिकारिक तौर पर संख्या नहीं बता सके। कुछ अधिकारियों ने मीडिया रिपोर्टों में बताया कि 27 लोगों की मौत हुई और 20 से अधिक लोग घायल हो गए।[1]

अमेरिका के टेक्सास प्रांत में जो घटना घटी वह सभ्य समाज पर कलंक है। धार्मिक स्थल पर अधिकतर लोग प्रार्थना कर अपने प्रभु को याद कर रहे तभी अचानक 26 वर्षीय युवक डेविन पी केली (जिसका अभी हाल में ही   कोर्ट मार्शल कर एयरफोर्स से बर्खास्त किया गया था) ने उन लोगों को अपने निजी जिंदगी के अवसाद के कारण निर्मम, अमानवीय और जघन्य अपराध को अंजाम दिया। दो साल का बच्चा तक आज जिंदगी और मौत के बीच हॉस्पिटल में जूझ रहा है।[2]  इसीलिए हमारे समझ से व्यक्ति और समाज आज भय, भयानक, नफरत और अविश्वास के सायें में जी रहा है और राजनीति - राज्य एक संस्था के तौर पर खामोश है।

नफरत और हिंसा के युग का आगमन प्रारम्भ हो रहा है और समाजिक संस्थान काफी कमजोर पड़ते जा रहे हैं। मनुष्यों में अवसाद और अभिशाप के भावना में जिस प्रकार से वृद्धि हो रही है उससे समाजिक व्यवहार में भी काफी बदलाव रहा है। समाजिक मनुष्य से आर्थिक मनुष्य में परिवर्तन होने से मानसिक रूप से व्यक्ति स्वयं और दूसरों को नुकसान पहुँचाने में अपनी पूरी ऊर्जा का इस्तेमाल करते जा रहे हैं। राज्य अपने भूमिका को सीमित करते जा रहा है। माँग और पूर्ती पर आधारित बाजार केंद्रित व्यवस्था राज्य को अपने नियंत्रण में लेते जा रहा है। मनुष्य के दृष्टिकोण से आश्चर्य कि बात यह है की आज भी बाजार केंद्रित व्यवस्था में गरीब, मजदूर, आर्थिक और समाजिक रूप से कमजोर व्यक्ति को जगह दे नहीं रही है और राज्य अपने कर्तव्यों को ठीक से समझ ही नहीं पा रही है।

बंदूक देने या नहीं देने वाले नीति से हिंसा का कोई संबंध नहीं है। हिंसा को रोकने जब राज्य नाकाम रहती है तो नीति पर प्रश्न उठाने लगते हैं। क्या बंदूक को सब लोगों से छीन लिया जाएँ तो हिंसा रूक जाएगी। ऐसा नहीं है, क्यूँकि हिंसक व्यवहार पर अध्ययन कर मनुष्यों  के अंतर्मन या विचार को सकारात्मक दिशा में लाने की आवश्यकता है। घरेलू हिंसा, बच्चों के साथ हिंसा और कमजोर वर्गों के साथ हो रही हिंसा में बंदूक कि कोई भूमिका नहीं है। आजकल भावनात्मक हिंसा में भी बढ़ोतरी हो रही है। मनोवैज्ञानिक हिंसा के बृहत स्वरूप में अगर समाज के हाशिये वर्ग के संदर्भ में अभी भी समझ का अभाव है। शिकार  और शिकारी दोनों को पता नहीं है भवनावनात्मक हिंसा का चरित्र क्या है ? घरेलू दायरे में  किसी महिला का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना जिसके साथ महिला के पारिवारिक सम्बन्ध हैं, घरेलू हिंसा में शामिल है।  “घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिला संरक्षण अधिनियम की धारा, 2005” घरेलू हिंसा को पारिभाषित किया गया है -“प्रतिवादी का कोई बर्ताव, भूल या किसी और को काम करने के लिए नियुक्त करना, घरेलू हिंसा में माना जाएगा

() क्षति पहुँचाना या जख्मी करना या पीड़ित व्यक्ति को स्वास्थ्य, जीवन, अंगों या हित को मानसिक या शारीरिक तौर से खतरे में डालना या ऐसा करने की नीयत रखना और इसमें शारीरिक, यौनिक, मौखिक और भावनात्मक और आर्थिक शोषण शामिल है; या

() दहेज़ या अन्य संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की अवैध मांग को पूरा करने के लिए महिला या उसके रिश्तेदारों को मजबूर करने के लिए यातना देना, नुक्सान पहुँचाना या जोखिम में डालना ; या

() पीड़ित या उसके निकट सम्बन्धियों पर उपरोक्त वाक्यांश () या () में सम्मिलित किसी आचरण के द्वारा दी गयी धमकी का प्रभाव होना; या

() पीड़ित को शारीरिक या मानसिक तौर पर घायल करना या नुक्सान पहुँचाना

शिकायत किया गया कोई व्यव्हार या आचरण घरेलू हिंसा के दायरे में आता है या नहीं, इसका निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्य विशेष के आधार पर किया जाता है [3]

महिलाओं के समान ही अब बुजुर्गों के साथ भी हिंसा के घटना में बढ़ोतरी हो रही है।
नवभारत टाइम्स में छपी खबर  (July 24, 2017)  कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा है - बुजुर्गों को सताना भी हिंसा के बराबर ही है। सिटी सिविल कोर्ट ने माना है कि शारीरिक रूप से किसी के साथ मारपीट करना ही हिंसा नहीं है, बल्कि इसका व्यापक अर्थ है। उसका कहना है कि किसी बुजुर्ग को तंग करके अपने ही घर में से बाहर निकालने की गतिविधि भी हिंसा ही है। कोर्ट का मानना है कि किसी को भावनाओं के आधार पर ठेस पहुंचाना या किसी को उसके ही घर से बाहर निकालना भावनात्मक गाली है और वह एक घरेलू हिंसा मानी जा सकती है। कोर्ट के इस फैसले का समाज पर व्यापक असर होगा और बहुत से विवाद इसी नजीर से निपट सकेंगे।[4]

हमारे समाज के लिए चिंता कि बात है कि बुजुर्गों को भी अपमान और अन्याय का सामना करना पर रहा है। स्वयंसेवी संस्था एजवेल फाउंडेशन के अध्यक्ष हिमांशु रथ लिखते हैंपिछले 50 वर्षों में भारत की जनसंख्या लगभग तीन गुनी हो गई है, लेकिन बुजुर्गों की संख्या चार गुना से भी ज्यादा हो गई है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में बुजुर्गों की संख्या (60+) सात करोड़ 70 लाख थी और 2011 की जनगणना में बताया गया कि यह संख्या जल्दी ही 10 करोड़ को पार कर जाएगी। पिछले एक दशक में भारत में वयोवृद्ध लोगों की आबादी 39.3% की दर से बढ़ी है। आगे आने वाले दशकों में इसके 45-50 प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद है। दुनिया के ज्यादातर देशों में बुजुगों की संख्या दोगुनी होने में 100 से ज्यादा वर्ष लग गये, लेकिन भारत में इनकी संख्या केवल 20 वर्षों में ही दुगुनी हो गई। आज औसत आयु बढ़कर 70 से ज्यादा हो गई है। बेहतर चिकित्सा सुविधाओं, देखभाल और उदारवादी परिवार नियोजन नीतियों से देश में बुजुर्गों की संख्या सबसे तेजी से बढ़ी है। बुढ़ापे से संबंधित समस्याओं की गंभीरता को महसूस करते हुए भारत सरकार ने इनसे निपटने के लिए कई नीतियां और योजनाएं बनायी हैं। सरकार वयोवृद्धता से संबंधित मैड्रिड अंतर्राष्ट्रीय कार्य योजना सहित वयोवृद्धता के बारे में विभिन् अंतर्राष्ट्रीय कार्य योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए भी प्रतिबद्ध है।  भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 1999 में बुजुर्गों से संबंधित राष्ट्रीय नीति बनायी, जिसमें वरिष् नागरिकों को वित्तीय सुरक्षा, स्वास्थ् देखभाल और पौष्टिकता, आश्रय,जानकारी संबंधी आवश्यकताओं, उचित रियायतों आदि में सहायता प्रदान करना, वरिष् नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा जैसे उनके कानूनी अधिकारों की रक्षा करने और इन्हें मजबूत बनाने पर विशेष ध्यान देना, इतना ही नहीं विभिन् मंत्रालयों और विभागों द्वारा क्रियान्वयन के लिए कार्य योजना तैयार की गई। अभिभावकों और वरिष् नागरिकों के गुजारे और कल्याण से संबंधित कानून, 2007  में कानून बना। इस कानून के अंतर्गत  माता-पिता/दादा-दादी को उनके बच्चों से आवश्यकतानुसार गुजारा भत्ता दिलवाने की व्यवस्था है। कानून में वरिष् नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा, बेहतर चिकित्सा सुविधाओं और हर जिले में वृद्ध सदनों की स्थापना जैसी व्यवस्थाएं हैं। कानून के बारे में पूरी जानकारी होने और विभिन् स्तरों पर ठीक तरह से कानून लागू होने के कारण बड़ी संख्या में वृद्ध जन इस कानून के अंतर्गत मिलने वाले लाभ प्राप् नहीं कर पा रहे हैं।

कुछ समय पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा करवाए गए एक सर्वे के अनुसार दिल्ली के 50 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिक अपनी संतानों द्वारा अनादर के शिकार हैं तथा 92.4 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिक चाहते हैं कि बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा अनादर करने वाले बच्चों के लिए कठोर दंड की व्यवस्था होनी चाहिए। अमरीका में मैसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ टैक्नालोजी के वैज्ञानिकों ने कहा है कि ‘‘वृद्धावस्था में अकेलापन बुजुर्गों की समय से पूर्व मौत का मुख्य कारण है। एक निश्चित आयु के बाद भावात्मक और शारीरिक रूप से अकेलापन हर व्यक्ति के लिए विनाशकारी साबित होता है और वृद्धों के मामले में तो यह बहुत बड़ी समस्या बन गया है।  इस रिपोर्ट में यह चेतावनी भी दी गई है कि, ‘‘अकेलेपन के परिणामस्वरूप व्यक्ति मानसिक तथा शारीरिक रूप से अस्वस्थ होता चला जाता है अत: चिकित्सीय एवं नैतिक दोनों ही पहलुओं से बुजुर्गों को अकेलेपन और उपेक्षा के शिकार नहीं होने देना चाहिए।  इन वैज्ञानिकों के अनुसार, दिमाग के भीतर स्थित एक  ‘लोनलीनैस सैंटरव्यक्ति में अवसाद का मुख्य कारण है। शरीर में तनाव का स्तर बढ़ जाने से उनकी गतिशीलता और रोजाना के काम करने की क्षमता तेजी से घटती जाती है जो अंतत: जानलेवा साबित होती है।[5] उच्चतम न्यायालय को  बुजुर्गों के अधिकारों के संरक्षण के लिए  आगे आना अच्छी बात है।  मगर समाज के अंदर संवेदना और भावना अब समाप्त होती जा रही है। वर्ष २०१६ में  शीर्ष न्यायालय ने एक याचिका पर एनजीओ हेल्पएज इंडिया और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) से भी सहायता मांगी है। साथ ही सरकार से भी जवाब मांगा था। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टी एस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को भी नोटिस जारी करते हुए कहा कि हेल्पएज इंडिया अहम भूमिका निभा रहा है।
इस बात की जरूरत है कि एक स्वीकार्य हल तलाशने और योजनाओं को लेकर एनजीओ हमारी सहायता करे। पीठ ने नालसा के सदस्य से इस बात का भी जवाब देने को कहा कि क्या वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए कोई योजना है और यदि ऐसा है तो उसकी प्रति उच्चतम न्यायालय को सौंपी जाए।[6]  भारतीय समाज आदर्श के रूप में काफी उच्च मानदंड और परम्परा का हमेशा ख्याल रखा है। श्रवण कुमार के कहानी को हर इंसान जानता है और भारत के पुत्र मां और पिता को भगवान का दर्जा देते हैं। हकीकत यह है पेड़ों, पत्थरों, जानवरों, निर्जीव वस्तुओं  से लोग दुआ मांगते हैं  और मां बाप को बोझ मानते हैं। इतना ही ही नहीं उनके ऊपर अत्याचार के मामले बढ़ते ही जाए रहे हैं।

व्यक्ति और समाज दोनों से समाजिक व्यवस्था चलती है। जब व्यक्ति समाज के साथ सहयोग करता तभी राज्य भी सही से कार्य करता है। राज्य मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती है तो उसकी जिम्मेदारी यह भी है राज्य के अंदर रहने वाले मनुष्यों द्वारा जो भी गलती हो रही है उसका आकलन और सुधार करें। एक व्यक्ति हो सकता है अपने कोर्ट मार्शल के घटना से परेशान हों मगर उसके द्वारा किया कार्य जिससे लोगों कि मृत्यु और कई सारे लोग घायल हुए। इसका अर्थ यह है राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा नहीं दे पायी।

पूरे विश्व में भय के वातावरण का निर्माण हो रहा है। आतंकवादी घटना, हिंसा, नफरत, अविश्वास, घृणा, धोखा, क्रोध, त्वरित पूँजी कमाने और अमानवीय मूल्यों में वृद्धि हो रही है। राज्य को अब समाज और व्यक्ति के अंदर पनपते असंतोष का वैज्ञानिक अध्ययन करने का समय गया है। अगर  कोई भी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति से हिंसा करता है तो यह राज्य के कमजोर होने कि निशानी है।

आचार्य रामचंद्र शुल्क ने लिखा है - किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण से जो  साक्षात्कार होता है और उसी के कारण जो   एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं।[7] अगर इंसान भावना विहीन हो जाएँ तो मूल्य  विहीन भी हो जायेगा। भय एक मनोरोग है जो व्यक्ति के अंदर किसी घटना कारण उतपन्न होता है। इतना ही नहीं भय के कारण ही कोई व्यक्ति अपने साथ हुए शोषण को भी शोषण नहीं मान पता है। भय अगर कोई आतंकवादी पैदा करता है तो इंसान क्या सही में डरता है ? जी नहीं बिलकुल भी नहीं डरता है क्यूँकि भय के कारण कोई भी व्यक्ति अगर नौकरी छोड़ेगा तो स्वतः वह भयमुक्त हो जायेगा। भय और डर मनुष्यों में होता ही नहीं है। जब इंसान कोई गलत कार्य करता है तो उसे भय नहीं होता है लेकिन उसे यह लगे इस गलत कार्य के कारण उसकी क्षति या परेशानी होने वाली है तो उसके मन में भी उतपन्न होगा। भय इस संदर्भ में बचाव के विकल्प में खो जाता है। सफलता मिलने पर भयविहीन और विफलता मिलने पर भययुक्त हो जाता है।

भय के बाद क्रोध भी अपने राह को तलाश करता है। कमजोर के प्रति या भावना के सागर में जाने बाद ही क्रोध जन्म लेता है।  मानवीय पक्ष का यह पहलू बहुत ही अजीब है क्रोध जितना जल्दी आता है उतना जल्दी जाता भी है। धैर्य और धन के अभाव में भय और क्रोध जैसे अवगुण का विकास होता चला जाता है। ख़ुशी और खौफ भी सापेक्ष ही है। राजनीति में आजकल भय काफी पैदा किया जा रहा है। सरकार जाने के बाद और आने के बाद कोई भी राजनीतिक दल भय, डर, खौफ के वातावरण को बढ़ाता है। इसीलिए अगर समाज में रहने वाले लोगों पर ही निर्भर करेगा राज्य और सरकार को किस प्रकार संचालित करेगा। राज्य भय तभी बढ़ा सकता है जब समाज में आपसी एकता कम हों। समाजिक रूप से जाति, वर्ग, धर्म, प्रजाति, नृजातीयता, क्षेत्र, भाषा में एकता नहीं होगी तो राज्य भय के माहौल को बढ़ा देता है लेकिन एकता आते ही राज्य लोगों को नियंत्रित करने का अन्य माध्यम चुनती है। जनतंत्र में जन शब्द तय करता है राज्य में कौन सा दल शासन करेगा और कौन सा नहीं करेगा।

राज्य के सत्ता में वहीं शासन करता है जिसकी राजनीति अच्छी हों। अरस्तू ने कहा है किआदर्श राज्य में नागरिकों की संख्या बहुत अधिक और बहुत कम होनी चाहिए।जीवन की सर्वोत्तम रूप में शासित करने की योग्यता हो।

भारत जैसे विकासशील राष्ट्र जहां जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं लगाया जा रहा है और कल्याणकारी कार्यक्रमों को भी लागू किया जा रहा है। सीमित संसाधन और असीमित इच्छाओं के बीच मनुष्य, समाज और राज्य अपने लक्ष्य को आखिर कैसे प्राप्त करेगा। लोकतंत्र में जन आकांक्षा को पूर्ति अगर राज्य करती है तो उसे जन के संख्या पर अंकुश तो लगाना ही होगा। सर्वे भवन्तु सुखिन: जैसी विचारधारा कभी भी सफल नहीं हो सकती जब तक कि राजनेता को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र हित के लिए कुछ कानूनों को बनाना ही पड़ेगा। अविश्वास का महल तो कभी भी छोटे से भूकंप से ही गिर जायेगा। राजनीति और राजनेता दोनों को आज समाज अविश्वास के नजरों से देख रहा है। सरकारें तो आती जाती रहती हैं लेकिन  जन हित ही लोकतंत्र का हित है।

अगर इस गौर नहीं किया गया तो असंतोष प्रत्येक क्षेत्र में उत्पन्न हो जायेगा - कृषक, दलित,आदिवासी, मजदूर, महिला आदि। समय का चक्र घूमता ही रहता है लेकिन धूरी स्थिर ही रहती है। समाजिक समस्याओं का मंथन होना जरूरी है इसी से हल निकलेगा। सत्ता के प्राप्ति और व्यक्ति विशेष के सुख, भोग और लोभ कि कामना से दुनिया में आज तक अनेकों बार जनसंहार हुए हैं। राज् विस्तार और धन को संग्रह के प्रवित्ति प्राचीन  काल से ही भय, भयानक, नफरत और अविश्वास के सायें में  ही पनपता रहा है।

युद्ध में जीत और हार नहीं होती है। एक ओर  युद्ध में जीतने वाला पक्ष  विनाश कर  खुश होता है तो  दूसरी ओर हरने वाला पक्ष उस भयानक त्रासदी के गम में डूब जाता है। दोनों ओर मनुष्य के अंदर जानवरों के प्रवित्ति के प्रदर्शन का ही प्रतीक होता है। सुख की कामना विनाश लीला से नहीं आती है।







[1] https://khabar.ndtv.com
[2] http://zeenews.india.com
[3] http://vle.du.ac.in
[4] https://navbharattimes.indiatimes.com
[5] http://www.punjabkesari.in
[6] http://m.navodayatimes.in
[7] http://www.hindisamay.com

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