भारतीय राजनीति में सहिष्णुता (TOLERANCE) और असहिष्णुता (INTOLERANCE) पर गंभीर विचार विमर्श (DISCOURSE) प्रारम्भ होना जनतंत्र के मजबूती का प्रमाण है। किसी भी मुद्दे पर बहस या चर्चा होने से जन भागीदारी बढ़ती है। जन भागीदारी (PARTICIPATORY
DEMOCRACY) से लोकतंत्र के प्रति लोगों में आस्था (BELIEF) के जगह पर तर्क
(LOGICAL) और विवेक (RATIONAL) बढ़ता है।
सहिष्णुता
शब्द का शाब्दिक अर्थ यह है कि समाज के भीतर व्यक्तियों का समूह, दूसरे समूहों से मूल्य,
विचार, प्रथा, परम्परा, नैतिकता, मानदंड, आस्था, विश्वास से अलग होने के बाबजूद दोनों
समुदाय एक - दूसरे को स्वीकार करते हैं। असहिष्णुता तब उत्पन्न होती है जब समाजिक व्यवस्था के भीतर जब
एक समूह के द्वारा दूसरे समूह द्वारा विचारों, विश्वासों, व्यवहार, परम्परा, प्रथा
से अलग होने की इजाजत नहीं हों। सहिष्णुता और असहिष्णुता एक दूसरे के विपरीत होता है। जब इसका इस्तेमाल राजनीति,
समाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप में करते हैं तो यह दर्शाता है कि समाजिक
एकीकरण में दोनों मुद्दों के प्रति समाज कितना सहनशील है या असहनशील है।
असहिष्णुता
के विचार में वृद्धि से समाज में एकता के स्वरूप पर आघात होता और सहिष्णुता के विचार
में वृद्धि होने से अनेकता में एकता के भाव का प्रधानता बढ़ती है। सांस्कृतिक और धर्मिक
असहिष्णुता व्यक्तिगत नागरिकों के अधिकार और
स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती है। असहिष्णु व्यक्तियों के अगर संख्या में एकाएक
वृद्धि होने से ही व्यक्ति के गरिमा (DIGNITITY) और स्वतन्त्रता (FREEDOM)पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
भारत
का संविधान अध्याय III के अंतर्गत मौलिक अधिकार
प्रदान करता है, जो राज्य के विरुद्ध प्रत्येक व्यक्ति को न्यायपालिका द्वारा संरक्षण
मिलता है।
ये
अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त हैं इन अधिकारों
में से एक अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किया गया है, कहता है - अनुच्छेद 21 - जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण: कानून
द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई व्यक्ति अपने जीवन या निजी स्वतंत्रता से वंचित
नहीं किया जाएगा। इसीलिए संवैधानिक रूप से हमारा समाज सहिष्णु
समाज है। चूँकि भारतीय समाज में कई प्रकार के धर्मों, संस्कृतियों, जातियों, उपजातितों,
गोत्रों, परम्पराओं, रिवाजों, मान्यताओं के बाबजूद अपनी पहचान भारतीयता को ही बनता
है।
मेरे
विचार से राष्ट्रवाद एक अमूर्त्त और मनोवैज्ञानिक विचार है जिसमें एक भौगौलिक सीमा
के भीतर रहने वाले व्यक्तियों का समूह जो अपना पूर्वाग्रह और अपने पहचान को त्यागकर
जिस राष्ट्र में नागरिक हैं उनके प्रति पूर्ण समर्पण है। राष्ट्रवाद का विकास तब तक
सम्भव नहीं है जब तक उस राष्ट्र के लोगों में गरीबी, कुपोषण, एक समूह द्वारा दूसरे
समूह का शोषण हों, समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारा के माध्यम से ही सम्भव है। इसीलिए
सहिष्णु समाज राष्ट्रवाद के परिधि का विस्तार करता है और असहिष्णु समाज राष्ट्रवाद
के परिधि को संकुचित करता है।
समाजिक
विभिन्नता से ही समाजिक दूरी या समाजिक अन्तर बढ़ता या घटता है। सहिष्णु समाज में समाजिक
दूरी या समाजिक अंतर नहीं बढ़ता है लेकिन असहिष्णु समाज में समाजिक दूरी या समाजिक अन्तर
बढ़ता है। प्रश्न यह है वे कौन से त्वत्त या मुद्दे हैं जिनसे सहिष्णु या असहिष्णु समाज
का निर्माण होता है।
एक्सनोफोबिया
(XENOPHOBIA) का अर्थ यह है कि दूसरे संस्कृति से नफरत करना और इसी से किसी भी समाज
के धर्मिक, सांस्कृतिक विचारों में अपर्याप्तता,
असंतोष, अविश्वास, घृणा बढ़ती है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण इस तरह के विचारों
का संरक्षण दिया जाता है, क्यूंकि इससे जनता में पहले से ही मौजूद समाजिक और धार्मिक
विभिन्नता के भवनाओं का इस्तेमाल वोट बैंक के लिए किया जा सकें। इसी घृणा और नफरत को
अगर ज्यादा किन्हीं कारणों से बढ़ा दिया जायें तो साम्प्रदायिक दंगा का स्वरूप भी ले
लेता है। मेरा प्रश्न यह है कि दंगा या फसाद के समय राज्य आखिर अपनी भूमिका का निर्वहन
क्यों नहीं करता है। कानून - व्यवस्था राज्य सूची के अंतर्गत है। इसीलिए केंद्र और
राज्य अपनी भूमिका से बचते हुए आरोप - प्रत्यारोप लगाते नजर आते हैं। मेरे समझ से राज्य
सरकार के प्रशासनिक तंत्र के विफलता का ही नाम अपराधीकरण और दंगा है। केंद्र सरकार अगर जयादा हस्तक्षेप करने लगे तो राज्य
सरकार यह आरोप लगा सकती है कि राष्ट्रपति शासन लगाने की तयारी शुरू हो गयी है। संघवाद
के सिद्धांतों पर चर्चा होने लगेगी। मगर मेरा मानना है वित्तीय झुकाव केंद्र के पास
और प्रशासनिक धूरि राज्य के पास होने से समस्या पर काबू पाना आसान नहीं है।
प्रजातिकेंद्रिकता
या नृजातीयता (ETHNOCENTRISM)
एक ऐसा विचार है जिसमें अपनी संस्कृति के दृष्टिकोण से अन्य संस्कृति को देखा या पहचाना
जाता है। अन्य संस्कृति या दुसरे संस्कृति को
अपने स्वयं के संस्कृति की तुलना में कमजोर और हीन या नीचा माना जाता है, इतना
ही नहीं स्वयं के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण को सही माना जाता है, जबकि दूसरे संस्कृति को अमान्य ही नहीं न्यायिक रूप से गलत या कम से कम माना जाता है। विलियम
ग्राहम समनर () ने १९०६ में इस शब्द का पहली बार प्रयोग किया था। उनके लेखन में विभिन्न
समाजिक समूहों के बीच होने वाले संग्रह के
अवधारधारणा पर पर काफी चर्चा किया। उनका मानना
था कि युद्ध और संघर्ष के विकास में नैतिकतावाद
और एक्सएनोफोबिया मुख्य कारण था। हिटलर के
युद्धनीति में नैतिकतावाद और एक्सएनोफोबिया का ही मिश्रण था। इसीलिए यहूदी समाज के
साथ अन्याय में उसने इन दोनों त्वतों का इस्तेमाल किया। असहिष्णुता
में भी नैतिकता और एक्सएनोफोबिया के कारण समाज में एक धार्मिक समूह स्वयं को दूसरे
धार्मिक समूह से श्रेष्ठ और उच्च समझता है।
ऐसे हालत में साम्प्रदायिक दंगा या संघर्ष होना स्वाभाविक है।
अमेरिका
में श्वेत और अश्वेत के बीच हिंसा, भारतीय समाज में दलितों और गैर दलितों के बीच हिंसा,
पुरुषवादी सत्ता में महिलाओं के प्रति हिंसा, सम्पन्न लोगों द्वारा वंचितों का शोषण,
बड़े अधिकारीयों द्वारा छोटे अधिकारियों का शोषण आदि के पीछे समाज से असहिष्णुता ही
नहीं श्रेष्ठ होने का भावना भी शामिल है।
मेरे
विचार से असहिष्णुता के भावना में तीव्रता तब आती है जब स्वयं से कमजोर इंसान सामने
हों, सहिष्णुता का विचार तब आता है जब स्वयं से सामर्थ्यवान और शक्तिशाली मनुष्य सामने
हों। ऐहिहासिक रूप से इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब हिटलर के जर्मनी
में रूस आर्मी का आना प्रारम्भ हुआ तो हिटलर ने स्वयं के सत्ता का नाश खुद से ही जहर
खाकर और अपने सहयोगियों से कहा मेरे लाश को भी जला दो ताकि दुश्मन के हाथ नहीं लग सकें।
दिग्पाल
जीना ने बहुत ही सरल शब्दों में लिखा है - सहिष्णुता का अर्थ है सहन करना और असहिष्णुता का अर्थ है सहन न करना।[1] फ्रांसिस फुकुयामा ने इतिहास का अंत नाम से लेख लिखा जिसमें उनका मानना था पूर्व यू एस एस आर के पतन के बाद विश्व में साम्यवादी विचाधारा का अंत हुआ और पूंजीवादी विचारधारा के साथ एक धुर्वीय विश्व का निर्माण होगा। इस दृष्टिकोण से असहिष्णुता का स्थान अब विश्व में नहीं होना चाहिए। पुतिन के उभार के बाद यह सिद्धांत ही आधारहीन हो गया। सहिष्णुता और असहिष्णुता समय और संदर्भ सापेक्ष है। मुग़ल काल में एक समूह पर जजिया कर से छूट नहीं थीं जबकि एक विशेष समुदाय को विशेषाधिकार भी प्राप्त था। अंग्रेजों के आगमन के बाद सिपाही विद्रोह दोनों समुदाय अपने हितों को साधने हेतु सामूहिक संघर्ष करते हैं। 1909 के मार्ले - मिटो एक्ट के बाद एक समुदाय को जैसे विशेषाधिकार मिला दूसरा समूह असहिष्णु होना प्रारम्भ हो गया। एक अजीब बात मेरे समझ से परे है अगर सहिष्णु और असहिष्णु को हितों के आधार पर देखें तो अलग ही परिणाम सामने आता है।
असहयोग आंदोलन के समय भी समर्थन लेने हेतु खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया गया था और आंदोलन भी आक्रामक हुआ लेकिन सिद्धांतों के भेंट चढ़ गया। जबकि मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में तुर्की एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बन गया। इसीलिए सहिष्णु और असहिष्णु के सिद्धांत भी निजी लाभ और स्वार्थ के कारण इसमें अलग रासायनिक प्रतिक्रिया हो जाती है। यह युग न तो सहिष्णु है और न ही असहिष्णु है, स्वार्थ और हित के संदर्भ और सापेक्ष में अलग - अलग व्याख्या हो जाती है। अर्थ, धन, लोभ, काम, फायदा, भावना, घनिष्ठता, लालच, हित, मन ऐसे कई त्वत्तों का मानवीय जीवन में महत्व है जिससे विचारों में सदैव परिवर्तन भी होते रहते हैं। यहीं त्वत्त सहिष्णुता और असहिष्णुता के परिभाषा में परिवर्तन भी कर देते हैं।
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