Skip to main content

पूजा के स्थान में पूजनीय शिक्षक : प्रसाद वितरण शिक्षा व्यवस्था

शिक्षकों का भूमिका

 “शिक्षक कभी साधारण नहीं होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद में पलते हैं।” -आचार्य चाणक्य


शिक्षक बच्चों के भविष्य का निर्माण करते हैं  और बच्चे ही आगे चलकर  राष्ट्र का निर्माण करते हैं। इस तरह राष्ट्र और समाज को शिक्षा के माध्यम से शिक्षक ही समाजिक परिवर्तन और समाजिक विकास में योगदान देते हैं। समाजिक व्यवस्था में शिक्षक का सम्मान भलें ही हों मगर उन्हें सरकार से हमेशा दुःख और अपमान ही मिलता  है। अगर शिक्षक संघ सरकार के सामने अपनी बातें भी रखते हैं तो सरकार भी हिंसक वर्ताव करने में पीछे नहीं हटते हैं। ग्रामीण समाज के  प्रत्येक कार्य में शिक्षक स्वतः अपनी मर्जी के हाथ बटाने से पीछे नहीं हटते हैं। दिल्ली जैसे महानगरों में शिक्षक हमेशा से ही गरीब, कमजोर और मजदूरों का साथ देने में कभी भी नहीं कतराते हैं।
यह दुर्भाग्य की बात है कि सरकार शिक्षकों को लगभग सभी सरकारी कार्यों में उनको बेबजह लगा देता है। इससे बच्चों के शिक्षा पर काफी नकारात्मक असर पड़ता है। बढ़ती जनसँख्या के अनुसार शिक्षक पर्याप्त मात्रा में भी नहीं हैं। सरकार के नजरों में शिक्षकों कि कोई अहमियत नहीं होती है। इसीलिए उनके कार्यों को कोई तरजीह नहीं दी जाती है। आर्थिक रूप से लगभग सभी स्कूल के शिक्षक कमजोर होते हैं। ग्रामीण दबंग मुखिया हों या शिक्षा का अधिकारी दोनों समान्यतया शिक्षक को पेरशान करने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। आजकल शिक्षकों को जान से मारने की धमकी या असमाजिक त्वत्तों द्वारा किसी भी मुद्दे पर हत्या भी आसानी से कर दिया जा रहा है।
अभी हाल में ही हरियाणा में जिस तरह सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को मंदिर का प्रसाद बांटने के काम में लगा दिया गया, उससे यही पता चलता है कि राज्य सरकार की प्राथमिकताओं में शिक्षा की जगह क्या है! गौरतलब है कि यमुनानगर के बिलासपुर में हर साल कपालमोचन मेला लगता है। वहां इस बार काफी संख्या में शिक्षकों को प्रसाद बांटने और मंदिरों-घाटों पर दानपात्र की देखरेख की ड्यूटी में लगा दिया गया। बीते उनतीस अक्तूबर को प्रशासन ने अध्यापकों के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसमें उन्हें पुजारी के काम सिखाए जाने थे। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति को लेकर चिंतित किसी भी व्यक्ति की नजर में यह एक विचित्र फैसला होगा। स्वाभाविक ही हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ ने इस पर आपत्ति जताई और इसे स्कूली पढ़ाई-लिखाई में बाधा बताया। जब शिक्षकों और उनके संगठनों के विरोध के बाद मामले ने तूल पकड़ना शुरू किया तो मुख्यमंत्री ने इसे स्थानीय प्रशासन का मामला बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया। जबकि प्रशासन की ओर से पुजारी के काम के लिए जो प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया था, उसमें हिस्सा नहीं लेने वाले अध्यापकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का समन भेजा गया।[1]
पूज्यनीय शिक्षकों को पूजा जैसे कार्यों में लगाना, जिसके आलोचना में मेरे पास शब्द ही नहीं है। आखिर हमारा समाज किस ओर जा रहा है।  निजी स्कूल में ही सिर्फ छात्रों को पढ़ने का अधिकार है। सरकारी स्कूल तो अब सिर्फ गरीब और निर्धन बच्चों के लिए ही बचा है।
शालू अग्रवाल का मानना है ऐसा  प्रतीत होता है कि आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी सरकारें यह नहीं समझ सकी हैं कि देश के नौनिहालों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करने के लिए बच्चों को केवल स्कूल तक पहुंचा देने भर से ही काम नहीं बनेगा। तमाम सरकारी एवं गैरसरकारी आंकड़ें यह सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून, मिड डे मिल योजना, निशुल्क पुस्तकें, यूनिफार्म आदि योजनाओं के परिणामस्वरूप स्कूलों में दाखिला लेने वालों की संख्या तो बढ़ी हैं लेकिन छात्रों के सीखने का स्तर बेहद ही खराब रहा है। देश में भारी तादात में छात्र गणित, अंग्रेजी जैसे विषय ही नहीं, बल्कि सामान्य पाठ पढ़ने में भी समर्थ नहीं हैं। यहां तक कि 5वीं कक्षा के छात्र पहली कक्षा की किताब भी नहीं पढ़ पाते। यूं तो यह ट्रेंड पूरे देश का है लेकिन लैपटॉप और स्मार्ट फोन बांटने वाला उत्तर प्रदेश शिक्षा की गुणवत्ता की गिरावट के मामले में नए प्रतिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है। यहां हर साल नए शिक्षकों की भर्ती होती है। अन्य राज्यों की तुलना में शिक्षकों के वेतन पर सर्वाधिक बजट खर्चा जाता है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता बद से बदतर ही होती जा रही है।[2] सरकारी स्कूल में सुधार सिर्फ कागजों पर ही दिखाई देता है हकीकत तो कुछ और ही है। शालू अग्रवाल ने जो प्रश्न उठाये हैं वो काफी प्रासंगिक है।
देवानिक साहा ने कहा है - 5 वर्षों में निजी स्कूलों में 1.7 करोड़ छात्रों का इजाफा, सरकारी स्कूलों में 1.3 करोड़ छात्रों का नुकसान हुआ है। आखिर यह ट्रेंड क्या प्रदर्शित करता है। भारत में पांच प्राथमिक विद्यालय शिक्षकों में से एक से कम प्रशिक्षित हैं। इस संबंध में भी इंडियास्पेंड ने मई 2015 में विस्तार से बताया है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में, जो प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश का सबसे अमीर शहर भी है, सरकारी स्कूलों में आधे से अधिक शिक्षकों की नियुक्ति संविदा पर की गई है। पूर्णकालिक वेतनभोगी अध्यापकों की तुलना में संविदा पर नियुक्त शिक्षकों में तो शिक्षण के प्रति उत्साह दिखाई देता है और ही वे खुद पर किसी तरह की जवाबदेही मानते हैं। इस पर विस्तार से इंडियास्पेंड के जनवरी 2017 की रिपोर्ट को देखा जा सकता है। 58.7 फीसदी भारतीयों ने प्राथमिक स्तर पर निजी स्कूल चुनने का का मुख्य कारणसीखने का बेहतर वातावरणहोना बताया है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मई 2016 में विस्तार से बताया है। हालांकि, निजी स्कूल शिक्षा की प्राथमिकता और निजी और सरकारी विद्यालयों के सीखने के परिणामों में अंतर राज्यों के लिए भिन्न है। उदाहरण के लिए डीआईएसई आंकड़ों के अनुसार, 2015-16 में उत्तर प्रदेश में 50 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ाई करते थे, जबकि बिहार में 4 फीसदी से कम बच्चे निजी स्कूलों में जाते थे। एक आम सुझाव है कि शिक्षा पर भारत में खर्च को बढ़ाना चाहिए। वर्ष 2015-16 में, भारतीय केंद्र सरकार का स्कूल और उच्च शिक्षा पर खर्च अन्य ब्रिक्स देशों से भी कम रहा है। भारत ने शिक्षा पर अपने जीडीपी का 3 फीसदी खर्च किया है, जबकि रूस ने 3.8 फीसदी, चीन ने 4.2 फीसदी, ब्राजील ने 5.2 फीसदी  और दक्षिण अफ्रीका 6.9 फीसदी रही है। इसपर इंडियास्पेंड ने जनवरी 2017 की रिपोर्ट में विस्तार से बताया है।[3] इससे यह पता चलता है - सरकारी स्कूल दिन प्रतिदिन नीचे आ रहा है।  सम्पन्न वर्ग अब सरकारी स्कूल में अपने बच्चों को नहीं पढ़कर निजी स्कूल भेज रहे हैं। आखिर शिक्षक क्या करें जब वे मंदिर में अगर प्रसाद नहीं खिला पाए तो उह्नें नौकरी में भी निलंबन का सामना करना पड़ेगा और निलंबन तोड़वाने के लिए सरकारी अधिकारियों के आगे झुकना भी पड़ेगा और अधिकारीयों द्वारा अपमानित भी होना पड़ेगा।

 सरकारी स्कूलों में क्षमता से अधिक छात्रों का दाखिला किया जाता है। सरकारी स्कूलों में निजी विद्यालयों की तुलना में छात्र-शिक्षक का अनुपात अधिक है। टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक अधिकतम प्राथमिक स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात 50:1 है जिनमें एक शिक्षक कई भूमिकाएं निभाता है। कई सरकारी स्कूल केवल कागजात में ही मौजूद हैं, वास्तव में या तो उनका बुनियादी ढांचा पूरी तरह या आंशिक रूप से बर्बाद हो गया है या अत्यधिक जर्जर स्थित में है। ग्रामीण इलाकों में अधिकांश सरकारी स्कूल एक संपूर्ण स्कूल नहीं हैं बल्कि एक कमरे तक ही सीमित हैं। ऐसी समस्याएं या मुद्दे सरकारी स्कूलों में कम उपस्थिति और अधिक बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर में बढ़ोतरी करते हैं। एनडीटीवी ने एक सर्वे में यह खुलासा किया है कि भारत में अधिकांश सरकारी स्कूलों में शौचालयों और पीने के पानी की बुनियादी सुविधाओं की कमी है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के कार्यान्वयन पर एनडीटीवी ने भारत के 13 राज्यों में 780 सरकारी स्कूलों का सर्वेक्षण किया। परिणाम बहुत शर्मनाक था उनमें से 63 प्रतिशत स्कूलों में कोई खेल का मैदान नहीं था। सर्वे किए गए स्कूलों में से एक तिहाई से अधिक स्कूलों की स्थिति बेहद खराब थी। ऐसी स्थित में अगर कोई छात्र शौचालय जाना चाहता है तो वह घर वापस चला जाता है। एनडीटीवी चैनल ने शौचालय की कमी को छात्राओं द्वारा अधिक मात्रा में स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण बताया। स्थित इतनी खराब थी की 80% से अधिक स्कूलों में उम्र के अनुसार छात्रों का प्रवेश नहीं था। शिक्षा का अधिकार, अधिनियम (आरटीई) प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक बच्चों को मुफ्त और आवश्यक शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिनियम छात्र शिक्षक अनुपात (पीटीआर) के साथ-साथ स्कूलों की इमारतों, बुनियादी ढाचों, स्कूल के कामकाज के दिनों, शिक्षकों के काम करने के घंटों, प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति को भी निर्दिष्ट करता है।बहुत से सरकारी स्कूलों को लंबे समय से पुनःनिर्मित नहीं किया गया है। कभी-कभी छात्रों को कक्षा के बाहर फर्श पर बैठने के लिए कहा जाता है क्योंकि स्कूल की छत किसी भी समय गिर सकती है।[4]







सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की गुणवत्ता एक और बड़ी चिंता का विषय है। आखिर गुणवत्ता कहाँ से आएगा जब एक शिक्षक का कार्य सिर्फ शिक्षा देना नहीं रह गया है बल्कि ठेकेदारी, जनगणना, मतदान, सर्वे का कार्य आदि सब शिक्षकों को ही दे दिया गया हों।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख अनिरुद्ध देशपांडे ने सरकारी स्कूलों के लिए निजी स्कूलों को चुनौती बताया है।  उन्होंने कहा कि निजी स्कूलों में बाजारीकरण बढ़ रहा है।  राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के सम्मलेन एवं संगोष्ठी 'शिक्षा समग्र व्यापक' विषय पर बोरा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में देशपांडे ने कहा कि शिक्षा करियर का मुद्दा हो गई है।  वह ज्ञानव्यापी की जगह अर्थव्यापी हो चुकी है।  जबकि शिक्षा का मौलिक उद्देश्य मनुष्य की क्षमताओं का वर्धन करना है।  हमें शिक्षा में परिवर्तन लाना होगा और इसे शिक्षा के अर्थशास्त्र की जगह शिक्षा का ज्ञान शास्त्र बनाना होगा। देशपांडे ने कहा कि भाषा हमारी संस्कृति की निर्देशक है, जो छात्रों में मौलिक चिंतन और खोज को विकसित करती है।  आज हमारे देश में शिक्षा की तस्वीर उल्टी हो चुकी है।  प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक नहीं मिलते और महाविद्यालयों में छात्र नहीं मिलते।  इस गंभीर प्रश्न पर संगठनों, समाज सरकारों को व्यापक विचार विमर्श करना होगा।[5] अनिरुद्ध देशपांडे के विचारों में काफी गंभीरता है लकिन क्या कोई सुधार सम्भव है। इसे समय पर छोड़ देना ही उचित है।
पिछले दिनों पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले और उसकी अंतरात्मा को झकझोर देने वाले बिहार राज्य शिक्षा बोर्ड घोटाले ने निस्संदेह राज्य के शैक्षिक माहौल की दुर्गति से पर्दा उठा दिया है। उसने व्यवस्था का घिनौना सच दिखाया है, जहां वाजिब कीमत (आपको जो श्रेणी चाहिए, उसके आधार पर तय होती है) देकर बोर्ड परीक्षाओं में (जिन पाठ्यक्रमों को नहीं पढ़ा, उनके लिए भी) अंक और प्रमाणपत्र खरीदे जा सकते हैं। साल भर पहले बिहार में ही परीक्षा भवन की दीवारों पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़ते और भीतर परीक्षा दे रहे छात्रों को नकल की पर्चियां देते लोगों की तस्वीरें देखकर पूरा देश सन्न रह गया था। इस बार की ही तरह उस समय भी राज्य सरकार ने कार्रवाई का वायदा किया था। इसमें कोई शक नहीं कि दोषियों को दंड मिलना चाहिए और बिहार सरकार शिक्षा व्यवस्था के साथ ऐसा मजाक जारी नहीं रहने दे सकती। लेकिन इस घटना को एक ही राज्य की समस्या मानना गलत होगा। अन्य राज्यों में भी परीक्षाओं में सामूहिक नकल की घटनाएं और फर्जी अंक तालिकाओं तथा प्रमाणपत्रों की बिक्री हुई है। वास्तव में यह सब हमारे देश की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में गई सड़न को ही दर्शाता है। हमारी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था की स्थिति खतरनाक है और जरूरत है कि हम केवल खुश करने वाले आंकड़ों पर ध्यान देने के अलावा समस्याएं दूर करने पर ध्यान दें। उदाहरण के लिए हम शिक्षा की स्थिति पर 2014 की वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर 2014) देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिसके अनुसार ग्रामीण भारत में 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के 97 प्रतिशत बच्चों ने स्कूलों में प्रवेश लिया है, 2014 लगातार छठा वर्ष था, जब ऐसे छात्रों का प्रतिशत 96 या अधिक रहा है और शैक्षिक सर्वेक्षण करने वाले एवं एएसईआर रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले गैर सरकारी संगठन प्रथम के सदस्यों ने जब ग्रामीण स्कूलों का औचक दौरा किया तो 71 प्रतिशत छात्र कक्षाओं में मौजूद मिले। इन आंकड़ों से पता चलता हैः पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण भारत में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों का जाल बढ़ गया है (यानी बच्चों को अपने गांवों में या करीब ही स्कूल की सुविधा मिल रही है), छात्रों को लुभाकर स्कूल लाने के तमाम सरकारी कार्यक्रम जैसे मध्याह्न भोजन आदि का लाभ मिल रहा है और ग्रामीण परिवार लगातार अपनी आमदनी का एक हिस्सा अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए निकाल रहे हैं चाहे इसके लिए उन्हें नजदीकी निजी स्कूलों में ही क्यों भेजना पड़े। लेकिन ये आंकड़े यह नहीं बताते कि छात्रों में सीखने के और शिक्षकों में पढ़ाने के कौशल कितने निखर रहे हैं। इसे समझने के लिए ग्रामीण भारत (जिसका अशिक्षित लोगों की कुल संख्या में 75 प्रतिशत हिस्सा है) के लिए 2014 की एएसईआर रिपोर्ट के कुछ आंकड़े पेश हैं।
पहली बात यह है कि स्कूलों में कक्षा पांच में पहुंचने वाले बच्चों में 50 प्रतिशत कक्षा दो की पुस्तकें भी नहीं पढ़ पाते। पढ़ना एकदम बुनियादी कौशल है, जिसे छात्र उच्च शिक्षा की ओर बढ़ने से पहले सीखते हैं। जैसा कि आंकड़े बताते हैं, जिस बुनियाद पर इमारत खड़ी होनी है, दुर्भाग्य से वही टेढ़ी है। एएसईआर को पता चला कि ग्रामीण भारत के निजी स्कूलों में भी यह समस्या इसी तरह व्याप्त है, लेकिन सरकारी और निजी प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों के बीच अंतर बढ़ रहा है, जिसका अर्थ है कि निजी स्कूल कुछ समय में समस्याओं से निजात पा लेते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल उन्हीं दिक्कतों में फंसे रहते हैं। यही वजह है कि ग्रामीण भारत में भी अधिक से अधिक माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं। एएसईआर की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या 2014 में 30.8 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो 2006 में 18.7 प्रतिशत ही थी। दिलचस्प है कि 2006 से 2014 के बीच अधिकतर राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश बढ़ा है, लेकिन बिहार में यह 13.7 प्रतिशत से गिरकर 11.2 प्रतिशत ही रह गया है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि सरकारी स्कूलों की उपलब्धता बढ़ी है, लेकिन छात्रों के बौद्धिक कौशल पर इसका कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता नहीं दिखा है। दूसरा चिंताजनक आंकड़ा यह है कि कक्षा दो में पढ़ने वाले 20 प्रतिशत छात्र 1 से 9 तक संख्या ही नहीं पहचान पाए, 2010 में ऐसे बच्चों की संख्या 10 प्रतिशत ही थी, जिसका मतलब है कि हालात बद से बदतर हो गए हैं। कक्षा तीन के छात्रों की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है। कुछ और आंकड़े हैं, जो और भी धुंधली तस्वीर दिखाते हैं और यहां उन्हें बताने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती क्योंकि बात पहले ही कह दी गई है।[6]


इस  संदर्भ में दिल्ली सरकार का पहल स्वागत योग्य है। पंजाब केसरी अख़बार के अनुसार प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी पाठशालाओं को आदर्श विद्यालय का दर्जा देने से अब अभिभावक निजी स्कूलों की बजाय सरकारी स्कूलों में अपने नौनिहालों का दाखिला करवा रहे हैं। जिला के करसोग के आदर्श विद्यालय बनने से अभिभावकों ने अपने बच्चों का प्रवेश निजी स्कूलों को छोड़कर सरकारी स्कूल में करना आरंभ कर दिया है। जानकारी अनुसार शिक्षा सत्र 2016-2017 में इस प्राथमिक पाठशाला में केवल 53 बच्चे पढ़ते थे, लेकिन आदर्श विद्यालय के चलते सत्र 2017-2018 में अब तक 130 बच्चों ने स्कूल में दाखिला ले लिया है और अभी भी दाखिले की प्रक्रिया जारी है। स्कूलों में बच्चों की संख्या में बढ़ौतरी करने गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने के लिए सरकारी स्कूल के अध्यापकों ने अपने बच्चों को भी सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया है। यह कदम वास्तव में सराहनीय भी है और इसे अन्य राज्य सरकारों द्वारा अपनाना भी चहिए।
यह सही बात है कि  शिक्षा का बाजारीकरण के युग का प्रारम्भ हो चूका है। सरकारी स्कूलों और प्राइवेट स्कूलों की फीस का अन्तर से दो प्रकार के शिक्षा का भी जन्म हो रहा है। योग्यता समाज के लिए जरूरी है लेकिन क्या स्कूल सभी के समान नहीं होना चाहिए। समान समाज या समानता कभी भी नहीं सकती है जब किसी का बच्चा सुविधायुक्त वातावरण में पढ़ता हो और किसी का बच्चा दुविधायुक्त स्कूल में पढ़ता हों। समानता के स्वप्न और योग्यता का अर्थ सिर्फ कागजी हो सकता है, लेकिन हकीकत से टकराने पर प्रश्न और प्रश्न करने वाले हमेशा कुतर्क खोजने में व्यस्त हो जाते हैं।



[1] http://www.jansatta.com/editors-pick/opinion-about-on-haryana-govts-order-teachers-turn-priests-at-temples-in-bilaspur/473757/
[2] http://azadi.me/expenditure-vs-quality-in-schools-of-uttar-pradesh
[3] http://www.indiaspendhindi.com
[4] https://hindi.mapsofindia.com
[5] https://khabar.ndtv.com
[6] http://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/01/bharat-ke-school-shiksha-vywastha-me-shudhar

Comments

Popular posts from this blog

भारत की बहिर्विवाह संस्कृति: गोत्र और प्रवर

आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है - ' संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत् ' ( समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए ) । असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र - पुत्री के उत्पन्न होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान - बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है। [1]   ब्राह्मणों के विवाह के अलावे लगभग सभी जातियों में   गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति आदि ग्रंथों में यह कहा   गया है कि यदि कोई कन्या सगोत्र से हों तो   सप्रवर न हो अर्थात   सप्रवर हों तो   सगोत्र   न हों,   तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान 'गौत्र" कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते ...

ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद

ब्राह्मण एक जाति है और ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। समय और परिस्थितियों के अनुसार प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है। चूँकि ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर रहा है इसी कारण तमाम बुराईयों को उसी में देखा जाता है। इतिहास को पुनः लिखने कि आवश्यकता है और तथ्यों को पुनः समझने कि भी आवश्यकता है। प्राचीन काल में महापद्मनंद , घनानंद , चन्द्रगुप्त मौर्य , अशोक जैसे महान शासक शूद्र जाति से संबंधित थे , तो इस पर तर्क और विवेक से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है प्रचलित मान्यताओं पर पुनः एक बार विचार किया जाएँ। वैदिक युग में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है। इन प्रकार कि संस्थाओं को अगर अध्ययन किया जाएँ तो यह   जनतांत्रिक संस्थाएँ की ही प्रतिनिधि थी। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसी वेद में यह कहा गया है प्रजापति   की दो पुत्रियाँ हैं , जिसे ' सभा ' और ' समिति ' कहा जाता था। इसी विचार को सुभाष कश्यप ने अपनी पुस्...

कृषि व्यवस्था, पाटीदार आंदोलन और आरक्षण : गुजरात चुनाव

नब्बे के दशक में जो घटना घटी उससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ। रूस के विघटन से एकध्रुवीय विश्व का निर्माण , जर्मनी का एकीकरण , वी पी सिंह द्वारा ओ बी सी समुदाय को आरक्षण देना , आडवाणी द्वारा मंदिर निर्माण के रथ यात्रा , राव - मनमोहन द्वारा उदारीकरण , निजीकरण , वैश्वीकरण के नीति को अपनाना आदि घटनाओं से विश्व और भारत जैसे विकाशसील राष्ट्र के लिए एक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आर्थिक परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ। सरकारी नौकरियों में नकारात्मक वृद्धि हुयी और निजी नौकरियों में धीरे - धीरे वृद्धि होती चली गयी। कृषकों का वर्ग भी इस नीति से प्रभावित हुआ। सेवाओं के क्षेत्र में जी डी पी बढ़ती गयी और कृषि क्षेत्र अपने गति को बनाये रखने में अक्षम रहा। कृषि पर आधारित जातियों के अंदर भी शनैः - शनैः ज्वालामुखी कि तरह नीचे से   आग धधकती रहीं। डी एन धानाग्रे  ने कृषि वर्गों अपना अलग ही विचार दिया है। उन्होंने पांच भागों में विभक्त किया है। ·  ...