गुजरात
अभी समाजिक और राजनीतिक उथल - पुथल के दौर में प्रवेश कर चूका है। यह चुनाव कई मायनों
में महत्वपूर्ण है। ऊना घटना जो दलित अत्याचार से संबंधित है। इसीलिए दलित आंदोलन के
अपने मायने हैं। पाटीदार समाज द्वारा आरक्षण का मांग पिछड़ों के आंदोलन के लिहाज से
महत्वपूर्ण है। नब्बे के दशक में प्रारम्भ मंडल के राजनीति का प्रतीक है। समाजशाष्त्रीय
विश्लेषण के संदर्भ में गुजरात का चुनाव काफी महत्वपूर्ण है क्यूंकि समाजिक गतिशीलता
और समाजिक परिवर्तन दोनों इसमें शामिल है। इतना ही नहीं बिहार और उत्तर प्रदेश पिछले
कई वर्षों से जातिवादी राजनीति के कारण काफी बदनाम और आलोचना का पात्र बन चुका है।
जिग्नेश
मेवाणी एक दलित नेता के रूप में उभरे, पाटीदार समाज से हार्दिक पटेल उभरे, ठाकोर जाति
(पिछड़ी जाति) के अल्पेश ठाकुर ने गुजरात में समाजिक आंदोलन ही नहीं चलाया बल्कि राजनीतिक
रूप से हिन्दू धर्म के विशाल वटवृक्ष के टहनियों को अलग - अलग करने का प्रयास किया।
हिन्दू - मुस्लिम धर्म के बीच के विभाजन से राजनीति सम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्ष
के बीच हो जा रहा था। जातियों में पहचान और नेतृत्व का मुद्दा आते ही चुनाव के रुख
बिहार के दिशा में आ जाने कि संभावना है।
हिन्दू
धर्म में ऐसे त्वत्त हैं जिन्हें कोई भी शक्तिशाली और जन समर्थन वाला नेता इस कार्ड
को आसानी से तोड़ सकता है। प्राचीन में होने वाला अन्याय वर्तमान में भी विद्यमान है
और भविष्य में भी रूकने के आसार नहीं दिख रहे हैं। जाति और धर्म के तुलना में जाति
का महत्व इसलिए अधिक है क्यूंकि शादी - विवाह जो बेहद निजी मामला होता है, उसका निर्धारण
जाति संस्था ही तय करती है। खाप पंचायत के उभर में सिर्फ एक ही मुद्दा था - जाति के
अंदर और गोत्र के बाहर विवाह। यह कितना सही और कितना गलत है - यह मुद्दा नहीं है बल्कि
यह समाजिक तथ्य है। प्रगतिशील लोगों का भी झुकाव विवाह के मामले में जाति संस्था की
ओर रहता है, लेकिन वे सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करना नहीं चाहते हैं। प्रगतिशील
और छद्म रूप से विद्वान लोगों में मानसिक द्वन्द अधिक रहता है। अपने विचारों में अस्पष्ट
होने के कारण ही गलत बयान दे देते हैं और बाद में यह कह देते हैं मेरे मुँह में शब्द
डाले गए थे।
राजनीति
में नयी संस्कृति का आगमन हुआ है। भारतीय राजनीति में भलें ही किसी जाति का नेता उस
पूरे जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करता हों, लेकिन मीडिया और राजनीतिक मंडी में पूरे
प्रतिशत उसके झोली में डाल दिया जाता है। परसेंटेज पॉलिटिशियन का विचार मेरा निजी है।
परसेंटेज पॉलिटिशियन अपने पूरे जाति का ठेकेदारी कर अपना पद और गरिमा को महामंडित करता
है। इसी संदर्भ में अप्लेश ठाकुर को भी मीडिया संतुलन के सीमा में रहते हुए असंतुलित
संख्या का निर्धारण कर चुका है।
मूलतः
अहमदाबाद के एंडला गांव के रहने वाले अल्पेश समाज सेवा के अलावा खेती और रियल एस्टेट
का व्यवसाय करते हैं, उनका गांव हार्दिक पटेल के चंदन नगरी से कुछ ही किलोमीटर दूर
है। पांच साल पहले अल्पेश तब सुर्ख़ियों में
आए थे जब उन्होंने गुजरात क्षत्रिय-ठाकोर सेना का गठन किया था। यह संगठन नशा मुक्ति के लिए गुजरात में काम करता
है। आज भी इस संगठन में 6.5 लाख लोग रजिस्टर्ड
है। हाल ही में अल्पेश ने एकता मंच की स्थापना की, जिसके अंतर्गत ओबीसी, एससी, एसटी
समुदाय के लोगों को उन्होंने अपने साथ जोड़ा।
मालूम हो कि गुजरात में 22 से 24 प्रतिशत ठाकोर समुदाय के लोग हैं। देखना ये होगा कि कांग्रेस का साथ और चुनावी रण
में अल्पेश कितने प्रभावी साबित होते हैं।[1]
हार्दिक
पटेल जो पाटीदार आंदोलन के नेता हैं। उनका घर वीरमगाम है जो अहमदाबाद से करीब 60 किलोमीटर
दूर है। उनके पिता जी का नाम भरतभाई पटेल और
माता जी का नाम उषाबेन है। बेहद सामान्य परिवार में जन्म लेकर एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व
करना कोई आसान कार्य नहीं है। पारम्परिक रूप से पिता का संबंध भाजपा से रहा है। चंद्रनगर
जो कि पैतृक गाँव है वहां उनके पास 80 बीघा की ज़मीन है, जिस पर वह कपास, जीरा और ग्वार
उगाया करते थे। भाजपा के पारंपरिक वोटर माने
जाने वाले प्रदेश के 18 फीसदी पाटीदार समुदाय को पाटीदार अनामत आंदोलन समिति यानी
'पास' के बैनर तले लाकर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. लेकिन उनके
पिता लंबे समय तक भाजपा से जुड़े रहे थे। भरतभाई
पटेल बताते हैं, 'मैं भाजपा में पहले से था।
मेरे पास उस दौर में जीप हुआ करती थी।
मेरी जीप से भाजपा का प्रचार हुआ करता था।
मैं गाड़ी चलाया करता था और आनंदीबेन मेरे बाजू में बैठा करती थीं। कई साल तक
आनंदीबेन ने मुझे राखी भेजी। वह मेरे घर में
खाना भी खाकर गई हैं। इसलिए आंदोलन में हार्दिक
ने जब भी उनका नाम लिया तो उन्हें हमेशा 'फोई' (बुआ) कहा।' 51 साल के भरतभाई आठवीं
कक्षा तक पढ़े हैं, लेकिन राजनीतिक सवालों का जवाब भी बख़ूबी देते हैं। उषाबेन हिंदी समझ लेती हैं, लेकिन गुजराती में ही
बोलती हैं । हार्दिक के पिताजी कहते हैं,
'हम किसी ने नहीं डरते। मेरा बच्चा भी किसी
से नहीं डरता है। हमने कोई ग़लत काम नहीं किया।'[2]
हार्दिक
पटेल के पिताजी के बयान में राजनीतिक सच्चाई है। आनंदी बेन पटेल के बारे में उन्होंने
जो कुछ भी कहा - राजनीतिक यथार्थ है। राजनेताओं में एक परम्परा का विकास हो रहा है
- इस्तेमाल करो और इस्तेमाल के बाद भूल जाओ। दरअसल यह व्यथा एक मानवीय सम्वेदना का
भी है। सत्ता में रहते नेताओं में भ्रम दोष आना स्वाभाविक है। जनतंत्र में अगर पांच
वर्षों के बाद जनता के पास अगर नहीं जाना पड़ता तो पता नहीं ये लोग घमंड के गगन में
ही पहुंच जाते। अब समय आ गया है कि चुनाव के अवधि को पांच वर्षों के स्थान पर तीन वर्ष
कर देना चाहिए। इससे मानसिक संतुलन भी बना रहेगा और बयान भी सोच - समझकर देगा। जनतंत्र
में प्रत्येक व्यक्ति को जब तक शामिल नहीं किया जायेगा तब तक सहभागी लोकतंत्र का स्वप्न
- स्वप्न ही बनकर दम तोड़ देगा। दलित नेता, पिछड़ी जातियों के नेता, सवर्णों के नेता
- कुल मिलाकर नेताओं में गलत राजनीतिक संस्कृति का विकास हो रहा है। जन के बन तंत्र
है यानि जनतंत्र में जन यानि सामान्य और साधारण आदमी को उपेक्षित करने से जनतंत्र ही
खोखला हो जायेगा।
जिग्नेश मेवानी गुजरात में पिछले कुछ
हफ़्तों से चल रहे दलित आंदोलन का चेहरा हैं।
गुजरात के वेरावल में दलितों की पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन का नेतृत्व
जिग्नेश ही कर रहे हैं। पत्रकार, वकील फिर
कार्यकर्ता और अब नेता बने मेवाणी ने कवि मरीज़ की ज़िंदगी, उनके परिवार की जानकारी
और उनके ख़ोए हुए काम को ख़ोजने और जुटाने में कई साल बिताए हैं। "बस इतनी समझ
दे परवरदिगार, जब भी जहां भी सुख मिले तब सबका विचार दे, दुनिया में कइयों का ऋणी हूँ
मैं ‘मरीज़’, चुकाना है सभी का कर्ज़ जो अल्लाह उधार दे।" ये लाइनें हैं जाने-माने
गुजराती कवि मरीज़ की, जिन्होंने 35 साल के जिग्नेश मेवाणी को बहुत प्रभावित किया है।1980
में गुजरात के मेहसाना में जन्मे मेवाणी इन दिनों मेघानीनगर में रह रहे हैं। यह अहमदाबाद
का दलित बहुल इलाक़ा है। उनके पिता नगर निगम
के कर्मचारी थे और अब रिटायर हो चुके हैं। मेवाणी तब अचानक सुर्खियों में आए जब उन्होंने
वेरावल में उना वाली घटना के बाद घोषणा की कि 'अब दलित लोग समाज के लिए ''गंदा काम"
नहीं करेंगे,' यानी मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकाला, मैला ढोना आदि। मेवाणी कहते हैं,
"गांधी जी ने अपनी यात्रा के लिए लोगों का चयन किया था, ठीक वैसा ही मैंने किया
है। हम जिस भी गांव से गुज़रे, हज़ारों लोगों
ने स्वागत किया। मैंने उन हज़ारों लोगों को
शपथ दिलाई कि अब वे मरे हुए जानवरों को नहीं उठाएंगे और सरकार से अपने लिए दूसरे काम
की बात करेंगे।"[3]
तीनों किरदार में एक समानता है और वह है समाजिक आंदोलन से समाजिक परिवर्तन के
दिशा में आगे बढ़ना, लेकिन कई ऐसे प्रश्न हैं जो राजनीतिक रूप से संदेह के घेरे में
भी डालता है। अण्णा आंदोलन से राजनीतिक परिवर्तन हुआ, जिसमें मध्य वर्ग जो नौकरशाही
या अकादमिक या विश्वविद्यालय का शिक्षक या
वकील, इन लोगों ने जन आकांक्षा के भावना को उभारकर खुद को उभारना यानि राजनीति
का यह नया प्रयोग भी है। पॉपुलर मुद्दे को उठाना, फिर मीडिया का इस्तेमाल, मीडिया द्वारा
व्यक्तित्व का सृजन, व्यक्तित्व सृजन के बाद जन मत को अपने झूठे व्यक्तित्व से प्रभावित
करना, मनगठंत आरोपों और झूठे वायदे के साथ सत्ता पर काबिज होना। मंद - मंद मुस्कान
आती है जब सत्ता मिल जाती है।
मंहगाई से मजदूरों को परशानी बढ़ती है। खेतिहर मजदूर, कम जोत वाले किसान, ठेका
पर कार्य करने वाले मजदूर, शिक्षा से वंचित समाज, सत्ता में शामिल होने का चाह रखने
वाले युवा, निम्न मध्य वर्ग, शोषित समाज, गरीबी से बेहाल परिवार, समाजिक स्तरीकरण में
निम्न समूह, स्वप्नों पर जीने वाले व्यक्तियों को झूठे वायदे और आर्थिक लाभ को दिखाकर
एकत्रित करना आसान है। इससे भी आसान है - जाति के भावना को उद्देलित कर परसेंटेज पॉलिटिशियन
बन जाना और समाज में अपने को स्थापित कर सबसे पहले अपनों को काटना और अपनों के कट जाना।
ये बातें लिखीं या कहीं नहीं जाती है। फिर से मंद - मंद मुस्कान और दूसरों को देखकर
भी मंद - मंद मुस्कान।
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