गुजरात में जातियों के गठजोड़ से ही अब कोई भी दल सत्ता में आएगी। विकास और एकता के विचार को आदर्शवादी रूप दिया जायेगा और जाति के गणित को हकीकत ही माना जायेगा। राजनीति में अब दो रूप से चुनाव लड़ने कि परम्परा का विकास हो रहा है - पहला आदर्शवादी और दूसरा यथार्थवादी स्वरूप। यथार्थवादी स्वरूप में जाति, जन्म, धन और शक्ति शामिल है लेकिन आर्दशवादी स्वरूप में विचारघारा, दर्शन, विकास और एकता।
गठजोड़ तंत्र को मजबूत बनाने का कार्य मीडिया और चिंतकों पर छोड़ दिया जाता है। विज्ञापन और बाजार के गठजोड़ से ही मीडिया चलती है लेकिन सत्ता तक पहुंच से खबरों का बाजार भी चलता है। तथ्य का स्थान अब सूत्रों के हवाले ने ले लिया है। ज्ञान का स्थान भी सूत्र सम्पर्क स्थापित करने वालों के हाथ चला गया है। राजनीति में चुनाव एक पर्व है जिसमें ख़ुशी ही ख़ुशी है क्यूंकि जीत और हार का निर्णय भी राजनीतिक विश्लेषकों के ज्ञान पर आधारित होता जा रहा है। ओपिनियन पोल या चुनावी सर्वेक्षण ने चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निर्वाह करती है या नहीं ये चुनाव के बाद ही पता चलता है। इन सारे तथ्यों में एक चीज गायब हो जाती है - जनता। जनतंत्र में जनता अब गायब है लेकिन मीडिया, राजनीतिक दल, प्रशासन, अपराधी, धनतंत्र सब आगे रहते हैं। जनता ही मूकदर्शक और गौण हो जाती है। दरअसल टिकट के चयन में उम्मीदवार इतना परेशान हो जाता है कि उसे जनता तक अपने संवाद पहुंचने का अवसर ही नहीं मिलता है। टिकट प्राप्त करने के बाद अपने समर्थकों को एकता के सूत्र में बांधना दूसरा चुनौती हो जाता है।
अगर दलगत एकता बन जाती है तो चुनाव के प्रचारक के तैयारी और दल के अंदर वह व्यक्ति जो टिकट दिलवाया है, दोनों के सेवा में ही समय बर्बाद हो जाता है। प्रभारी और उप - प्रभारी जैसे नेता जो उस क्षेत्र के ऐसे नेता होते हैं जिन्हें मतदाता नहीं जानता है लेकिन दल उसे जानता है। उनकी भूमिका सही मायनों में कुछ नहीं होती है लेकिन प्रासंगिकता बनी रहती है। शीर्ष नेताओं के सिंह गर्जना के लिए भी उम्मीदवार और दल के निष्ठावान कर्यकर्ता ही लोगों को एकत्रित करते हैं। भीड़तंत्र का दौर अब लोकतंत्र में संकट बनता जा रहा है। हाल में ही अभिनेताओं, अभिनेत्री, क्रिकेटर आदि द्वारा भीड़ जमा किया जा रहा है। नाचने और गाने वालों के द्वारा भी भीड़ जुटाना का प्रचलन दिखाई पड़ रहा है। अब तो नौटंकी करने वालों का भी आने वाले समय में चुनावी राजनीति में महत्व बढ़ जायेगा।
आरक्षण जो बिल्कुल ही अलग मुद्दा होते हुए भी चुनावी राजनीति में एक नए युग और पहचान के साथ जुड़ गया है। गुजरात में चुनाव आरक्षण, जाति और धर्म के चक्रव्यूह में फसता नजर आ रहा है। अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग पहचान रहा है गुजरात राज्य का, क्यूंकि यह राज्य पूरी तरह से आर्थिक रूप से सजग राज्य है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत में जाति आधारित राजनीति के परम्परा का विकास हो चुका है। लेकिन गुजरात भलें ही धर्म के मसले पर संवेदनशील राज्य रहा है लेकिन जाति का खुलेआम प्रचार कभी भी नहीं रहा है। यहीं कारण है कि क्षेत्रीय दलों का विकास गुजरात राज्य में नहीं हो पाया था।
मतदान अगर गुप्त तरीके से लोगों द्वारा दिया जाता है तो ओपिनियन पोल पर विचार करना जरूरी है। निर्वाचन आयोग के अनुसार, मतदान गुप्त मतपत्र के द्वारा होता है। मतदान केन्द्र साधारणतया सार्वजनिक संस्थानों जैसे स्कूलों तथा सामुदायिक भवनों में स्थापित किए जाते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि यथासंभव अधिक से अधिक निर्वाचक मतदान करने में सक्षम हो सकें, निर्वाचन आयोग के अधिकारी इस बात की कोशिश करते हैं कि प्रत्ये क मतदाता से 2 कि.मी. के भीतर एक मतदान केन्द्र हो तथा यह कि किसी भी मतदान केन्द्र में 1500 से अधिक मतदाता न हों। प्रत्येक मतदान केन्द्र निर्वाचन के दिन कम से कम 8 घंटे के लिए खुला रहे। मतदान केन्द्र में प्रवेश करने पर निर्वाचक की निर्वाचक नामावली के प्रति जांच की जाती है तथा एक मतपत्र आबंटित किया जाता है। निर्वाचक मतदान केन्द्र में एक स्क्री न्डथ कम्पार्टमेंट के भीतर अपने पसन्द के अभ्यार्थी के प्रतीक पर या उसके समीप मतपत्र पर रबड़ की मुहर लगाकर मतदान करता है। तब मतदाता मतपत्र को मोड़कर एक सामान्यक मत पेटी में डाल देता है, जो पूरी तरह पीठासीन अधिकारी तथा अभ्यरर्थियों के मतदान एजेंटों की नजरों के सामने किया जाता है। मुहर लगाने की इस प्रक्रिया से मत पत्रों को मतदान केन्द्र से नजर बचा कर निकाले जाने तथा मतपेटी में नहीं डाले जाने की संभावना दूर हो जाती है। आयोग ने 1998 से, मतपत्रों के बजाय इलेक्ट्रॉयनिक वोटिंग मशीनों का निरंतर बढ़ती संख्या में प्रयोग किया है। वर्ष 2003 में, सभी राज्जीय निर्वाचन तथा उप-निर्वाचन ईवीएम का इस्तेमाल करके आयोजित किए गए। इससे प्रोत्साहित होकर आयोग ने वर्ष 2004 में कराए जाने वाले लोक सभा निर्वाचन के लिए केवल ईवीएम का ही प्रयोग करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। इस निर्वाचन में दस लाख से अधिक ईवीएमों का प्रयोग किया गया।[1] गुप्त
मतदान से भरतीय समाज को कई प्रकार के फायदे हैं। चुनाव के बाद हिंसा के संभावना को
टाला जा सकता है और निजता के अधिकार को भी बचाया जा सकता है। आज भी चुनाव के बाद प्रतिशोध
के भावना के कारण दंगा, हत्या, अपहरण, अपमानित करना, गुटबंदी आदि को देखा जा सकता है।
इसीलिए गुप्त मतदान एक बेहतरीन और संवैधानिक परम्परा के साथ - साथ कानून भी है। इस
संदर्भ में ओपिनियन पोल को इस प्रकार बताया या दिखाया जाता है, जिससे लगता है यहीं
चुनावी नतीजा है। इससे मतदाताओं के व्यवहार और सोचने के तरीके में परिवर्तन आता है।
इस प्रकार ओपिनियन पोल भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए सही प्रतीत नहीं होता है।
शिक्षा के अभाव और गरीबी के कारण ही राजनीतिक सोच का विकास हुआ है लेकिन अभी आर्थिक
सोच कोसों दूर है। इसीलिए गुजरात राज्य जहाँ व्यापार के संस्कृति का विकास हडप्पाकालीन
युग से ही है तो जाति व्यवस्था उतना प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।
जाति का राजनीति इसलिए भी कामयाब नहीं हो पायेगा क्यूंकि जातिगत आंदोलन करने वाले नेताओं का महत्वाकांक्षा तुरंत सामने आ गया। दलित नेताओं का दल में आने से लोगों को ऐसा लगा आंदोलन का मूल उद्देश्य ही दल में जगह बनाना था। इससे लोगों के विश्वास को चोट पहुंचता है और लोग अपने विवेक का इस्तेमाल कर मतदान करते हैं।
धर्म के विशाल वटवृक्ष के अंदर ही जाति व्यवस्था आ जाती है। धर्मों के ध्रवीकरण से जाति स्वतः कमजोर हो जाती है। बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक के विभाजन से राजनीति का महत्व ही कम हो जाता है। समाजिक सौहार्द और सामुदायिकता के भावना को चोट पहुंचती है लेकिन सत्ता का सीधी रास्ता भी मिल जाता है। आखिर इतने समय बाद भी जाति और धर्म के आधार पर इसलिए चुनाव लड़ा जाता है क्यूंकि मूल समस्या से ध्यान हटाया जा सकें। जातिगत सम्मेलन से किसी गरीब को कुछ भी फायदा नहीं है तो किसे फायदा है। जाति जो भावना या दिल के करीब होता है उसका इस्तेमाल मध्यवर्ग अपने पद पाने के लिए करता है। सब जानता है - मेहनत और कठोर परिश्रम से ही पढ़ाई या रोजगार में सफलता मिलेगीं फिर भी मध्य वर्ग उसे भडका कर और कुतर्क कर अपना लक्ष्य साधता है। इसीलिए शिक्षा वो हथियार
है जिससे पहले यह पता चलता है कि हमारा मूल कर्तव्य क्या है ? हर जाति में उभरता हुआ
मध्य वर्ग नशे में चूर और अपनी जाति का ठेकेदारी करता हुआ जहाँ - तहाँ किसी भी गली
मोहल्ले में मिल जायेगा।
विफलता सफलता की सीढी है मगर विफलता को ही सफलता मान लें तो क्या होगा ? सभ्यता के विकास में हजारों साल लग जाते हैं और विपन्नता आने में हजारों साल नहीं लगते। यहीं सत्य है और हकीकत है। जब अंग्रेज का आगमन हुआ तो बाहशाह जफ़र अपनी अंतिम सांसें भी रंगून में ही लिया। इसीलिए चुनाव को को जाति के जहर से और धर्म के धनुष से बचाने की आवश्यकता है। अगर ऐसा ही चलता रहा चुनावी संकट एक न एक दिन सभ्यता का संकट बन जायेगा।
अगर मेरे विचार से इस प्रकार का विचार चुनावी राजनीति में सभ्यता का संकट है, क्यूंकि बिहार के पूर्व मंत्री शिवानंद तिवारी ने आज कहा कि भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) ने गुजरात विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर कोली बिरादरी के वोट को लुभाने के इरादे से श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। श्री तिवारी ने यहां कहा कि श्री कोविंद कोली बिरादरी से आते हैं और वह इस बिरादरी के अखिल भारतीय संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। यह बिरादरी गुजरात-महाराष्ट्र में पिछड़ी जातियों की सूचि में शामिल है लेकिन उत्तर प्रदेश में यह अनुसूचित जाति है। उन्होंने कहा कि गुजरात में संख्या के दृष्टिकोण से यह ताकतवर जाति है और उसकी आबादी वहां करीब 18 से 24 प्रतिशत है।[2]
सवाल यह है कोई भी व्यक्ति को किसी भी पद पर बैठाया जायेगा तो वह भी किसी न किसी जाति या समुदाय से संबंधित होता। अगर कोई ब्रह्मण होता तो कहा जाता ब्राह्मणवाद है। दलित राष्ट्रपति जैसे उच्च पद पर बैठते हैं तो यह कहा जा रहा है कोली जाति के वोट बैंक का अच्छा - खासा प्रतिशत गुजरात में है, इसीलिए बनाया गया। कोली जाति उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के अंतर्गत है वहीं गुजरात में पिछड़ी जाति के सूची में है। प्रश्न इसलिए खतरनाक है क्यूंकि चुनावी राजनीति में जाति बढ़ती जा रही है और गरीबी, मजदूरों, बाल श्रमिक, महिलाओं के प्रति हिंसा, बेरोजगारी, आर्थिक और नैतिक विकास का मुद्दा पीछे जा रहा है।
पाटीदार जाति के तुलना अगर कोली जाति से करते हैं तो आर्थिक रूप से पाटीदार
मजबूत हैं लेकिन जनसंख्यां के दृष्टिकोण से कोली मजबूत हैं। गुजरात विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष और राजनीतिक विश्लेषक गौरांग जानी कहते हैं कि ये चुनाव विकास के मुकाबले जातिवाद का नहीं है लेकिन विकास के खिलाफ सामाजिक विरोधाभास सामने आया है। विकास से गुजरात की जनता रूबरू है। अब देखना है कि जनता करती क्या है। गौरतलब है कि गुजरात में भाजपा 1995 से पूर्ण बहुमत में है। साल 2007 एवं 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी ने कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व और भाजपा सरकार के विकास कार्यों को मुद्दा बना कर चुनाव में जीत हासिल की। अब कांग्रेस भाजपा के उसी विकास को झूठा बताते हुए मुद्दा बना रही है। हालांकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण माने जा रहे हैं। वजह, इस विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी गुजरात में नहीं हैं। उनकी गैर मौजूदगी में तीन साल में गुजरात दो मुख्यमंत्री देख चुका है। भाजपा के लगभग दो दशक से लगातार शासन में होने के चलते गुजरात में एक समूची नई पीढ़ी जन्म कर युवा हो गई है। इस पीढ़ी को पता ही नहीं है कि गुजरात में कांग्रेस का शासन कैसा था। इस स्थिति में 2017 में भाजपा अब कांग्रेस शासन की विफलताएं गिनवाए तो यह बात लोगों को अपील नहीं करती है। इस मामले में गुजरात भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघाणी ने कहा कि विकास का अनुभव गुजरात की जनता कर ही रही है। जनता ने प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री रूपाणी एवं उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल की अगुवाई में विकास देखा है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ में गुजरात की जनता का विश्वास है। इसलिए स्थानीय निकाय चुनाव -जो सवा साल में हुए उनमें भाजपा जीती है। कांग्रेस की सीटें झटकी हैं। वहीं गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी कहते हैं कि जातिवाद -प्रांतवाद भाजपा ने भड़काया है। भाजपा मानव विकास सूचकांक के पैरामीटर के खिलाफ बात करती है। ये चुनाव गुजरात के सवाल, समस्याओं पर लड़ा जाना है। गुजरात विधानसभा 182 सदस्य है। इनमें से 68 सीटों पर कोली-ठाकोर समाज के मतदाताओं का प्रभुत्व है । इनमें भी 44 सीटों पर कोली समाज का प्रभुत्व है। 24 पर ठाकोर समाज का दबदबा है। समूचे गुजरात में 52 सीटें हैं जहां पाटीदारों का दबदबा है।[3] गुजरात विधासनभा चुनाव से
पहले पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल की कथित सेक्स सीडी सामने ( सिर्फ
आरोप ही है ) आने से हंगामा मच गया है। हालांकि, हार्दिक ने इस तरह की सीडी को लेकर कुछ
दिन पहले ही आशंका जताई थी।[4] निजी जीवन के घटनाओं को सार्वजनिक कर किसी नहीं
नेता या सामान्य व्यक्ति को बदनाम करना या आहत करना, यह राजनीति में गिरते मूल्य और
सस्ता हथकंडा का ही परिणाम है। जो भी यह तो सिर्फ आरोप ही है।
गुजरात के गठजोड़ में एलजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने गुजरात के ऊना मुद्दे पर अपने विचार रखते हुए अपने जीवन में सर्वाधिक राजनीतिक भूल कर दिए।
पासवान ने कहा, 'मैं यह कहना चाहता हूं कि अक्सर छोटी-मोटी घटनाएं होती रहती हैं। मेरे बिहार में इस तरह की घटना अक्सर सुनने को मिलती है। गुजरात के ऊना में भी ऐसी ही छोटी घटना हुई थी जिस पर काफी बवाल हुआ था लेकिन सरकार का काम ऐक्शन लेना है। इस तरह की घटनाओं पर किस तरह के कदम उठाए गए ये ज्यादा जरूरी है।' इसी के उत्तर में जिग्नेश ने कहा, 'पासवान का ऊना अत्याचार को छोटी घटना बताने वाला बयान शर्मनाक है और यह पीड़ितों के घाव पर नमक छिड़कने जैसा है जिन्हें बर्बरतापूर्वक मारने के बाद अर्धनग्न करके घुमाया गया था।' जिग्नेश ने आगे कहा, 'इस घटना के विरोध में करीब 30 दलितों ने जहर पी लिया था, सड़क और रेल लाइन को जाम करके पूरे प्रदेश भर में प्रदर्शन किया था। ये एक जघन्य घटना थी। हम बीजेपी नेता पासवान के इस शर्मनाक बयान की आलोचना करते हैं और इस्तीफे की मांग करते हैं।'[5]
राजनीति में हठबंधन के कला को जानने वाले ही गठबंधन धर्म निर्वाह कर सकते हैं। बदलते राजनीतिक परिदृश्य में अब सत्ता सुख के लिए किसी हद तक गिरकर समझौता ही नहीं मूल्यों का क्रय और विक्रय का दौर प्रारम्भ हो चूका है। दायित्यों को भी दैत्यों के हवाले करने के दौर में कौन आगे है, इसका नहीं खत्म होने वाला दौर प्रारम्भ हो चूका है। राजनीति आखिर क्यों किया जाता है ? इस बात का जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करूँगा।
[1] http://eci.nic.in/eci_main1/h/the_function.aspx
[2] http://www.univarta.com/news/states/story/909601.html
[3] https://www.bhaskar.com/news/CHH-RAI-HMU-MAT-latest-raipur-news-031505-359950-NOR.html
[4] http://zeenews.india.com/hindi/india/alleged-sex-tape-of-patel-agitation-leader-hardik-patel-surfaced/350975
[5] https://navbharattimes.indiatimes.com/state/gujarat/ahmedabad/ram-vilas-paswan-said-una-incident-as-minor/articleshow/61613669.cms
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