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मनोग्रंथि प्रेरित हिंसा : समाज का बदलता चरित्र

 विश्व में अशांति और हिंसा में आतंकवाद के अलावे विकृत मनोग्रंथि भी एक प्रमुख कारण है। विश्व अब आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता के युग में सूचना क्रांति के युग अपने स्वरूप को बदला और भारतीय  समाज भी अपने परम्परागत मूल्यों और आधुनिक मूल्यों के बीच अपनी पहचान खोज रहा है। परम्परा भी निरंतरता के त्वत्तों को आधुनिक मूल्यों में अपना स्थान बना रही है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द बलि प्रथा से प्रारम्भ हुआ जिसमें बुद्ध और महावीर जैसे लोगों ने अपने - अपने धर्मों का निर्माण कर हिंसा पर रोक लगाने का प्रयास किया। अब सुप्रीम कोर्ट भी जानवरों के प्रति न्याय हो सकें, इस दिशा में माननीय अदालत का प्रयास सराहनीय है।
जब जानवरों कि बलि दी जाती थी तो उस पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास बुद्ध कालीन समाज किया, आज के समाज से भी शायद वो समाज संवेदनशील रहा होगा। अब तो इंसानों के मौत पर भी संवेदनशील बयान के उम्मीद में समाज मौन है। मौन तभी आती है जब बड़ा तूफ़ान आने वाला होता है। जानवरों के अधिकारों कि रक्षा होनी चाहिए। यहीं सभ्य समाज का पहचान है। मगर इंसान को अगर जानवरों से भी ज्यादा दुर्गति और निर्मम तरीके से उसे पीटा जाएँ और अमानवीय व्यवहार किया जाएँ तो सभ्यता भी शर्म में सकती है।
शक्तिमान के मौत पर तत्कालीन उत्तराखंड में बर्ख़ास्त सरकार के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कुछ इस तरह अपना अफ़सोस जताया।  उनका कहना था, “ये बहुद दुखद है।  ज़र्बदस्त झटका लगा है।  मुझे तकलीफ़ है कि शक्तिमान को नहीं बचा सके।  जब हम समझ रहे थे कि कृत्रिम टांग पर खड़ा होकर वो फिर से पुलिस की शान बन सकेगा, तो वो हमें छोड़ कर चला गया।शक्तिमान के शहीद होने पर देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक सदानंद दाते ने कहा, “उसकी स्थिति में लगातार सुधार हो रहा था।  वो अपने पैरों पर खड़ा हो गया था।  खड़ा होने के बाद चलने भी लगा था।  जो अमरीका से प्रोस्थेटिक लिंब आया था, उससे भी वो एडजस्ट हो रहा था।  कंप्लिकेशन एनस्थीसिया के प्रीमेडिकेशन के दौरान हुआ।  उसे इससे अचानक शॉक जैसा कुछ हुआ है। डॉक्टर यहीं पर हैं, जांच कर रहे हैं।इतना ही नहीं देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक सदानंद दाते का कहना है, "शक्तिमान हमारा सिपाही था और ड्यूटी के दौरान उसकी मौत हुई है तो हमलोग जिस तरह से अपने जवानों का अंतिम संस्कार करते हैं, उसी सम्मान के साथ शक्तिमान का भी अंतिम संस्कार करेंगे।"[1] भारतीय समाज के उच्च आदर्शों और मानदंडों के कारण शक्तिमान के लिए दो दलों के बीच संघर्ष हुआ। विधायक जी को जेल जाना पड़ा। इतना ही नहीं उन्हें सार्वजनिक रूप से संवेदनशील बनाया गया। शक्तिमान एक घोड़ा था, जो अब इस दुनिया में नहीं रहा। शक्तिमान का शक्ति मौत के सामने काम नहीं सका। चेतक ने महाराणा प्रताप को बचाया था। हमलोग आज भी संवेदनशील हैं।
एक ओर उत्तराखंड में एक प्रदर्शन के दौरान शक्तिमान को  पुलिस के पीटने से  मृत्यु हो गयी, दूसरी ओर गुजरात राज्य में  आणंद जिले के सोजित्रा तालुका के कासोर गांव में कथित रूप से ऊंची जाति के कुछ लोगों ने एक दलित महिला और उसके बेटे को पहले नग्न किया और फिर बेंत से पिटाई की।[2] घटनाओं का आरोपी कोई भी हों या घटना किसी भी जाति पर किया जाता तो क्या इससे हमारी सभ्यता सुशोभित होती ? ऊना में दलितों के साथ जो हिंसा हुईं क्या वह मानव के साथ होना चाहिए ? गांधीजी ने चम्पारण में भी मात्र अहिंसा का प्रयोग किया जो बाद में चलकर असहयोग आंदोलन का नींव बना। गाँधी जी ने अपने सत्याग्रह का प्रयोग ही किया था चंपारण में, जिसका बिहार में काफी हर्ष के साथ उन दिनों को याद किया जा रहा है।
ऊना में जिस प्रकार अपराध में घृणा का भाव समाहित है ठीक उसी प्रकार अमेरिका  में भी  पिछले साल हिंदुओं और सिखों के खिलाफ अपराधों समेत  6000  से अधिक घृणा अपराध दर्ज किए।  एफबीआई के आंकड़ों में यह जानकारी दी गई है जिनके अनुसार इस प्रकार की घटनाओं में वर्ष 2015  की तुलना में करीब पांच प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। पीटीआई की खबर के मुताबिक, इन घटनाओं में अधिकतर मामले अश्वेत विरोधी या अफ्रीकी-अमेरिकियों के प्रति भेदभाव और यहूदी विरोधी थे जबकि एक चौथाई मामले मुस्लिम विरोधी थे।  संघीय जांच ब्यूरो एफबीआई ने अपने ताजा वार्षिक आंकड़ों में कहा कि वर्ष 2016 में उसने 12 हिंदू विरोधी घृणा अपराध और सात सिख विरोधी घृणा अपराध दर्ज किए।  बौद्ध समुदाय के खिलाफ घृणा अपराध का एक मामला दर्ज किया गया।  घृणा अपराध के 3.1 प्रतिशत मामले एशिया के खिलाफ भेदभाव और 1.3 प्रतिशत मामले अरब विरोधी भेदभाव का परिणाम थे।[3]

जातिगत हिंसा हों या प्रजाति से संबंधित हिंसा हों या नृजातीयता से संबंधित हिंसा हो सब घटनाओं में पूर्वाग्रह और मनोविकार शामिल है। मनोविकार में असफलता, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, वैमनस्यता आदि त्वतों का भी समावेश होता है। यह मानवीय पक्ष का कमजोर पक्ष है जिसमें वह कमजोरों के सामने शेर बन जाता है और मजबूत के सामने गीदर बनने में भी देर नहीं लगता है। आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत के जनक निकोलो  मैकियावेली के सिद्धांत के सफलता के पीछे शायद मनुष्यों के गुणों का गहन अध्ययन ही था। इसीलिए भारतीय राजनीति ही नहीं विश्व में बढ़ते मनोविकार में भी उनका दिया सिद्धांत दिखाई दे रहा है।
निकोलो मैकियावेली (NICCOLO DI BERNARDO DEI MACHIAVELLI) (03 MAY 1469 – 21 JUNE 1527) इटली का राजनयिक एवं राजनैतिक दार्शनिक, संगीतज्ञ, कवि एवं नाटककार था। पुनर्जागरण काल के इटली का वह एक प्रमुख व्यक्तित्व था। वह फ्लोरेंस रिपब्लिक का कर्मचारी था। मैकियावेली की ख्याति (कुख्याति) उसकी रचना प्रिंस के कारण है जो कि व्यावहारिक राजनीति का महान ग्रन्थ स्वीकार किया जाता है। वे अपनी महान राजनीतिक रचना, प्रिंस (राजनीतिक शास्त्र), डिसकोर्स और हिस्ट्री के लिए मशहूर हुए जिनका प्रकाशन उनकी मृत्यु (1532) के बाद हुआ, हालांकि उन्होंने निजी रूप इसे अपने दोस्तों में बांटा। एकमात्र रचना जो उनके जीवनकाल में छपी वो थी आर्ट ऑफ वार (THE ART OF WAR) ये रचना युद्ध-कौशल पर आधारित थी। अपनी कुटिल राजनीति को मैकियावेलीवाद कहा जाता है।[4]
मैकियावेली का स्पष्ट मन्ना थाएक तंदरुस्त खड़ी सेना ही अच्छे कानून को जन्म दे सकती है | उनका बहुचर्चित कथन था, “The presence of sound military forces indicate sound laws” . युद्ध  के प्रति मैकियावेली के विचार अलग थे | उनका मानना था कि राज्य के विकास के लिए युद्ध  आवश्यक है, लेकिन निर्णायक नहीं है।  यानी केवल युद्ध से  विकास सम्भव नहीं है। युद्ध में विजय ही  स्वस्थ राज्य की नींव है।  “ प्रिन्समें विस्तार से समझाया है किस प्रकार राज्य को किस प्रकार  और किस तरह से  हड़पना चाहिएहड़पे हुए राज्यों की जनता और मंत्रियों के साथ किस तरह पेश आना चाहिए ताकि वे आज्ञाकारी रहे।   राज्य में उठने वाले आतंरिक विद्रोह को रोकना पर भी अपने सिद्धांत दिए है और इसे बाह्य युद्ध से क्या नुकसान होता है, उसका भी उल्लेख किया गया है।  जीतने के लिए केवल अस्त्र-शस्त्र और   प्रबल सेना की प्रशंसा नहीं किया बल्कि  जीतने की लिएकुटिल निति (DIPLOMACY), घरेलु राजनीति (DOMESTIC POLITICS), कुशल रणनीति (TACTICAL STRATEGY), भौगोलिक कौशल (GEOGRAPHIC MASTERY), और एतिहासिक विश्लेषण (HISTORICAL ANALYSIS) – का प्रयोग अत्यंत आवश्यक माना है [5]  अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरम्भ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है। बच्चे के छोटे से हृदय में पहले सुख और दु: की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है। पेट का भरा या ख़ाली रहना ही ऐसी अनुभूति के लिए पर्याप्त होता है। जीवन के आरम्भ में इन्हीं दोनों के चिह्न हँसना और रोना देखे जाते हैं पर ये अनुभूतियाँ बिलकुल सामान्य रूप में रहती हैं, विशेष-विशेष विषयों की ओर विशेष-विशेष रूपों में ज्ञानपूर्वक उन्मुख नहीं होतीं। नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनमें संबंध रखनेवाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि सुख और दु: की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा इत्यादि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है। जैसे, यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल सामान्य दु: होगा; पर यदि साथ ही यह ज्ञात हो जाय कि सुई चुभानेवाला कोई व्यक्ति है तो उस दु: की भावना कई मानसिक और शारीरिक वृत्तियों के साथ संश्लिष्ट होकर उस मनोविकार की योजना करेगी जिसे क्रोध कहते हैं। जिस बच्चे को पहले अपने ही दु: का ज्ञान होता था, बढ़ने पर असंलक्ष्यक्रम अनुमन द्वारा उसे और बालकों का कष्ट या रोना देखकर भी एक विशेष प्रकार का दु: होने लगता है जिसे दया या करुणा कहते हैं। इसी प्रकार जिस पर अपना वश हो ऐसे कारण से पहुँचनेवाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो दु: होता है वह भय कहलाता है। बहुत छोटे बच्चे को, जिसे यह निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती, भय कुछ भी नहीं होता। यहाँ तक कि उसे मारने के लिए हाथ उठाएँ तो भी वह विचलित होगा; क्योंकि वह निश्चय नहीं कर सकता कि इस हाथ उठाने का परिणाम दु: होगा। मनोविकारों या भावों की अनुभूतियाँ परस्पर तथा सुख या दु: की मूल अनुभूति से ऐसी ही भिन्न होती हैं जैसे रसायनिक मिश्रण परस्पर तथा अपने संयोजक द्रव्यों से भिन्न होते हैं। विषय बोध की विभिन्नता तथा उससे संबंध रखनेवाली इच्छाओं की विभिन्नता के अनुसार मनोविकारों की अनेकरूपता का विकास होता है। हानि या दु: के कारण में हानि या दु: पहुँचाने की चेतन वृत्ति का पता पाने पर हमारा काम उस मूल अनूभूति से नहीं चल सकता जिसे दु: कहते हैं, बल्कि उसके योग से संघटित क्रोध नामक जटिल भाव की आवश्यकता होती है। जब हमारी इंद्रियाँ दूर से आती हुई क्लेशकारिणी बातों का पता देने लगती हैं, जब हमारा अंत:करण हमें भावी आपदा का निश्चय कराने लगता है; तब हमारा काम दु: मात्र से नहीं चल सकता बल्कि भागने या बचने की प्रेरणा करनेवाले भय से चल सकता है। इसी प्रकार अच्छी लगनेवाली वस्तु या व्यक्ति के प्रति जो सुखानुभूति होती है उसी तक प्रयत्नवान प्राणी नहीं रह सकता, बल्कि उसकी प्राप्ति, रक्षा या संयोग की प्रेरणा करनेवाले लोभ या प्रेम के वशीभूत होता है।  अपने मूल रूपों में सुख और दु: दोनों की अनुभूतियाँ कुछ बँधी हुई शारीरिक क्रियाओं की ही प्रेरणा प्रवृत्ति के रूप में करती हैं। उनमें भावना, इच्छा और प्रयत्न की अनेकरूपता का स्फुरण नहीं होता। विशुद्ध सुख की अनुभूति होने पर हम बहुत करेंगे-- दाँत निकालकर हँसेंगे, कूदेंगे या सुख पहुँचानेवाली वस्तु से लगे रहेंगे, इसी प्रकार शुद्ध दु: में हम बहुत करेंगे-- हाथ पैर पटकेंगे, रोएँगे या दु: पहुँचानेवाली वस्तु से हटेंगे-- पर हम चाहे कितना ही उछल कूदकर हँसें, कितना ही हाथ पैर पटककर रोएँ, इस हँसने या रोने को प्रयत्न नहीं कह सकते। ये सुख और दु: के अनिवार्य लक्षण मात्र हैं जो किसी प्रकार की इच्छा का पता नहीं देते। इच्छा के बिना कोई शारीरिक क्रिया प्रयत्न नहीं कर सकती। शरीर-धर्म मात्र के प्रकाश से बहुत थोड़े भावों की निर्दिष्ट और पूर्ण व्यंजना हो सकती है। उदाहरण के लिए कम्प को लीजिए। कम्प शीत की संवेदना से भी हो सकता है, भय से भी, क्रोध से भी और प्रेम के वेग से भी। अत: जब तक भागना, छिपना या मारना, झपटना इत्यादि प्रयत्नों के द्वारा इच्छा के स्वरूप का पता लगेगा तब तक भय या क्रोध की सत्ता पूर्णतया व्यक्त होगी। सभ्य जातियों के बीच इन प्रयत्नों का स्थान बहुत कुछ शब्दों ने लिया है। मुँह से निकले हुए वचन ही अधिकतर भिन्न-भिन्न प्रकार की इच्छाओं का पता देकर भावों की व्यंजना किया करते हैं। इसी से साहित्य मीमांसकों ने अनुभाव के अंतर्गत आश्रय की उक्तियों को विशेष स्थान दिया है। क्रोधी चाहे किसी ओर झपटे या झपटे, उसका यह कहना ही कि 'मैं उसे पीस डालूँगा' क्रोध की व्यंजना के लिए काफी होता है। इसी प्रकार लोभी चाहे लपके या लपके, उसका कहना है कि 'कहीं वह वस्तु हमें मिल जाती' उसके लोभ का पता देने के लिए बहुत है। वीर रस की जैसी अच्छी और परिष्कृत अनुभूति उत्साहपूर्ण उक्तियों द्वारा होती है वैसी तत्परता के साथ हथियार चलाने और रणक्षेत्र में उछलने-कूदने के वर्णन में नहीं। बात यह है कि भावों द्वारा प्रेरित प्रयत्न या व्यापार परिमित होते हैं। पर वाणी के प्रसार की कोई सीमा नहीं। उक्तियों में जितनी नवीनता और अनेकरूपता सकती है या भावों का जितना अधिक वेग व्यंजित हो सकता है उतना अनुभाव कहलानेवाले व्यापारों-द्वारा नहीं। क्रोध के वास्तविक व्यापार तोड़ना-फोड़ना, मारना-पीटना इत्यादि ही हुआ करते हैं, पर क्रोध की उक्ति चाहे जहाँ तक बढ़ सकती है किसी को धूल में मिला देना, चटनी कर डालना, किसी का घर खोदकर तालाब बना डालना, तो मामूली बात है। यही बात सब भावों के संबंध में समझिए। समस्त मानव जीवन के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते हैं। शील या चरित्र का मूल भी भावों के विशेष प्रकार के संगठन में ही समझना चाहिए। लोक-रक्षा और लोक-रंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया गया है। धर्म शासन, राज शासन, मत शासन---सब में इनसे पूरा काम लिया गया है। इनका सदुपयोग भी हुआ है और दुरुपयोग भी। जिस प्रकार लोक-कल्याण के व्यापक उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनुष्य के मनोविकार काम में लाए गए हैं, उसी प्रकार किसी संप्रदाय या संस्था के संकुचित और परिमित विधान की सफलता के लिए भी।  सब प्रकार के शासन में --- चाहे धर्म शासन हो, चाहे राज शासन या संप्रदाय शासन---मनुष्य जाति के भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है। दण्ड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन और मत-शासन चलते रहे हैं। इनके द्वारा भय और लोभ का प्रवर्तन उचित सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है। जिस प्रकार शासकवर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थ-सिद्धि के लिए इनसे काम लेते आये हैं, उसी प्रकार धर्म-प्रवर्तक और आचार्य आपके स्वरूप-वैचित्रय की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी। शासकवर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं। मत-प्रवर्तक अपने द्वेष और संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी जनता को कँपाते और ललचाते आये हैं। एक जाति को मूर्ति-पूजा करते देख दूसरी जाति के मत-प्रवर्तक ने उसे गुनाहों में दाख़िल किया है। एक संप्रदाय को भस्म और रुद्राक्ष धारण करते देख दूसरे संप्रदाय के प्रचारक ने उसके दर्शन तक में पाप लगाया है। भावक्षेत्र अत्यंत पवित्र क्षेत्र है। उसे इस प्रकार गंदा करना लोक के प्रति भारी अपराध समझना चाहिए।[6]
उपयुक्त विश्लेषण के तत्पश्चात मनुष्य के मनोवृत्ति को दर्शाता है। मनोविज्ञान हों या नहीं हों यहाँ पर यह मुद्दा नहीं है। यहां सिर्फ कहने का अर्थ यह है कि मनोविकारों के युग का प्रवेश हो चुका हैं।  मानसिक विचलन के घटनाओं के संख्याँ में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही हैं। चपन में होने वाले आम मानसिक विकारों में एक ऑटिज्म स्पेक्ट्र डिसॉर्डर (एएसडी) से देश के 250 बच्चों में से एक बच्चा शिकार पाया जाता है। देश का एक मात्र स्टेमसेल थेरेपी केन्द्र मुंबई के न्यूरोजेनब्रेन एण्ड इंस्टीट्यूट के निदेशक डा. आलोक शर्मा के अनुसार इस बीमारी के बेहतर निदान के साधनों और लोगों के मनोविकार को लेकर बढ़ी जागरूकता के चलते ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही हैं। उन्होंने कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में 68 बच्चों में एक बच्चे को ऑटिज्म की समस्या पाई जाती हैं। उन्होंने इसके तहत अब तक दुनियाभर के करीब एक हजार से अधिक ऑटिस्टिक बच्चों के उपचार की पेशकश कर चुका हैं। डा. शर्मा ने बताया कि ऑटिज्म बचपन का एक विकार है जो बोलने में दिक्कत,अतिसक्रियता, आक्रामक व्यवहार और सामाजिक संपर्क में कठिनाई के परिणाम प्रकट करता हैं। वर्तमान में देश में करीब एक करोड़ व्यक्ति इससे प्रभावित हैं जिनका दवाओं एवं थैरेपी के सहारे इलाज किया जा रहा हैं। उन्होंने कहा कि कुछ ऐसे विकार होते है जिनमें उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ मेडिकल और पुर्नवास उपचार के बाद भी आज तक मेडिकल साइंस अभिभावकों को मेडिकल और भौतिक लाक्षणिक मामले में संतोषजनक राहत देने या समाज के साथ एकीकृत होने का संबल करने में पूर्णत सक्षम नहीं हैं। ऑटिज्म भी एक ऐसा ही विकार हैं। उन्होंने बताया कि उनके संस्थान में अब तक भारत सहित दुनियाभर के 50 से अधिक देशों से पांच हजार से अधिक मरीज आए है तथा उनका 80 से 90 प्रतिशत सफलतम उपचार किया हैं। इस विकार के ईलाज के रुप में उन्होंने बताया कि इसमें मरीज के स्वयं के बोनमेरो निकालकर उसको उसी के रीड की हड्डी में सूई के जरिए स्थापित किया जाता हैं। इसके साथ मरीज को अन्य थैरीपी से उपचार भी किया जाता हैं।[7] 


किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय , आत्मविश्वास , अथक परिश्रम का होना आवश्यक है। कभी किसी अप्रत्याशित घटना के जाने पर व्यक्ति भयाक्रान्त हो जाता है। सफलता दूर जाती दिखलाई देती है। यह एक चुनौती भरा क्षण होता है। अधिकांश लोग इस विषम परिस्थिति में अमर्यादित भय के कारण अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं। लगन , निष्ठा , समर्पण , दूरदर्शिता समाप्त हो जाने पर निराशा , हताशा , कुंठा , दुख , अवसाद एवं मिथ्या विरक्ति के भाव पैदा होने लगते हैं। यह अप्रत्याशित भय या आशंका वास्तव में एक चुनौती होती है। यह व्यक्ति को धैर्य , साहस , आत्मसंयम , दूरदृष्टि जैसे अन्तनिर्हित गुणों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है। सफलता इन्हीं प्रत्याशित-अप्रत्याशित भावों-विचारों को पार करने के पश्चात साधक की प्रतीक्षा करती है। प्रत्याशित , अप्रत्याशित घटनाओं के कारण साधक को अतिभय से भयाक्रान्त नहीं होना चाहिए। यदि साधक भयाक्रान्त होकर अपना विश्वास खो बैठा , तो वह निराशा , कुंठा , हताशा , उत्साहहीनता , मिथ्यविरक्ति के अंधकार से घिर जाएगा। भय मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव माना गया है। संभावित खतरों के प्रति भय के भाव उपजना मानव के सामान्य व्यक्तित्व की निशानी है। शोधों से यह पता चला है कि खास प्रकार के तंत्रिकीय जैव रसायनों के असंतुलन से व्यक्ति भय का मरीज बन जाता है। अतिभय को विश्वसनीय व्यक्ति के प्रेम और आश्वासन द्वारा ठीक किया जा सकता है। अतिभय का विलोम आश्वासन माना गया है। भय के संबंध में यह कहा गया है कि जब तक कोई अनिष्टकारी विपत्ति सामने नहीं आती , तब तक व्यक्ति को उससे थोड़ा बहुत भय रहना ही चाहिए , लेकिन जब विपत्ति सामने जाए , तब भयमुक्त होकर पूरी शक्ति , सूझ-बूझ , धैर्य एवं साहस के साथ मुकाबला करना चाहिए। भयाक्रान्त होना व्यक्ति के पतन का कारण है। कितनी ही भयानक अनिष्टकारी विपत्ति हो , मौत से ज्यादा कुछ नहीं कर सकती , जो कि अवश्यंभावी है। ऐसी स्थिति का ज्ञान हो जाने पर साधक को अपना आत्मविश्वास एवं साहस नहीं छोड़ना चाहिए।[8]







[1] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/04/160420_shaktiman_funeral_cj
[2] https://navbharattimes.indiatimes.com/state/gujarat/other-cities/una-like-incident-occurs-in-gujarat-dalit-man-mother-thrashed-by-upper-caste-people/articleshow/60071618.cms
[4] https://hi.wikipedia.org
[5] https://nitinjalan.wordpress.com/2009/05/23/the-prince-post-1/
[6] https://www.anhadkriti.com/ram-chandra-shukla-bhaav-yaa-manovikaar
[7] http://www.deshbandhu.co.in/vichar/one-in-250-children-suffer-from-dementia-59307-2
[8] https://hindi.speakingtree.in/article/content-246849

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