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राष्ट्रवाद


राष्ट्रवाद एक अमूर्त अवधारणा है जो एक राष्ट्र के भौगोलिक सीमा के भीतर रहने वाले समाज के सदस्यों के बीच मनोवैज्ञानिक और भावना से जुड़ा हैं। हमारा स्पष्ट मानना है राष्ट्रवाद एक विचारधारा के रूप में समाजिक एकता के सूत्र को बढ़ाती है लेकिन अनेकता या समाजिक विभाजन से रष्ट्रवाद के संकल्पना में कमी आना भी स्वाभाविक है। कोई भी सिद्धांत समय और संदर्भ सापेक्ष होता है क्यूंकि राष्ट्र में रहने वाले व्यक्तियों का समाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यक्तिगत विचार अलग - अलग होते हैं।

एक भूखे व्यक्ति के लिए रोटी प्राप्त करना अपने जीवन का मूल उद्देश्य ही होगाहो सकता है पेट भर जाने के बाद उसका उद्देश्य बदल जाएँ और बाद में उसका कुछ और उद्देश्य हो सकता है। रोजगार प्राप्त करने के बाद व्यक्ति समाजिक हैसियत के लिए एक अच्छी गाड़ी, एक मकान या विवाह संस्था जैसे विचारों पर ध्यान केंद्रित करता है। एक बेरोजगार व्यक्ति के लिए रोजगार समाचार ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, क्यूंकि उसी में रोजगार से संबंधित समाचार  होते हैं। मेरे लिए उपर्युक्त तीनों उदाहरण यह दिखाता है व्यक्ति अपने मूल समस्या, समाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धर्मिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि से अपने विचार, सोच और आदत का निर्माण करता है।


समय और सत्ता के संदर्भ में कोई भी विचारधारा अपने शासक से प्रभावित हो जाता है। हिटलर ने प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के हार और वर्साय के संधि के उस तत्कालीन समाज को राष्ट्रवाद पर ही एक किया। अगर वर्साय के संधि में ही हिटलर के राष्ट्रवाद के जन्म के बीज छुपे थे। इसी कारण समाज को हिटलर ने  राष्ट्रवाद के स्वरूप और प्रकृति को समझाने में सफल होता है और जर्मनी विश्व के मंच एकाएक अवतरित होता है। जर्मनी के हार और हिटलर का आत्महत्या ही राष्ट्रवाद के परिभाषा को संतुलित करता है। युद्ध के बाद शांति के महत्व को संहा गया इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थापना चौबीस अक्टूबर 1945 को हुआ। समय, संदर्भ और सत्ता भी राष्ट्रवाद को उग्र भी करती है और संतुलित भी करती है। मुसोलिनी भी रष्ट्रवाद और तानाशाही के कारण ही उसी राष्ट्र के लोगों के द्वारा स्वयं मुसोलिनी को अपना जीवन देना पड़ा।




संयुक्त राष्ट्र संघ के जन्म में सिर्फ शांति ही नहीं है बल्कि राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा भी शामिल है। शोषण और अन्याय से बचाने का कार्य राष्ट्र के बैठे सत्ता के लोगों का कर्तव्य ही नहीं अधिकार भी है। एक गरीब के लिए चिंतन सिर्फ रोटी के लिए होता है या रोटी प्राप्त के सोच पर ही टिकी रहती है। नोटबंदी में अक्सर व्यक्ति टी एम से पैसा निकलने का ख़ुशी वैसा ही था जैसा साक्षात भगवान के दर्शन के बाद होता। चिंतन, विचार और विचारधारा स्वयं में कुछ भी नहीं है क्यूंकि हमारा दिमाग सांस्कृतिक विचारों और समाजिक हकीकतों से बना है। भारतीय समाज में जब भी कोई वंचित परिवार में जन्म लेता है तो उसे गरीबी और कुपोषण जैसी समस्याओं से सामना करना परता है। सीमित आर्थिक सीमा में वो ख़ुशी भी ढूंढ नहीं सकता है। एक दलित जन्म लेते ही उसे जैविक प्राणी से निकलते ही समाजिक प्राणी बनना पड़ता है। जैसे ही वो बच्चा समाजिक प्राणी बनने के दिशा में आगे बढ़ता है तो जन्म के कारण ही उसे जाति उपहार में मिल जाता है। अगर आप ब्राह्मण हैं तो समाज के शीर्ष पर और अनुसूचित जाति के हैं तो समाज के निम्न पायदान पर आपका स्थान आरक्षित हो जाता है।
अब चूंकि जन्म ही सामाजिक स्तरीकरण में आपका स्थान तय कर चूका है तो आप सीढ़ी पर चढ़कर आसानी से ऊपर बढ़ सकते हैं लेकिन समाजिक स्तरीकरण के सीढ़ी पर आपका स्थान तय हो जाता है। समाजिक परिवर्तन और समाजिक गतिशीलता के माध्यम से आपको नौकरी, संसद सदस्य, विधानसभा सदस्य आदि बन भी गए तो संरचनात्मक परिवर्तन सम्भव नहीं है। ऐसे आप मन में कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र हैं।
राष्ट्रवाद को समझने के लिए समाजिक पृष्ठभूमि और अस्मिता या पहचान को समझना  भी जरूरी है।

प्रथम - राष्ट्रवाद में मनुष्यों का पहचान में अंतर है वो राष्ट्रीय पहचान में आखिर क्यों नहीं रूपांतरित हो रही है।

द्वितीयराष्ट्रवाद (NATIONALISM) को जाति (CASTE), धर्म (RELIGION), क्षेत्र (REGION), भाषा (LANGUAGE), लिंग (SEX), नृजातीयता (ETHNICITY), प्रजाति (RACE) आदि त्वत्तों को उस राष्ट्र के नागरिकों के द्वारा अभी तक कितना एकीकरण (INTEGRATION) या आत्मसातीकरण  (ASSIMIMILATION),  हुआ है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 15 जो कहता है - राज्य किसी भी नागरिक के विरूद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग तथा जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। इसीलिए हमारा संविधान भी राष्ट्रवाद के अनुरूप ही है।

प्रत्येक राष्ट्र अपने प्रश्नों के उलझन में जबाब ढूंढता रहता है। अमेरिका एक विकसित राष्ट्र होने के बाबजूद श्वेत और अश्वेत के समस्या से अभी तक निजात नहीं पा रहा है। इसी तरह भरतीय समाज में जाति का आधार जन्म है वो ही समाजिक रूप से शुद्धता और अशुद्धता के विचारों से बंधा है। जाति एक संथा के रूप में इतनी शक्तिशाली है आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी चुनाव ही नहीं जीवन के प्रत्येक निजी और बाह्य पक्ष को निर्धारित करती है। भारत आज भी पारम्परिक समाज है जिसमें पुरातन विचारों का समावेश  काफी अधिक है। भारतीय समाज का विशेषता यह है कि विविधता और विषमता के बाबजूद भरतीय जनमानस में एकता दिखाई दिया, उस एकता को श्रेय डॉक्टर आंबेडकर को ही जाता है। समाजिक व्यवस्था में अंतर्निहित विषमता जो सदियों से चली रही थीं उसके खिलाफ संघर्ष किया और समजिक न्याय आधारित समाज को पुनर्भाषित किया।  आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू, आंबेडकर, गांधी, पटेल आदि के भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

भारतीय रष्ट्रवाद में मार्क्सवादी चिंतन आर्थिक गैरबराबरी को समाप्त करने दिशा में केंद्रित करता है। उपाश्रित स्कूल के विचारक समाज के शोषण, अत्याचार, पक्षपात, अन्याय के स्थान पर समाजिक न्याय पर ध्यान केंद्रित करता है। राष्ट्रवादी विचारक स्वंत्रता और स्वाधीनता पर बल देते हैं।

मेरे विचार से किसी भी समाज में जब तक गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, अन्याय, अत्याचार पर सरकार अपने नागरिकों को मूल सुविधा प्रदान नहीं करेगी तब कोई भी राष्ट्र सिर्फ अधिकारों के मांग में ही डूबी रहेगी। राष्ट्रवाद के लिए एकता और नागरिकों के बीच विश्वास होना चाहिए। अखंडित समाज कभी भी एकता में नहीं आती है। असमानता  के धरातल पर समानता के बात का कोई महत्व नहीं है। राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक समानता के बगैर राष्ट्रवाद के भावना को विकास नहीं किया जा सकता है।


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