Skip to main content

पाटीदार बनाम कोली : गुजरात चुनाव



कोली जाति जिसे कोरी भी कहा जाता है।  यह जाति कई उपसमूहों में विभाजित है। यह  भारत के मध्य और पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र में निवास करते हैं।  कोली समुदाय का सबसे बड़ा समूह महाराष्ट्र राज्य में निवास करता है।  विशेष रूप से यह समुदाय  मुंबई  और गुजरात राज्य में निवास करता है।  तटीय क्षेत्र में निवास करने वाले  कोली का परंपरागत व्यवसाय मछली पकड़ना है, हालांकि अब कई स्कूलों और सरकारी कार्यालयों में कार्यरत हैं। कोली मुख्यतः कृषि से जुड़े हैं।  कोली मोटे तौर पर हिंदू हैं,  लेकिन अपने पूर्व के पहचान के   कुछ पहलुओं को भी जीवित रखे हुए हैं।[1]  वे राज्य के अनुसार कहीं पिछड़ी जातियों के सूची में हैं तो कहीं वे भारत के संविधान में अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध हैं।   उत्तर प्रदेश में एक ओर यह जाति अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध है तो गुजरात में पिछड़ी जातियों के सूची में सूचीबद्ध है।

राही गायकवाड़ लिखती हैं - कांग्रेस पार्टी भी  कोली वोट को मजबूत करने की कोशिश कर रही है और भाजपा इसे अलग करने की कोशिश कर रही है ताकि इसे अन्य जाति समूहों के वोटों से लाभ मिल सके। कोली जाति गुजरात राज्य  में सबसे बड़ा जाति समूह है, लेकिन पटेल या पाटीदार से तुलना करने पर यह जाति आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं।
 वहीं दूसरी ओर पटेल या पाटीदार अधिक समृद्धशाली और ताकतवर समुदाय है।  कोली जाति के  महिला मतदाताओं सहित बड़ी संख्या में वोट करने के लिए मतदान केंद्र पर जाते हैं और उनका असर  सात लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में जैसे सौराष्ट्र-सुरेंद्रनगर, राजकोट, पोरबंदर, जामनगर, जूनागढ़, अमरेली और भावनगर में है। इस बात की पुष्टि  2012 विधानसभा चुनावों में और इससे पहले भी स्पष्ट हो गया था।  राजनीतिक विश्लेषक अच्युत याज्ञिक  के अनुसार - 1 9 31 की जनगणना के अनुसार, कोली जाति गुजरात की आबादी का लगभग 20 प्रतिशत का निर्माण करते हैं, इसके बाद पटेल, जो 15% गुजराती लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कोली ने पटेल को अपना उपनाम के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया है।[2] कोली मतदाता के रूख पर इस बार गुजरात राज्य का चुनाव निर्भर करेगा। पाटीदार मतों का विभाजन होना तय है। इस संदर्भ में कोली जाति के मतों का धुर्वीकरण आखिर किस ओर होगा यह देखने वाली बात भी होगी और यहीं मत निर्णायक भी होगा।
अगर भाजपा चुनाव जीतती है तो पाटीदार समाज जो अब तक चुनावी राजनीति में अपने महत्व को बना कर रखा था वो स्वतः समय के साथ समाप्त हो जायेगा। किसी भी जाति के लिए सोचने पर मजबूर कर देगा कि अन्य रणनीतियों पर कार्य कर जीत को सम्भव बनाया जा सकता है।

प्रभुत्व जातियों का समाजशास्त्र के परिभाषा में भी परिवर्तन करना होगा और एम एन श्रीनिवास का सिद्धांत भी टूटेगा। श्रीनिवास का मानना है प्रभुत्व जातियों के अस्तित्व परंपरागत रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के मालिक संख्यात्मक या छोटी राजनीतिक शक्ति चलाने वाले ग्रामीण राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।    मेरे अनुसार परंपरागत रूप से उच्च जातियों के प्रभाव का  अतिक्रमण  प्रभुत्व जातियों द्वारा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से धार्मिक या सांस्कृतिक श्रेष्ठता को चुनौती मूल रूप से पिछड़ी जातियों के बीच से ही प्रभुत्व जातियों द्वारा उन्हें दिया गया है। हालाँकि  परंपरागत उच्च जातियों के बीच पश्चिमी शिक्षा के कारण जो लाभ मिला है उससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है। मेरे अनुसार,  प्रभत्वशाली जातियों का अभी भी मीडिया और उच्च शिक्षा के अलावे प्रशासन में काफी कमी है। राजनीति में जाति की संख्यात्मक ताकत अब निर्णायक होती जा रही है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले वयस्क मताधिकार और आरक्षण के साथ संख्यात्मक ताकत ने भारतीय राजनीति में पहचान और अधिकार को नए सिरे से परिभासित भी किया है। जाति और आरक्षण के द्वन्द नए प्रकार के राजनीतिक संस्कृति को जन्म दे रहा है। मेरा स्पष्ट मानना है जब भी कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को मूल सुविधा देने में नाकाम रहती है तो सारे राजनीतिक दलों द्वारा जानबूझकर स्थानीय मुद्दे जैसे जाति या आरक्षण पर जोड़ दिया जाता है। राज्य अपने भूमिका में तब असफल है जब वहां रोजगार के साधन निम्न हों और असुरक्षा पर काबू नहीं रखा जाएँ। श्रीनिवास ने कहा था -
 मैसूर गांवों में, लिंगायत और ओकालिगा; आंध्र प्रदेश में, रेड्डी और कम्मा; तमिलनाडु में गौंडर , पडायची  और मुदलिआर ; केरल में  नायर; महाराष्ट्र में, मराठा; गुजरात में पाटीदार या पटेल; और उत्तरी भारत में, राजपूत, जाट, गुज्जर यादव, कुर्मी आदि  प्रमुख जाति के अलावे प्रभुत्वशाली भी हैं।
इसीलिए गुजरात चुनाव मेरे समझ से परम्परागत मान्यताओं के विरुद्ध भी चुनाव है। समावेशी लोकतंत्र तभी बन पता है जब उपेक्षित जाति समूहों को भी राजनीतिक रूप से मान्यता मिलें। गुजरात में इस बार प्रत्येक जाति समूहों के अलावे व्यक्ति को भी जनतंत्र में शामिल होने का अवसर मिलेगा। चुनाव कठिन होते ही प्रत्येक मतदाता के मूल्य में राजनीतिक ताकत आती है।

सन 1995  के बाद केशुभाई पटेल जो पाटीदार के नेता बनें लेकिन दो सीटों पर समेट दिए गए। इससे यह भी पता चलता है कि पाटीदार के नेता और मतदाता में काफी विभिन्नता भी है।

विधानसभा का चुनाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि टिकट प्राप्त करने वाले व्यक्ति का लोकप्रियता या जनाधार कैसा है, क्यूंकि आपसी संबंध भी बहुत मायने रखते हैं। जाति के बल को कोई भी व्यक्ति या उम्मीदवार भी निर्बल कर देता है जब उसकी छवि काफी अच्छी हों।





[1] https://www.britannica.com
[2] http://www.thehindu.com

Comments

Popular posts from this blog

भारत की बहिर्विवाह संस्कृति: गोत्र और प्रवर

आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है - ' संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत् ' ( समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए ) । असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र - पुत्री के उत्पन्न होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान - बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है। [1]   ब्राह्मणों के विवाह के अलावे लगभग सभी जातियों में   गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति आदि ग्रंथों में यह कहा   गया है कि यदि कोई कन्या सगोत्र से हों तो   सप्रवर न हो अर्थात   सप्रवर हों तो   सगोत्र   न हों,   तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान 'गौत्र" कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते ...

ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद

ब्राह्मण एक जाति है और ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। समय और परिस्थितियों के अनुसार प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है। चूँकि ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर रहा है इसी कारण तमाम बुराईयों को उसी में देखा जाता है। इतिहास को पुनः लिखने कि आवश्यकता है और तथ्यों को पुनः समझने कि भी आवश्यकता है। प्राचीन काल में महापद्मनंद , घनानंद , चन्द्रगुप्त मौर्य , अशोक जैसे महान शासक शूद्र जाति से संबंधित थे , तो इस पर तर्क और विवेक से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है प्रचलित मान्यताओं पर पुनः एक बार विचार किया जाएँ। वैदिक युग में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है। इन प्रकार कि संस्थाओं को अगर अध्ययन किया जाएँ तो यह   जनतांत्रिक संस्थाएँ की ही प्रतिनिधि थी। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसी वेद में यह कहा गया है प्रजापति   की दो पुत्रियाँ हैं , जिसे ' सभा ' और ' समिति ' कहा जाता था। इसी विचार को सुभाष कश्यप ने अपनी पुस्...

कृषि व्यवस्था, पाटीदार आंदोलन और आरक्षण : गुजरात चुनाव

नब्बे के दशक में जो घटना घटी उससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ। रूस के विघटन से एकध्रुवीय विश्व का निर्माण , जर्मनी का एकीकरण , वी पी सिंह द्वारा ओ बी सी समुदाय को आरक्षण देना , आडवाणी द्वारा मंदिर निर्माण के रथ यात्रा , राव - मनमोहन द्वारा उदारीकरण , निजीकरण , वैश्वीकरण के नीति को अपनाना आदि घटनाओं से विश्व और भारत जैसे विकाशसील राष्ट्र के लिए एक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आर्थिक परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ। सरकारी नौकरियों में नकारात्मक वृद्धि हुयी और निजी नौकरियों में धीरे - धीरे वृद्धि होती चली गयी। कृषकों का वर्ग भी इस नीति से प्रभावित हुआ। सेवाओं के क्षेत्र में जी डी पी बढ़ती गयी और कृषि क्षेत्र अपने गति को बनाये रखने में अक्षम रहा। कृषि पर आधारित जातियों के अंदर भी शनैः - शनैः ज्वालामुखी कि तरह नीचे से   आग धधकती रहीं। डी एन धानाग्रे  ने कृषि वर्गों अपना अलग ही विचार दिया है। उन्होंने पांच भागों में विभक्त किया है। ·  ...